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आशु मलिक 2017 की ज़रूरत या आज़म का विकल्प

ashu-malikखनऊ, 6 अक्टूबर. समाजवादी पार्टी को मुसलमानों के करीब समझा जाता है. यूपी की राजनीति में पिछले काफी समय से मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों का सर्वमान्य नेता समझा जाता रहा है. बाबरी मस्जिद मुद्दे पर मुलायम सिंह यादव के स्टैंड ने उन्हें मुसलमानों के करीब कर दिया था. मुलायम शासन में अयोध्या में बाबरी मस्जिद सुरक्षित थी. यही वजह रही है कि मुलायम को अपनी पार्टी में किसी मुस्लिम चेहरे की कभी ज़रुरत महसूस नहीं हुई. यूँ भी आज़म खान से उनके इतने बेहतर रिश्ते रहे हैं कि किसी दूसरे मुसलमान नेता को मुलायम के दिल के करीब पहुँचने का मौक़ा नहीं मिला.

आज़म समाजवादी पार्टी में पूरे दम-खम के साथ राजनीति करते हैं. आज़म सरकार और पार्टी में अपनी शर्तों पर रहने वाले नेता हैं. अमर सिंह की सपा में अब तक आज़म की वजह से ही वापसी नहीं हो पाई. आज़म किसी भी मुद्दे पर बेलाग बोलते हैं और उनकी सोच पर कभी पार्टी की बंदिश नहीं रही है. समाजवादी पार्टी में तमाम मुसलमान हैं लेकिन आज़म खान के स्तर पर कोई नहीं है. किसी दूसरे मुसलमान को आज़म के स्तर तक कभी उभरने ही नहीं दिया गया. जबकि आज़म अक्सर रूठते भी रहते हैं और सपा सुप्रीमो को उन्हें मनाना पड़ता है.

लेकिन पिछले कुछ अरसे की समीक्षा करें तो समाजवादी पार्टी में एक और मुस्लिम चेहरा तेज़ी से उभरा है जिसका नाम है आशु मलिक. आशु मलिक को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दोनों का करीबी माना जाने लगा है. इसकी सबसे बड़ी मिसाल यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले साल 20 मई को दर्जा प्राप्त 36 राज्यमंत्रियों को पद से हटा दिया था. उनमे आशु मलिक का नाम भी शामिल था. लाल बत्ती छिन जाने के बाद भी आशु मलिक का क़द कम नहीं हुआ. पार्टी और सरकार में उनकी बात हमेशा सुनी जाती रही. इस साल एमएलसी चयन का समय आया तो अब तक की सबसे विवादित सूची में एक नाम आशु मलिक का नाम भी शामिल था. जिस एमएलसी की सूची को राजभवन से कई बार लौटाया गया उसमें जिन नामों का चयन हुआ उनमे आशु मलिक का नाम भी है.

एमएलसी सूची में आशु मालिक का नाम शामिल किये जाने पर राजनीति के धुरंधरों को बड़ा आश्चर्य हुआ था कि जिसे अभी हाल में दर्जा प्राप्त मंत्री से हटाया गया है उसे एमएलसी कैसे बनाया जा रहा है लेकिन यह आशु तो तमाम ज़रूरी मुद्दों पर सरकार के लिए पुल बनते जा रहे थे. मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद दंगा पीड़ितों और सरकार के बीच पुल की भूमिका आशु मालिक ने ही निभाई थी और अब जब दादरी में गोमांस के इलज़ाम में अख़लाक़ का क़त्ल हुआ तो भी आशु मालिक को ही दादरी भेजा गया. अख़लाक़ का परिवार उन्हीं के साथ मुख्यमंत्री से मुलाक़ात करने लखनऊ आया.

मुज़फ्फरनगर और दादरी में आशु मलिक की इस महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए राजनीतिक पंडितों के बीच यह चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि क्या आशु मलिक को समाजवादी पार्टी अपने मुस्लिम चेहरे के तौर पर प्रोजेक्ट करने जा रही है. अगर हाँ तो फिर आज़म खान की क्या भूमिका रह जायेगी. क्योंकि समाजवादी पार्टी में तो अब तक आज़म खान को ही मुस्लिम चेहरे के तौर पर देखा जाता रहा है.

अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद दो मुसलमानों को पार्टी में उभरने का मौक़ा मिला. शिया कालेज के पूर्व अध्यक्ष मोहम्मद एबाद और आशु मलिक पर अखिलेश काफी भरोसा करते हैं. अखिलेश के इस रुख से यह भी महसूस किया जा रहा कि अखिलेश समाजवादी पार्टी में मुस्लिम लीडरशिप की सेकेण्ड लाइन तैयार करने में लग गए हैं. आज़म खान सरकार चलाने में दक्ष हैं इसलिए उनका इस्तेमाल विधानसभा के भीतर किया जाये और आम मुसलमानों से जुड़े रहने के लिए आशु मालिक और एबाद जैसी नई पीढ़ी का इस्तेमाल किया जाए क्योंकि आज़म खान का क़द इतना बड़ा हो गया है कि आम मुसलमान उन तक पहुँचने में दिक्क़त महसूस करता है.

अखिलेश अपनी सरकार के तीन साल पूरे कर चुके हैं. दो साल के बाद उन्हें फिर से जनता के बीच जाना है. मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए ओवैसी के क़दम यूपी की तरफ बढ़ ही चुके हैं. जामा मस्जिद दिल्ली के शाही इमाम मौलाना बुखारी पहले से समाजवादी पार्टी से नाराज़ हैं. शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जवाद वक्फ संपत्तियों के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी और सरकार दोनों से खफा हैं. कल्बे जवाद ने 2017 में सपा को उसकी औकात बताने का चैलेन्ज भी कर दिया है. ऐसे में पार्टी के पास से मुस्लिम वोट बैंक के दरकने का खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ा है. कानून व्यवस्था के नाम पर मायावती सरकार को पहले से ललकारने में लगी हैं. दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हुकूमत बनने के बाद से भाजपा यूपी में भी वापसी की तैयारियां जोर शोर से करने में लगी है. ऐसे में दरकते मुस्लिम वोट बैंक को रोकने के लिए अखिलेश और सपा दोनों को ही कोशिश करनी है. उसी कोशिश का नतीजा है कि अचानक आशु मलिक का क़द तेज़ी से बढ़ा है.

जानकारों का कहना है कि लोकसभा चुनाव में रामपुर और अपने आसपास की सीटों को न बचा पाने की वजह से सपा अब आज़म पर उतना भरोसा नहीं कर पा रही है जितना पहले हुआ करता था. मेरठ के हाशिमपुरा दंगे के ज़िम्मेदारों के अदालत से छूट जाने के बाद जब हाशिमपुरा पीड़ितों का सरकार पर गुस्सा फूटा था तब भी आशु मालिक ही पीड़ितों को लेकर अखिलेश और मुलायम के पास आये थे. अखिलेश ने आशु के साथ आये दंगा पीड़ितों को 5-5 लाख रुपये मुआवजा भी दिया था.

जिस तरह से सरकार की मुश्किलों को कम करने में आशु मलिक का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे यह महसूस होने लगा है समाजवादी पार्टी ने आम मुसलमानों के बीच जाने के लिए आशु मालिक को अपनी पार्टी के मुस्लिम चेहरे की शक्ल में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया है. ऐसे में आने वाले दिनों में आशु मलिक का सपा में क़द और बढ़ने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

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