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आजादी के 70 साल बाद कहां खड़ा है देश का मुसलमान

मुल्क की आजादी के सत्तर साल गुजर चुके हैं. इन 70 सालों में देश के मुसलमानों ने कई उतार-चढ़ाव भरे दौर देखे और कई चुनौतियों का सामना भी किया है. इसके बावजूद मुसलमानों के अन्दर एक बेहतर जिन्दगी की उम्मीद की लौ हमेशा जलती रही और उनकी आंखो में  इसका ख्वाब सजता रहा है. आजादी के इतने अरसे बाद आज देश का मुसलमान कहां और किस हालत में खड़ा है. इस मुद्दे पर aajtak.in ने देश के तमाम मुस्लिम बुद्धजीवियों से बातचीत की.

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आजादी के 70 साल बाद कहां खड़ा है देश का मुसलमानमुसलमानों का नुकसान मोदी से ज्यादा नेहरु ने किया

पूर्व सांसद इलियास आज़मी कहते हैं- मुसलमानों की जिंदगी को जितना नुकसान जवाहर लाला नेहरु ने 1947 से 1964 के बीच में पहुंचाया है, उतना तो नरेंद्र मोदी पचास साल में भी नहीं पहुंचा सकते. नेहरू के दौर में मुसलमानों की हालत इस कदर खराब हो चुकी थी कि चार मुस्लिम एक साथ खड़े होकर बात नहीं कर सकते थे. मुस्लिम कौम पूरी तरह एहसास-ए-कमतरी का शिकार हो चुकी थी. नौकरी, शिक्षा और राजनीति  में मुसलमानों की हिस्सेदारी पूरी तरह से खत्म कर दी गई थी. नेहरू के इस साजिश में जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष रहे मौलाना हुसैन अहमद मदनी भी शामिल रहे. नेहरू और इंदिरा के दौर में टाट के परदे और गंदी गलियां मुस्लिम बस्तियों की पहचान थी.

मुसलमानों का गोल्डन पीरियड

इलियास आज़मी कहते हैं कि मुसलमानों के खोए हुए आत्मविश्वास को वापस लाने में डॉ. फरीदी की अहम भूमिका रही है. मुस्लिम मजलिश के जरिए उन्होंने मुसलमानों के अंदर से एहसास-ए-कमतरी को खत्म किया। आजादी के सत्तर साल में मुसलमानों के लिए सबसे गोल्डन पीरियड 1977 से 2009 तक था. इसी दौरान देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ी और विकास की दिशा में बेहतर कदम उठाए गए. देश का मुसलमान बाकी समाज के साथ खड़ा हुआ, 2009 के बाद फिर मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया गया है. वर्तमान में मोदी की सरकार है, कुछ चीजें जरूर मुसलमानों के खिलाफ हो रही हैं, लेकिन नेहरू के दौर की तरह मुसलमानों को हाशिए पर नहीं धकेला जा सकता, क्योंकि अब 1947 के दौर वाला मुसलमान नहीं है. आज का मुसलमान मरने-कटने के लिए तैयार है. अपने हक़ की लड़ाई में पीछे नहीं हटेगा.

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लोकतंत्र की आजादी पर खतरा

प्रोफेसर इम्तियाज अहमद कहते हैं कि मुल्क की आजादी के समय जो आजादी के मायने और परिकल्पना थी. आज की परिस्थिति में उस पर खतरा मंडरा रहा है. युनिटी डाइवर्सिटी जो हमारी सामाजिक खूबी है, उसे पीछे ले जाया जा रहा है. नतीजा ये है कि हमारे फ्रीडम के साथ-साथ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी खतरा है.1947 में जो आजादी मिली है वह जीवित रहेगी भी या नहीं.

असुरक्षा की भावना में जी रहा मुसलमान

देश की आजादी के 70 साल में मुसलमानों ने जो तरक्की की है. वह सरकारी स्तर के जरिए नहीं, बल्कि दुर्भाग्य से वह बाजारू ताकतों की देन रही है. मुसलमान बाजारू संभावनाओं का फायदा उठाकर प्रगतिशील और मध्यवर्ग के बराबर खड़ा हुआ है. लेकिन सांप्रदायिक दंगों के जरिए संपत्ति का अटैक भी उसे झेलना पड़ा है. पिछले दो-तीन सालों में परिस्थितियां काफी नाजुक हुई हैं. अल्पसंख्यक होने के नाते मुसलमानों को जो सुरक्षा मिलनी चाहिए थी, दुर्भाग्य से वो सुरक्षा कम हुई है. उन्हें लगता है कि आजादी के समय संविधान के जरिए उन्हें जो आजादी मिली थी वो बचेगी भी या नहीं. मुसलमान आसुरक्षा की भावना में जी रहा है. आज हिंदुत्ववादी सोच और स्टेट के अंदर तानाशाही प्रवृत्ति आ रही है, उसकी देन है कि गौरक्षक लोगों को सरेआम मार रहे हैं. 70 साल पहले जो आजादी मिली थी उस आजादी में अब सांस लेना मुश्किल हो रहा है. 

मुसलमानों में तरक्की-खुशहाली 

पूर्व राज्यसभा सदस्य व पत्रकार शाहिद सिद्दीकी कहते हैं कि 70 साल में देश का मुसलमान आगे बढ़ा है और जिंदगी के हर क्षेत्र में तरक्की कर रहा है. इस यकीन के साथ कि उसका भविष्य देश में महफूज है. बांग्लादेश बनने के बाद देश का मुसलमान इर्द-गिर्द देखना बंद कर अपने भविष्य को सवांरने के लिए मेनस्ट्रीम का हिस्सा बन गया है. यकीनन आज बहुत-सी समस्याएं और चुनौतियां हैं, लेकिन बदलते हुए माहौल में मुसलमानों की नई नस्ल अपनी सोच और काम में बदलाव चाहती है यही वजह है कि आज विश्व में मुसलमान बदतरीन हालत में सामना कर रहा है. भारत में न तो वह किसी कट्टरवादी सोंच से जुड़ा है औऱ न ही किसी आतंकवादी रास्ते पर है. वह पूरी तरह से भारत के संविधान पर भरोसा रखकर नए रास्ते और नई दुनिया की तलाश में है. मौजूदा दौर में जो चुनौतियां हैं उनसे लड़ने के लिए दो ही रास्ते हैं, पहला शिक्षा और दूसरा आर्थिक रूप से सबल होना. इन्हीं दोनों रास्तों पर चलकर मुसलमान अंधेरा दूर कर रोशनी बिखेर सकता है.

खतरे में धार्मिक आजादी

मौलाना सलमान नदवी कहते हैं कि आजादी के 70 साल के बाद भी देश के मुसलमानों को अपनी राष्ट्रभक्ति का सबूत देना पड़ता है. जबकि देश की आजादी में सबसे ज्यादा कुर्बानियां मुसलमानों ने ही दी हैं. इसके बावजूद हमारी वफादारी पर शक किया जाता रहा है. मौजूदा दौर में मुसलमानों की धार्मिक आजादी को टारगेट किया जा रहा है, कभी तीन तलाक, तो कभी कामन सिविल कोड के जरिए. इतना ही नहीं मदरसों को निशाना बनाया जा रहा है. सांप्रदायिक ताकतों के हौसले इस कदर बुलंद हैं कि सरेआम मुसलमानों को मारा जा रहा है. देश का सामाजिक तानाबाना बिगड़ चुका है. ऐसे में आजादी के मायने नहीं रह जाते हैं.

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देश की तहजीब पर अटैक

अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी इतिहास विभाग के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं कि मुसलमान देश की आजादी से लेकर सांस्कृतिक और सामाजिक प्रत्येक रूप में भागीदार रहा है. इसके पीछे की वजह देश में धर्मनिरपेक्षता और मिलीजुली तहजीब पर उनका भरोसा है. संविधान भी उसी तहजीब के तहत बना, जिसमें सभी समाज को बराबरी दी गई. पिछले कुछ सालों में दक्षिणपंथी ताकतों के प्रभाव बढ़ने से देश की इस विरासत पर भी खतरे बढ़े हैं. इन 70 सालों में मुसलमानों के आर्थिक हालात सुधरने के साथ-साथ पंचायतीराज में भी उनका प्रतिनिधित्व बढ़ा है. जो दूसरे समाज में मुसलमानों के प्रति ईर्ष्या की वजह बनी, इसके जरिए दक्षिणपंथी ताकतों को अपना पैर पसारनें का मौका मिला. लेकिन मुझे उम्मीद है कि दक्षिणपंथी ताकते भारत में बहुत लंबे समय तक नहीं रह सकेंगी.

रूढ़िवादी सोच छोड़ प्रोग्रेसिव बने मुसलमान

मुसलमानों के सामने बहुत नाजुक दौर है, ऐसे में उसे आत्मचिंतन करना चाहिए. रूढ़िवादी सोच से ऊपर उठकर प्रोग्रेसिव सोच के साथ आगे आना होगा. इतना ही नहीं एक आम नागरिक की तरह खामोशी से अपनी पसंद की पार्टी को वोट करें, लेकिन सवाल सभी पार्टियों से करें, केवल बीजेपी से ही नहीं. इसके अलावा देश के मुसलमानों को देश के बाकी समाज के साथ मिलकर अपने मुद्दे उठाने चाहिए, जिस प्रकार वो शाहबानों प्रकरण में एकजुट हुए थे उसी तरह किसानों की समस्या और विकास के मुद्दे पर एकजुट हों. सामाजिक न्याय की लड़ाई में बराबरी से खड़े हों.

 

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