उत्तर प्रदेश

आसान नहीं है लक्ष्य 265+

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संजय सक्सेना

यूपी बीजेपी अध्यक्ष को देनी होगी अग्निपरीक्षा
उत्तर प्रदेश भाजपा के नये अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव के लिये 265 प्लस सीटें जीतने का जो लक्ष्य निर्धारित किया है वह पूरा होगा या नहीं, यह कोई नहीं जानता है। एक तरफ सपा सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाये बैठी है तो दूसरी तरफ बसपा को लगता है कि सपा के जंगलराज से मुक्ति के लिये मतदाता एक बार फिर कड़क नेत्री मायावती को चुनेंगी। तो फिर भाजपा के लिये 265 प्लस का लक्ष्य कैसे संभव हो सकता है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद केशव ने अपने लिये जो लक्ष्य निर्धारित किया है, उसको लेकर विरोधी तो सवाल खड़े कर ही रहे हैं, पार्टी के भीतर भी केशव के दावे पर लोग विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। भले ही लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने शानदार जीत हासिल की हो, लेकिन उसके बाद बीजेपी का यूपी में सफर विशेष यादगार नहीं रहा है। पिछले दो वर्षों में भाजपा को विधान सभा के उप-चुनावों, पंचायत चुनावों, विधान परिषद चुनावों में शिकस्त का सामना करना पड़ा है। पार्टी में गुटबाजी चरम पर है। नेताओं के रवैये से कार्यकर्ता निराश हैं। दिल्ली की सियासत में पैर जमा चुके यूपी के तमाम बड़े नेता 2017 के विधान सभा चुनाव में रुचि नहीं दिखा रहे हैं। पार्टी के तमाम बड़े नेताओं को लगता होगा कि अगर 2017 के विधान सभा चुनाव में नतीजे मनमाफिक नहीं रहे तो फिर उनके दिल्ली में जमे-जमाये पैर उखड़ सकते हैं। उधर, केशव प्रसाद ने राम मंदिर बनाने की बजाये जीएसटी पास कराने को ज्यादा जरूरी बताकर संकेत दे दिया है कि भाजपा विकास के मुद्दे पर ही आगे बढ़ेगी। केशव के मुंह से तो विकास की ही बात निकलेगी, भले ही उनके दिल में राम मंदिर का सपना सजता रहे।
बात यहीं तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश की सियासत में भाजपा जिस तरह से पिछड़ों और दलितों को तरजीह दे रही है, उससे बीजेपी का अगड़ा वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। इसीलिये केशव की नियुक्ति के साथ चर्चा इस बात की भी चल पड़ी है कि अगड़ों के वोट बैंक में सेंध न लगे, इसके लिये अगड़ी जाति के किसी नेता को तुरंत सीएम के रूप में प्रोजेक्ट कर दिया जाये। यह बात भाजपा आलाकमान और संघ के कितना गले उतरती है, यह देखना होगा। खैर, भारतीय नववर्ष के पहले ही दिन उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी को अपना नया हाकिम देकर भाजपा आलाकमान ने एक जंग तो जीत ही ली। यूपी में अगले साल होने वाले विधान सभा चुनाव में कमल खिलाने की जिम्मेदारी भाजपा आलाकमान ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की सहमति के बाद कट्टर हिन्दूवादी छवि वाले नेता और सांसद केशव प्रसाद मौर्य पर डालकर बड़ा दांव चला है। अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले केशव के उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनते ही यूपी का सियासी पारा एकदम से बढ़ना स्वभाविक था और ऐसा ही हुआ। कांग्रेस, सपा और बसपा एक तरफ केशव की कुंडली खंगालने लगे हैं तो दूसरी तरफ केशव की ताजपोशी से होने वाले नफा-नुकसान का भी आकलन विपक्षी दलों द्वारा किया जाने लगा है। केशव को सूबे की कमान सौंपे जाते ही यह साफ हो गया है कि दिल्ली-बिहार में सियासी प्रयोग का खामियाजा भुगत चुकी भाजपा यूपी में नये राजनैतिक प्रयोग की गलती नहीं करना चाहती है। बीजेपी आलाकमान यूपी की सत्ता हासिल करने के लिये उन्हीं तौर-तरीकों को आजमायेगी जिस पर वर्षों से कांग्रेस, सपा, बसपा और अन्य छोर्ट-छोटे दल चलते आ रहे हैं। भाजपा आलाकमान ने केशव की नियुक्ति करके साफ संकेत दे दिया है कि राज्य के 55 प्रतिशत पिछड़ों-अति पिछड़ों को लुभाने के लिये वह सपा-बसपा और कांग्रेस को कांटे की टक्कर देगी।
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कभी देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की संसदीय सीट रही फूलपुर से पहली बार कमल खिलाने वाले केशव प्रसाद मौर्य का यूपी भाजपा अध्यक्ष बनना काफी आश्चर्यजनक रहा। वह यूपी का प्रदेश अध्यक्ष बनने के इच्छुक नेताओं की दौड़ में सबसे पीछे चल रहे थे, लेकिन जातिगत समीकरण में मौर्य सबसे आगे निकल गये। केशव के चयन का हिसाब-किताब लगाया जाये तो उनके नाम पर सहमति बनने की सबसे बड़ी वजह थी, उनकी संघ से नजदीकी, पिछड़ा चेहरा होना, कट्टर हिन्दुत्व और भगवा छवि का होना। केशव ऐसे नेता हैं जो भले ही राम मंदिर की बात नहीं करेंगे, लेकिन लम्बे समय तक राम आंदोलन से उनका जुड़ाव लोग भूल नहीं सकते हैं। चुनावी रणनीति के तहत भले ही नये भाजपा अध्यक्ष अपनी कट्टर हिन्दुत्व और भगवा छवि का प्रचार करने से बचेंगे, मगर सियासी पिच पर वह कई बार हिन्दू समाज के हितों की रक्षा करने के लिये कर्णधार की भूमिका में नजर आ चुके हैं, जिसे कोई भूलेगा नहीं। केशव भाजपा के उस पिछड़ा वोट बैंक को वापस ला सकते हैं जो पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के कमजोर पड़ने, ओम प्रकाश सिंह की निष्क्रियता के कारण भाजपा से दूर चला गया था।

बात केशव के व्यक्तित्व की कि जाये तो नवनिुयक्त अध्यक्ष को सियासी रीति-रिवाजों के अनुसार नई पीढ़ी का नेता भी माना जा सकता है। उम्र के हिसाब से केशव और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के बीच कोई खास अंतर नहीं है। राहुल की तरह ही केशव भी छात्रों के बीच रहना ज्यादा पसंद करते हैं। छात्रों के बीच उनकी सक्रियता और छात्र राजनीति से उनका लगाव कई मौकों पर उजागर हो चुका है। केशव प्रसाद भले ही प्रदेश की कमान संभालने वाले 12वें भाजपा नेता हो, लेकिन पिछड़ा समाज से आकर प्रदेश की कमान संभालने वाले नेताओं की लिस्ट में उनका स्थान चौथा है। इससे पूर्व कल्याण सिंह, ओम प्रकाश सिंह और विनय कटियार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं। भाजपा के नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य जब पहली बार लखनऊ आये तो उनके कार्यक्रम में गुटबाजी रत्ती भर भी नहीं दिखाई दी। जब इसका कारण खोजा गया तो पता चला कि लखनऊ में शपथ ग्रहण कार्यक्रम शानदार हो, इसके लिये केशव प्रसाद दिल्ली में भाजपा के सभी बड़े नेताओं को साध कर आये थे। केशव ने लखनऊ रवाना होने से पहले दिल्ली में यूपी के उन सभी नेताओं से मिलकर आशीर्वाद पहले ही हासिल कर लिया था, जिनके समर्थक उनकी ताजपोशी के कार्यक्रम के दौरान थोड़ा-बहुत भी व्यवधान पैदा कर सकते थे। दिल्ली में अध्यक्ष बनाये जाने का पता चलते ही केशव ने सबसे पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का आशीर्वाद लिया। इसके बाद मौर्य पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिले। बुजुर्ग नेता मुरली मनोहर जोशी का भी मार्गदर्शन लिया। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के भी चरण छुए। बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कलराज मिश्र के साथ यूपी प्रभारी ओम माथुर सहित दूसरे नाम भी इस सूची में थे। लखनऊ आये तो केशव स्वागत कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही गृह मंत्री और लखनऊ के सांसद राजनाथ का नाम लेना नहीं भूले। परिणाम यह हुआ कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में सभी पूर्व अध्यक्षों के साथ ही यूपी प्रभारी ओम माथुर, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिनेश शर्मा, सहसंगठन मंत्री शिवप्रकाश, केंद्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया, संतोष गंगवार, महेश शर्मा, साध्वी निरंजन ज्योति, संगठन महामंत्री सुनील बंसल के साथ ही कई सांसद भी मौजूद थे। हालांकि पश्चिम और पूर्वांचल के सांसदों की संख्या गिनती भर की ही थी।
लखनऊ में गर्मजोशी से हुए स्वागत से उत्साहित केशव ने 2017 के विधान सभा चुनाव में सपा-बसपा के सफाये के साथ ही भाजपा के लिये 265 प्लस का लक्ष्य भी निर्धारित कर दिया। एक तरफ केशव प्रसाद मौर्य का राजतिलक हुआ तो दूसरी ओर निवर्तमान अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी वनवास में चले गये। फिलहाल, अभी तक ऐसे कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं जिससे यह कहा जा सके कि लक्ष्मीकांत वाजपेयी को कहीं समायोजित किया जायेगा। हालांकि केशव की ताजपोशी कार्यक्रम के दौरान वाजपेयी ने नारा जरूर लगाया,‘ केशव नहीं संत है, एसपी-बीएसपी का अंत है।‘ लेकिन शपथ ग्रहण समारोह के बाद लक्ष्मीकांत बीजेपी कार्यालय से तन्हा निकले। साये की तरह वाजपेयी के साथ घूमने वाले बदले सियासी माहौल में पराये हो गये थे। बाइक पर कुछ कार्यकर्ताओं की चहलकदमी के बीच वह चुपचाप निकल गए।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में किसान परिवार में पैदा हुए केशव प्रसाद मौर्य के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने संघर्ष के दौर में पढ़ाई के लिए अखबार भी बेचे और चाय की दुकान भी चलाई। चाय पर जोर देने का कारण साफ है कि कहीं न कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इससे जुड़ाव रहा है, ऐसे में सहानुभूति मिलना तय है। मौर्य आरएसएस से जुड़ने के बाद वीएचपी और बजरंग दल में भी सक्रिय रहे। हालांकि हलफनामे के मुताबिक आज की स्थिति काफी अलग है। उनके और उनकी पत्नी के पास करोंड़ों की संपत्ति है। केशव ने हिंदुत्व से जुड़े राम जन्म भूमि आंदोलन, गोरक्षा आंदोलनों में हिस्सा लिया और जेल गए। इलाहाबाद के फूलपुर से 2014 में पहली बार सांसद बने मौर्या काफी समय से विश्व हिंदू परिषद से जुड़े रहे हैं, लेकिन यूपी के राजनीतिक पटल पर उनकी बड़ी पहचान नहीं है। अखिलेश और मायावती जैसे बड़े चेहरों के सामने केशव कहीं नहीं टिकते हैं। फिर भी वह भाजपा आलाकमान की पसंद बने तो इसका कारण है उनका कोइरी समाज में जन्म लेना। यूपी में कुर्मी, कोइरी और कुशवाहा ओबीसी में आते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के साथ अन्य चुनावों में भी बीजेपी को गैर यादव जातियों में इन जातियों का समर्थन मिलता रहा है। राजनीतिक पंडितों की मानें तो बीजेपी को यूपी की सत्ता तक पहुंचने के लिए अगड़े-पिछड़े दोनों का समर्थन जरूरी होगा और ऐसे में जातीय संतुलन बनाने के लिए बीजेपी सीएम उम्मीदवार के लिए किसी सवर्ण का नाम घोषित कर सकती है।
बहरहाल, नयनियुक्त प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव नाथ मौर्य को अभी तो सब कुछ अच्छा ही अच्छा लग रहा है, लेकिन उनकी दुश्वारियां भी कम नहीं हैं। ’

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