बुनियाद में गैर बराबरी
नारी : सुमन सिंह
एह साल कुल बिला गइल, मेहनत बेकार हो गइल…इक्को दाना न बचल ए बचिया, बाबा (दादा) कह रहे हैं। वह सुन लेती है, वैसे ही जैसे फोन पर हर बार सुनती है। गोड़वा से नइखे चल जात, एतना कमजोरी हो गइल बा कि दुइओ फाल चले में देहिया गनगनाये लागेला। केहू पूछवैया नइखे, दिनवा भर टुकुर-टुकुर देवार निहारत बीतेला। अप्रत्यक्ष वे उसे भी ‘कोई पूछने वाला नहीं’ में शामिल कर लेते हैं। वह चुप नहीं रह पाती वरन सफ़ाई देने की भरपूर कोशिश में लग जाती है….उसका दाम्पत्य, कार्यक्षेत्र और जानलेवा व्यस्तताएं। हर बार वे अपना सुख-दु:ख साझा करना चाहते हैं और हर बार उसकी व्यस्तता के बोझ तले दब जाते हैं। वह कुछ ही देर में अपराधबोध की धूल झाड़ कर अपने बचाव में ढेर सारे तर्क गढ़ने लगती है। वह क्या करेगी जानकर इस बार गेहूँ हुआ या नहीं?
रबी की फसल चौपट हो गयी तो अख़बारों ने किसानों के पक्ष में क्या कहा? योजनाएं क्यों नहीं रोक पातीं किसानों की आत्महत्या का अंतहीन सिलसिला? कृषि प्रधान देश में गाँवों ने क्या उन्नति की? आज भी गाँव सिर्फ दुर्दशा का पर्याय बन कर ही क्यों रह गए? आज भी उन संसाधनो को जो गाँव को शहर की ओर खींच लाते हैं, जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाला देश क्यों नहीं जुटा पाया? गाँव में क्या आकर्षण बचा है कि शिक्षित, प्रतिष्ठित, रोजगार करने वाला वर्ग वहाँ जाए, अपने ढहे-ढिमलाए घर का रंगरोगन करे और अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य तलाशे? न हस्पताल, न स्कूल-महाविद्यालय न ही बिजली की कोई व्यवस्था और न ही खेती-किसानी में कोई बरक़त।
बचपन में ज़िद करने पर भी बाबा खेत घुमाने नहीं ले जाते। कहते, यह लड़कियों को नहीं फबता। बड़े होने पर तो फबने का कोई सवाल ही नहीं उठता। उसका काम था सिर्फ देखना अन्न के बीज की बोरियाँ, रोपनी-सोहनी करने वालों के झुण्ड को दुवार से खेत की ओर जाते देखना फिर पकी फसलों के बोझे और उनकी दंवाई-ओसाई। फिर कोठिलों का अनाज से भर जाना और बचे अनाज का मामूली कीमतों पर बिक जाना।
इस बीच बनिया की दुकान का उधार कैसे चुकेगा? चुकेगा या नहीं पर बाबा-अम्मा के दिन रात के झगड़े से त्रस्त हो किसी पड़ोस की सहेली से गप्प करने चल पड़ना। यानि की तब पूरी की पूरी गृहस्थी की पीड़ा बस उनकी, कैसे घर चलेगा का सिरदर्द उनका। चौपट फसल की चिंता उनकी। उधार और सूदखोरों के तगादे से छिलता स्वाभिमान उनका। मन और शरीर के कष्ट उनके। कभी उन्होंने उससे यह सब साझा नहीं किया। शायद सोचते होंगे कि क्या फायदा ये समझेगी ही नहीं।
आज समझाना चाहते हैं तो वह समझती तो है पर उस शिद्दत से महसूस नहीं कर पाती। अन्यथा जब वे कहते कि फसल बर्बाद हो गयी तो वह उनके हृदय की नमी न बन जाती…जब वे कहते कि मेरी बूढ़ी हड्डियाँ चल नहीं पाती तो क्या वह चुप रह जाती? जब वे कहते कि मैं दीवार तकते समय बिता रहा हूँ तो क्या वह उनकी गपशप की संगिनी नहीं बन पाती? फ़ोन पर उनसे बातचीत के कुछ ही देर में हालचाल बतिया लेने के बाद कुछ बचता ही नहीं कि और क्या बात की जाय। बेटियां पराये घर की शोभा हैं बचपन से ही कहने वाले बाबा हर बात के बाद आशीर्वाद देते हैं ‘जहाँ हउ उहाँ बनल रहा।’ वह भी जवाब में कह देती है-‘कुल ठीक हो जाई बाबा,आपन खियाल रखिहा।’ बाबा हँस पड़ते हैं। वह जानती है कि हँसी खोखली और व्यंग से भरी है। वह भी चाहती है कि व्यंग करे, हँसे उस परम्परा पर कि बेटियाँ पराये घर की शोभा हैं। पर व्यंग नहीं करती हँसती भी नहीं। जब रिक्शे,खोमचे वाले तक राजनीति और न्याय-अन्याय की बात करते हैं तो कुछ देर के लिए ठिठक जाती है। किसी मतिभ्रम में पड़े व्यक्ति की तरह याद करने लगती है कि उसका भी तो कोई देश है, कोई अस्तित्व है? फिर मन ही मन झुँझलाती है- क्या होगा जानकर…।
ये एक महिला का नहीं देश की लगभग आधी आबादी का किस्सा है जिसे पितृसत्ता के दबदबे वाला समाज बचपन से परिवार, खेती, संपत्ति समेत सभी महत्वपूर्ण कामों से जानबूझ कर दूर रखता है। इसका नतीजा होता है कि एक पराश्रित, भीरू और हर महत्वपूर्ण निर्णय के लिए किसी न किसी अन्य का मुंह ताकने वाले कमजोर व्यक्तित्व का निर्माण होता है। यह आत्मविश्वास का अभाव उसे हर भय के आगे जड़ बनाकर अपनी रक्षा कर पाने में भी असमर्थ बना देता है।
जो लोग लड़कियों से हर क्षेत्र में लड़कों की बराबरी या उससे भी आगे के कमाल की आशा करते हैं उन्हें बचपन से ही ऐसी भूमिकाएं देने की पहल करनी चाहिए जिससे उनके पांव मजबूती से जमीन पर रहें, वे इस दुनिया को किसी और जितना ही अपना समझें। इससे और कुछ हो न हो लड़कियां आत्मरक्षा में अधिक समर्थ होंगी। इससे उन्हें भी बहुत राहत मिलेगी जो घर चलाने को काम नहीं समझते, सोचते हैं कि दुनिया के झंझावातों का सामना पुरुष करता है, स्त्रियां घरों में आराम करती हैं।