संभावनाओं की राजनीति में माहिर अमर सिंह
उदय यादव
राजनीतिक संभावनाओं के जनक अमर सिंह फिर सुर्खियों में हैं। समाजवादी पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया है, जिससे उनका राजनीतिक वनवास खत्म हो गया है। ऐसे में प्रश्न यह है कि अचानक मुलायम सिंह यादव को अमर सिंह की आवश्यकता क्यों पड़ गयी? क्या सपा को देने के लिए उनके पास कुछ है? बिल्कुल है, उन्होंने आते ही राज्यसभा चुनाव में लोकदल के कुछ विधायकों के वोट सपा प्रत्याशियों को दिला कर प्रदेश में मुलायम-अजित गठबंधन की संभावनाओं को बल दे दिया है।
दरअसल अमर सिंह के व्यक्तित्व में कई ऐसी खूबियां हैं, जो बहुत कम राजनेताओं में पायी जाती हैं। उनका जन्म बेहद सामान्य परिवार में हुआ है, मगर उनकी व्यावसायिक समझ ने उन्हें करोड़ों का कारोबारी बना दिया। अमर सिंह वोटखींचू नेता भले न हों, मगर सभी जानते हैं कि उद्योग जगत, बॉलीवुड और दूसरे दलों के नेताओं से उनके गहरे रिश्ते हैं। इस सबके बावजूद, यह भी सच है कि अमर सिंह को भले राजनीति में वीर बहादुर सिंह लाये हों, मगर माधवराव सिंधिया के जरिये ही उन्होंने अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाई। लेकिन कांग्रेस ने जब वायदा करने के बावजूद उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा तो उनका मन कांग्रेस से खट्टा हो गया और उन्होंने समाजवादी पार्टी में अपने लिए रास्ता ढूंढा। सपा सुप्रीमो उन दिनों देश में साम्प्रदायिकता के सबसे बड़े विरोधी बन कर उभरे थे और गैर कांग्रेसी सेक्युलर दलों में बेहद अहम थे। ऐसे में अमर सिंह के उनसे जुड़ने से जहां उद्योग जगत को उनके नजदीक लाया, जिसकी प्रदेश के विकास के लिए उन्हें जरूरत थी, वहीं, अमर सिंह को भी समाजवादी पार्टी में आने के बाद ही राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वे 1995 में समाजवादी पार्टी में आये और कुछ ही महीनों में मुलायम सिंह के बेहद निकट हो गये। उन्होंने फिल्मी दुनिया के सितारे अमिताभ बच्चन से लेकर संजय दत्त तक और देश के बड़े उद्योगपतियों आदि गोदरेज से लेकर अनिल अंबानी तक को मुलायम सिंह के सामने लाकर खड़ा कर दिया। यह मामूली बात नहीं थी। इससे मुलायम सिंह बेहद प्रभावित हुए।
इसके बाद पार्टी में अमर सिंह का दबदबा बढ़ने लगा। पार्टी में ज्यों-ज्यों अमर सिंह का प्रभाव बढ़ रहा था, दूसरे नेताओं का प्रभाव घटने लगा था। इससे पार्टी के कई पुराने नेता और कार्यकर्ता असंतुष्ट थे, क्योंकि वे नेताजी से मिल नहीं पाते थे। जो नेताजी पहले आसानी से उपलब्ध रहते थे, उनसे मिलना अब बहुत कठिन हो गया था। अमर सिंह हर समय नेताजी के साथ साये की भांति चिपके रहते थे। फिर जब 1997 में पार्टी का अधिवेशन फाइव स्टार होटल में हुआ तो सभी पुराने समाजवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को अच्छा नहीं लगा। सबको लगा कि पार्टी से समाजवादी मूल्य गायब हो रहे हैं और पार्टी पर ‘अमर कल्चर’ का प्रभाव बढ़ रहा है। लेकिन नेताजी पर अमर सिंह का प्रभाव इतना ज्यादा था कि कोई भी बोलने की स्थिति में नहीं था। हालत यह थी कि मुलायम के बाद पार्टी में दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले वरिष्ठ समाजवादी और पार्टी के संस्थापक सदस्य बेनी प्रसाद वर्मा भी अपने को असहज पा रहे थे। उसके बाद जिस तरह अमर सिंह ने अमेरिका से परमाणु डील के सवाल पर केन्द्र की मनमोहन सरकार को समाजवादी पार्टी के समर्थन का भरोसा दिलाया, उससे सपा में उनकी गहरी पकड़ का संकेत गया।
उधर अमर सिंह के पार्टी में बढ़ते प्रभाव के खिलाफ कार्यकर्ताओं में भी असंतोष बढ़ता जा रहा था। हालत यह थी कि पार्टी के चिंतक माने जाने वाले प्रोफेसर राम गोपाल यादव भी किनारे किये जाने लगे थे। राम गोपाल अमर सिंह को उनकी आभिजात्य शैली के कारण पसंद नहीं करते थे। इन्ही मतभेदों के चलते फिल्म अभिनेता और छात्र जीवन से समाजवादी रहे राज बब्बर ने अमर सिंह के खिलाफ आवाज उठायी। उन्होंने अमर सिंह को दलाल तक कह डाला। इसके बाद तो राज बब्बर को पार्टी से बाहर किया जाना ही था। उसके बाद आजम खां व बेनी प्रसाद को भी इन्ही कारणों से पार्टी छोड़नी पड़ी। लेकिन पार्टी में अमर सिंह का विरोध थमा नहीं, बल्कि बढ़ता ही गया। प्रोफेसर राम गोपाल और अमर सिंह के रिश्तों में खटास इतनी बढ़ी कि आखिर अमर सिंह को भी समाजवादी पार्टी से बाहर होना पड़ा। 27 जनवरी 2010 को उन्हें छह साल के लिए पार्टी से बाहर किया गया। अमर सिंह के लिए यह घटना इसलिए ज्यादा कष्टप्रद थी, क्योंकि उसी दिन उनका जन्म दिन था।
समाजवादी पार्टी से बाहर होने के बाद अमर सिंह ने कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ायीं और उसमें शामिल होने का रास्ता तलाशने लगे। किंतु उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। वे समाजवादी पार्टी से इतने खफा थे कि उसे किसी भी हालत में कमजोर करना चाहते थे। जब किसी पार्टी में जगह नहीं मिली तो उन्होंने 2011 में अपनी पार्टी लोकमंच का गठन किया और 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में 403 सीटों में से 360 पर अपने प्रत्याशी उतारे। उन्होंने और उनकी साथी जयाप्रदा ने पार्टी का धुंआधार प्रचार भी किया। उनका इरादा अपने प्रत्याशी जिताने से ज्यादा समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों को हराने का था, ताकि सपा सत्ता में न आ सके किन्तु जनता ने उनकी पार्टी को पूरी तरह नकार दिया। लोकमंच का कोई प्रत्याशी नहीं जीता। जबकि समाजवादी पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आ गयी।
इस हार के बाद ही उन्हें सही अर्थों में अपनी क्षमता का अहसास हुआ। वे जान गये कि जनता के बीच जाकर वे कभी अपनी जमीन नही बना सकते, सही अर्थों में वे जनता के नेता हैं ही नहीं। उन्हें यह भी अहसास हो गया कि जो इज्जत और हैसियत उन्हें सपा में मिल सकती है, वैसी कहीं नही मिलेगी। इस सच्चाई से रूबरू होने के बाद ही उन्होंने मुलायम सिंह यादव से अपने रिश्ते सुधारना शुरू किया। फिर नेताजी के जन्म दिन पर बधाई देने से लेकर सैफई तक कई अवसरों पर उनकी उपस्थिति देखी गयी।
आज जिस तरह अमर सिंह को समाजवादीपार्टी की जरूरत है, उसी तरह सपा को भी उनकी आवश्यकता है। सभी जानते हैं कि जिन दिनों अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में तूती बोलती थी, उन दिनों चर्चा थी कि अमर सिंह पार्टी के चर्चे, खर्चे और पर्चे का खर्च उठाते हैं। इस बात को सपा नेताओं ने अमर सिंह के जाने के बाद महसूस भी किया। समाजवादी पार्टी को राष्ट्रीय मीडिया में अमर सिंह के रिश्तों के चलते जो स्पेस मिलता था, वो भारी बहुमत से सत्ता में आने के बावजूद अखिलेश सरकार को कभी नहीं मिला। अखिलेश यादव ने सत्ता संभालने के बाद से प्रदेश के सर्वांगीण विकास का जो अभियान छेड़ा है, उसमें उद्योपतियों का सहयोग बेहद जरूरी है। मगर अपेक्षा के अनुरूप उन्हें उद्योग जगत का सहयोग नहीं मिल पा रहा है। इसमें अमर सिंह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शायद यही कारण है कि अखिलेश यादव ने आजमगढ़ में मंच से अमर सिंह की जमकर तारीफ की। 22 मार्च को मुख्यमंत्री वहां सठियांव चीनी मिल के उद्घाटन और 39 परियोजनाओं के लोकार्पण के लिए गये थे। मंच पर मुख्यमंत्री के साथ अमर सिंह भी मौजूद थे। तब मुख्यमंत्री ने कहा था कि अमर सिंह की मौजूदगी पर लोग कुछ न कुछ कहेंगे। मगर अमर सिंह ने आजमगढ़ के विकास में जो योगदान दिया है, उसके लिए हम सब उनके आभारी हैं। अखिलेश यादव द्वारा की गयी अमर सिंह की इस प्रशंसा के राजनीतिक हलकों में कई निहितार्थ निकाले गये। लगने लगा कि अखिलेश भी अमर सिंह की जरूरत महसूस करते हैं। उधर मुलायम सिंह यादव भी आगामी विधान सभा चुनाव में उनकी भूमिका देख रहे हैं। अमर सिंह ठाकुर नेताओं को पार्टी से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उन्होंने ऐसा पहले भी एक बार किया था।
हालांकि 2012 के विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को ठाकुर मतदाताओं का भारी समर्थन मिला था। ठाकुर मायावती से नाराज थे, इसलिए पूरब से लेकर पश्चिम तक ठाकुरों ने सपा का साथ दिया। पार्टी ने भी उन्हें सरकार में भरपूर प्रतिनिधित्व दिया। मगर लोकसभा चुनाव से पूर्व कई ठाकुर नेताओं ने पार्टी तो छोड़ी ही, चुनाव में भी ठाकुर मतदाताओं ने जिस तरह नरेन्द्र मोदी का खुल कर साथ दिया, उसको लेकर मुलायम सिंह यादव चिंतित हैं। इसीलिए वे चुनाव से पूर्ण पार्टी के पक्ष में मजबूत समीकरण बना लेना चाहते हैं। ठाकुरों के जुड़ने से पूर्वांचल में पार्टी की स्थिति बेहद मजबूत हो जाती है। राज्यसभा चुनाव में सपा को अपने कुछ विधायकों के बागी होने की उम्मीद पहले से थी। इसके लिए अमर सिंह के जरिये अजित सिंह से बात हुई और लोकदल के चार विधायकों ने सपा उम्मीदवारों को वोट दिया। इससे आगामी विधान सभा चुनाव के लिए सपा-लोकदल गठजोड़ का रास्ता साफ हुआ। इस गठबंधन के हो जाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतों का बंटवारा रुकेगा और इसका लाभ निश्चित ही सपा को मिलेगा। दूसरी ओर, जिस तरह भाजपा कैराना और कांधला जैसे मुद्दे उठा रही है, उससे यह गठजोड़ बेहतर ढंग से मुकाबला कर सकेगा।
लेकिन यह भी सच है कि अब समाजवादी पार्टी वह नहीं रही जो पहले थी। अब पार्टी में अखिलेश यादव का कद बढ़ रहा है। उन्होंने बेहतर प्रशासन और जन कल्याणकारी योेजनाओं के साथ-साथ विकास के जो कदम उठाये हैं, उससे उनका कद बढ़ा है। समाजवादी पार्टी के धुरविरोधी भी अखिलेश यादव पर उंगली नहीं उठा पा रहे। स्थिति यह है कि बसपा मुखिया मायावती के पिताजी ने भी उनकी तारीफ की है। फिर मुलायम सिंह यादव भी पार्टी उनको सौंपने की तैयारी में हैं।
अखिलेश पार्टी और सरकार में युवाओं की भूमिका बढ़ाने के पक्षधर है। इसमें वे किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे। इन बदली परिस्थितियों को अमर सिंह भी समझते हैं। इसलिए वे अपना हर कदम सोच समझ कर ही बढ़ायेंगे। ल्ल