मेरी कलम से…
देश की नित नयी बदलती राजनीति और नित बदलते राजनीतिक विरोध आजकल चर्चा में एक ऐसा वर्ग है जो कमोवेश अभी तक राजनीति में खुलकर समर्थन और विरोध में नहीं आता था लेकिन परिस्थितियों और समयकाल ने कुछ ऐसा संयोग गढ़ा कि समाज का सबसे महत्वपूर्ण अंग लेखक अपनी कलम की ताकत के साथ साहित्य की नाव पर सवार राजनीति में या राजनीति के द्वारा उत्पन्न की गयी सामाजिक अव्यवस्था और कुरीति के खिलाफ लामबंद हो गया है। हाल की कुछ घटनाएं जिनमें कुछ लेखकों और साहित्यकारों की हत्यायें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग परिस्थितिकाल में हुईं किन्तु उसका कारण कहीं न कहीं एक कट्टर विचारधारा का विरोध था जिसके खिलाफ देशभर के साहित्यकारों ने अपना राष्ट्रीय साहित्य सम्मान वापस करके इस विचारधारा का सशक्त विरोध प्रस्तुत किया। हालांकि इस विरोध को समाज और लेखकोें का एक खेमा राजनीति से प्रेरित और सुनियोजित विरोध मान रहा है पर ये वही लोग हैं जिन्हें सुनियोजित तरीके से लेखकों की हुई हत्यायें सुनियोजित नहीं जान पड़ती। असल में एक पक्ष के द्वारा मामला जितना साधारण बताया जा रहा है, उतना साधारण है नहीं। हमारे देश में लोकतंत्र तो है, लेकिन कुछ लोकतंत्र के द्वारा ही मजबूत हुईं ताकतें जब सत्ता के शीर्ष पर पहुंच जाती हैं तो वह लोकतंत्र की स्वतंत्रता ही उन्हें अखरने लगती है और उसको दबाने और कुचलने का षड्यंत्र परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जारी हो जाता है और उसके परिणाम स्वरूप होने वाली घटनाएं होती तो शीर्ष स्तर से सुनियोजित हैं किन्तु उन्हें साधारण और अकस्मात होने वाली दुर्घटनाओं का रूप दिया जाने लगता है। हमारे देश की एक विडम्बना और कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारा देश आज जातिवाद और धर्म की विषमताओं और एक दूसरे को नीचा दिखाने और उस पर अपना प्रभुत्व कायम करने के कुत्सित खेल में व्यस्त है। हालांकि यह पहले भी होता रहा है और आज भी हो रहा है। सारे धर्मों का मूल- एको अस्ति द्वितीयो नास्ति का सिद्धांत समझाते-समझाते सारे धर्म अपनी मूलता को ही खोते नजर आ रहे हैं क्योंकि हम इन धर्मों के मार्गदर्शन और मार्गदर्शकों के द्वारा बताये गये सिद्धांतों का नैतिकता और ईमानदारी से पालन न करके अपने लाभ और हानि के अनुसार उनकी परिभाषाएं गढ़ते रहे हैं। अपने को सभ्य समाज की श्रेणी में रखने वाले आज तक एक स्वस्थ समाज जिसमें धर्म और जाति का भेद न हो, ऐसे समाज की रचना नहीं कर पाये। खैर, यह सामाजिक और धार्मिक विडम्बना है, इसमें ज्यादा न उलझकर असल मुद्दे पर आते हैं। राजनीति में सत्ता तक पहुंचने और फिर उस पर काबिज रहने के लिए जो चालाकियां और सौदेबाजी जरूरी होती हैं, उनको किसी भी राजनीतिक दल ने अपनाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी, जिसके नुकसान के फलस्वरूप देश और समाज की स्थिति क्या होगी, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं। उन्हें तो केवल अपने त्वरित राजनीतिक लाभ से ही मतलब होता है। जैसे देश में सत्तासीन रहीं पिछली कुछ राजनीतिक पार्टियां जिनमें कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ही प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी के रूप में आमने-सामने रही हैं और आज भी इन्हीं की विचारधारा वाली पार्टियां ही प्रमुख हैं। पहले कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों की सरकारें सत्ता में रहीं और वे अपनी राजनीति को लाभ पहुंचाने वाली राजनीति और मुद्दों को ही प्रमुखता से समाज के सामने अच्छा और सही साबित करने में लगी रहीं। आजादी के लगभग 70 दशक बीत जाने के बाद नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बनावटी सेक्युलरिज्म के खिलाफ बनावटी हिन्दूवादी विचारधारा वाले संगठन की बहुमत से लबरेज सरकार सत्ता में है और उस संगठन से जुड़े बाकी हिन्दूवादी विचारधारा वाले संगठन अपने व्यक्तिगत हितों को भी हिन्दूवादी चोला पहना कर हर घटना को एक बहुसंख्यक समाज से जोड़ देते हैं और अपने सत्तासीन दल के दम पर अपनी बारी का बिगुल फूंकते दिखाई दे रहे हैं। जबकि इन संगठनों को करना ये चाहिए कि समाज में फैली हुई असहिष्णुता और असमानता को कम करने और समाज को एक सकारात्मक दिशा देने में अपना योगदान सुनिश्चित करते। इसके विपरीत वे केवल सत्ता मात्र की राजनीति को पुष्ट करने का और उस सत्ता की ताकत से स्वयं पुष्ट होने के अलावा समाज और देश को कुछ भी देने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियों में सहिष्णु समाज का एक जागता और चैतन्य अवस्था को प्राप्त लेखक और साहित्यकार वर्ग कमजोर हो चुके विपक्ष की जगह लेता दिखाई दे रहा है समाज में अपनी स्थिति और आभास की मंद पड़ती गति को चैतन्य अवस्था में लाकर खड़ा करने वाले इस वर्ग ने अपने सशक्त विरोध और साहित्य सम्मान की वापसी के सांकेतिक विरोध के द्वारा ताकतवर सत्ता को चुनौती दी है और यही लोकतंत्र की खूबसूरती है जब लोकतंत्र के द्वारा चुनी हुई मजबूत सरकार सत्ता में बैठ जाने के बाद लोकतंत्र के मापदंडों का उल्लंघन करने लगे तो देश का सबसे कमजोर और असहाय समझा जाने वाला साहित्यकार और लेखक वर्ग लोकतंत्र की ताकत का मजबूत एहसास कराता सत्ता के सामने विपक्ष का विकल्प बनकर खड़ा है।