दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

 संपूर्णता का बोध भारतीय चिन्तन की अनूठी उपलब्धि 

पूर्णता सनातन प्यास है। हम सब अपूर्ण हैं। भोजन या पानी की प्यास अपूर्णता का संदेश है। सांसारिक उपलब्धियों की इच्छा भी हमारी अपूर्णता की ही सूचना है। इच्छा, अभिलाषा या आकांक्षा अपूर्णता के ही बोधक हैं। तनावग्रस्त होने का कारण भी हमारी अपूर्णता है। हम अतृप्त हैं। हमारा मन रीता और रिक्त है। हम किसी भी मार्ग या उपाय से समृद्धि चाहते हैं और समृद्धि अतिशीघ्र नई रिक्तता में बदल जाती है। सुख फिसल जाता है, दुख घेर लेता है। प्रकृति सृष्टि संपूर्णता है। इसलिए संपूर्णता में रहती है और संपूर्णता में ही प्रकट होती है। वृहदारण्यक उपनिषद् में एक अति मननीय मंत्र है, “पूर्णमदः पूर्णमिंद पूर्णात पूर्णमुदच्यते- वह पूर्ण है। यह पूर्ण है। उस पूर्ण से यह पूर्ण प्रकट हुआ है।” यहां ‘वह’ शब्द अज्ञात सत्ता के लिए आया है और ‘यह’ शब्द इस संसार के लिए। दूसरी पंक्ति में कहते हैं “पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण ही बचता है – पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णामेवावशिष्यते।” यहां सामान्य गणित नहीं है। पूर्ण में पूर्ण घटा देने पर शून्य नहीं बचता। यहां अस्तित्व की संपूर्णता का सुंदर विवेचन है। मेरा मन मनुष्य के लिए ऐसा ही मंत्र गढ़ने को उतावला है “अपूर्ण हूं हम सब अपूर्ण हैं। मैं में हम घटाओ तो अपूर्ण मैं ही बचता है।” मैं दुख है, हम होना सुख है और संपूर्ण होना आनंद। संपूर्णता की प्यास स्वाभाविक ही गहरी ही होनी चाहिए।

-हृदयनारायण दीक्षित

संसार ज्ञान के लिए आखों देखी पर विश्वास की परंपरा है। देखना बड़ी बात नहीं। आंख और मन की जोड़ी पर्याप्त है। दोनो की साझा कार्रवाई ही किसी रूप, वस्तु या पदार्थ को दृश्यमान बनाती है। वैसे आंख की भूमिका बड़ी है लेकिन मन कहीं और हो तो ‘देखा गया’ फिसल जाता है। हम चौराहे पर खड़े हैं। तमाम वाहन निकला करते हैं। हम उन्हें देखकर भी नहीं देखते तब मन दूसरे इच्छित विषय से जुड़ा होता है। आंख से देखते समय मन का साथ जरूरी है। पहले देखा, फिर पकड़ा, फिर समझा, तब बात पूरी हुई। इसका उल्टा भी होता है। पहले सोचा, फिर मन लगाया, मन अनुसार विषय खोजा, तब देखा। बुद्धि देखे गए का विश्लेषण करती है। बुद्धि में तमाम पूर्व निर्धारित मानक होते हैं। वे विश्लेषण में सहायता करते हैं। देखी गई वस्तु के बारे में बुद्धि निर्णय करती है। सामान्यतया देखने का प्रपंच यहीं समाप्त हो जाता है। लेकिन कुछ लोग देखने समझने और अपनी ही बुद्धि के निर्णय से भी संतुष्ट नहीं होते। वे प्रत्यक्ष दृश्य के भीतर प्रवेश करने की अभिलाषा रखते हैं। ऐसी अभिलाषा का जन्म प्रश्नों से होता है। प्रश्न ज्ञान यात्रा के सच्चे मित्र हैं। वे संतुष्ट होने से बचाते हैं। वैसे भी प्रश्नाकुल मन को संतोष कहां मिलता है? 

दुनिया के सारे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक प्रश्नाकुल ही रहे हैं। न्यूटन, आईंस्टीन से लेकर आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफेन हाकिंग तक। हम जो कुछ देखते हैं वह दृश्य है। सारे दृश्य प्रकृति और मनुष्य का ‘कार्य रूप’ हैं। प्रत्येक कार्य का कारण होता है। भारतीय दर्शन में यह विश्व एक ‘कार्य’ है। इस कार्य का कोई कारण भी होना ही चाहिए। कोई कार्य अकारण नहीं होता। हम कार्य का कारण जानकर प्रसन्न होते हैं। तब कारण महत्वपूर्ण हो जाता है। लेकिन कारण भी अकारण नहीं होता। इसलिए उपलब्ध कारण के भी कारण का पता लगाने की जिज्ञासा पैदा होती है। बचपन में विज्ञान की पुस्तकों मंे पढ़ा है। समुद्र का पानी विशेष ताप में वाष्प बनता है। हवा उसे आकाश ले जाती है। पानी मेघ बनता है। विशेष वायु दबाव में वह फिर से पानी बनता है। तब वर्षा होती है। वर्षा का पानी भूमि में आता है। नदियां उसे समुद्र में ले जाती हैं। वह फिर से वाष्प बनता है। फिर बादल, फिर पानी फिर वर्षा। चक्र चला करता है। अब सयाना हो गया हूं। प्रश्न और बढ़े हैं। जल चक्र का सरलीकरण मन शांत नहीं करता। कभी कभी यही वर्षा चक्र गड़बड़ा भी जाता है। मन प्रश्न करता है कि ऐसा क्या हो गया? विज्ञान में इसके भी उत्तर हैं लेकिन मन संतुष्ट नहीं होता। 

प्रकृति अराजक नहीं हो सकती। अराजक भी होगी तो अराजकता के भी कोई नियम अवश्य होंगे। अराजकता निरपेक्ष नहीं हो सकती। अराजकता के पहले भी कोई व्यवस्था होनी चाहिए और ऐसी व्यवस्था किसी सुसंगत कारण से अवश्य बंधी रही होगी। यही बात सुसंगत व्यवस्था पर भी लागू होती है। सुसंगत व्यवस्था भी किसी असंगत व्यवस्था से ही आई होगी। कारण हर जगह होना चाहिए। स्टीफेन हाकिंग ने “दि थ्योरी ऑफ एवरीथिंग” को अभी भी बहुत दूर बताया है। ऐसी दूरी के बावजूद वे आशावादी हैं। वैज्ञानिकों की ऐसी खोज वस्तुतः सृष्टि के मूल कारण की जिज्ञासा है। उपनिषद् के ऋषियों ने उस मूल कारण को बहुत दिलचस्प ढंग से गाया है, “वह अतिदूर है, वह अतिनिकट भी है। वह तीव्र वेग से गतिशील है, वह स्थिर भी है।” दूरी और निकटता दो आयाम नहीं हैं लेकिन गति और स्थिरता दो आयाम हैं। तो भी समय के पार गति या स्थिरिता का कोई मूल्य नहीं। असली बात है – मूल कारण। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य और गार्गी का प्रश्नोत्तर है। यहां गार्गी ने कारण का भी कारण पूछते हुए प्रश्नों की झड़ी लगाई थी। याज्ञवल्क्य ने अंतिम कारण ब्रह्म बताया। गार्गी ने पूछा, “ब्रह्मम किस कारण से है?” यही विश्वदर्शन व विज्ञान की आधारभूत जिज्ञासा है?

अनंत प्रश्न हैं, प्रश्नों का उद्गम भी कारण हैं। उत्तर में कारण के विवरण हैं। मूलभूत प्रश्न है कि कार्यकारण की प्रश्न श्रंखला का अंतिम प्रश्न और अंतिम उत्तर क्या है? भारतीय चिंतन दर्शन का ब्रह्म संपूर्णता है। यही अंतिम उत्तर हो सकता है लेकिन प्रश्न तो भी शेष रहता है कि ब्रह्म का कारण क्या है? गार्गी ने यही प्रश्न पूछा था। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि गार्गी तू अतिप्रश्न पूछ रही है? तेरा मस्तिष्क गिर जायेगा। याज्ञवल्क्य शिखर दार्शनिक थे। उन्होंने ब्रह्म का कारण नहीं बताया और प्रश्न को ही अतिप्रश्न बता डाला। दर्शन में प्रश्नों की महत्ता है। अतिप्रश्न को और भी महत्वपूर्ण होना चाहिए। याज्ञवल्क्य की मानें तो ब्रह्म ही अंतिम कारण है। ब्रह्म अकारण है। कार्य के कारण की जिज्ञासा स्वाभाविक है। सभी कार्य परिणाम हैं, इस परिणाम के पीछे कारण की ऊर्जा है। इस विवेचन और विश्लेषण में प्रायः त्रुटि होती रही है। विश्लेषण के काम में हम खण्डशः विचार करते हैं। हम अपनी ज्ञान यात्रा में कार्य और कारण नाम के दो खण्ड देखते हैं। वस्तुतः वे दो नहीं है। कारण ही अपनी गतिशीलता में विकसित होकर कार्य बनता है। कार्य होकर भी वह जड़ नहीं होता। वही अगली मंजिल में कारण बनता है और नये कार्य के रूप में उपस्थित होता है।

कार्य और कारण की श्रंखला में पूर्ण विराम की गुंजाइश नहीं। ब्रह्म पूर्णतम पूर्णता है। यह ब्रह्म ही कारण है और ब्रह्म ही कार्य। गीता के एक सुंदर श्लोक (4.24) में “ब्रह्म ही ब्रह्म को हवि अर्पण करता है – ब्रह्मार्पण ब्रह्म। ब्रह्म ही अग्नि है और ब्रह्म ही हवि। यह हवि ब्रह्म को ही मिलती है। इसका परिणाम भी ब्रह्म ही होता है।” इसके पहले के श्लोक में ऐसा जानने वाले व्यक्ति के लिए “ज्ञानावस्थित चेतसः – ज्ञान में स्थित चेतना” शब्द आए हैं। ऐसे व्यक्ति के सभी कर्म “समग्रं विलीयते – सम्पूर्णता में विलीन होते हैं।” लेकिन यह ज्ञान की उच्चतर स्थित है। संसार का अध्ययन कार्य कारण की श्रंखला के विवेचन से होता है। संसार की प्रत्येक घटना के कारण होते हैं। ऐसे कारण के भी कारण होते हैं। कार्य कारण के प्रत्यक्ष सम्बन्धों का अवसान संपूर्णता के बोध में ही होता है। हम संसार जानना चाहते हैं। इसलिए संसार विषय या ज्ञेय हुआ। जानकारी मिली यह ज्ञान हुआ। हमने जाना सो हम ज्ञाता हुए। लेकिन ज्ञाता और ज्ञान का सम्बंध भी अंत में समाप्त होता है। बोध के अंत में ज्ञाता नहीं बचता। ज्ञाता भी ज्ञान हो जाता है। ज्ञान भी अंतिम अवस्था में कहां बचता है? ज्ञाता, विषय, ज्ञान आदि सभी विभाजन संपूर्णता के ही भाग हैं। संपूर्णता का बोध भारतीय चिन्तन की अनूठी उपलब्धि है। 

(लेखक वरिश्ठ स्तंभकार और उ.प्र. विधानसभा के अध्यक्ष हैं)

Related Articles

Back to top button