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कहीं मोहरा तो नहीं हैं हार्दिक पटेल

hardik patelडॉ. विजय नारायण
आरक्षण की मांग पर जाति विशेष का जमावड़ा कर लेना आसान होता है। रोजगार बड़ी समस्या है। इसमें भी सरकारी नौकरी का क्रेज अलग होता है। जब इससे संबंधित सब्जबाग दिखाए जाते हैं तो भीड़ एकत्र होने लगती है। गुर्जर और जाट आंदोलन में भी हुजूम कम नहीं था, जबकि ये जातियां राजस्थान या उत्तर प्रदेश के सीमित क्षेत्र में हैं। फिर भी इनके आरक्षण की मांग संबंधी आंदोलन ने सरकारों की नींद हराम कर दी थी। इन जाति समूह के लोगों ने सड़कों की जगह रेल पटरियों पर आंदोलन चलाया था।

हार्दिक पटेल ने भी एक आसान रास्ता चुना। वह गुजरात के पटेल समुदाय को आरक्षण देने की मांग पर आगे बढ़े और पीछे भीड़ बढ़ती गई, 22 साल की उम्र में वह नेता बन गए। नेता बनने का उन्होंने कोई अन्य रास्ता चुना होता तो उसमें अधिक समय लगता, अधिक संघर्ष करना होता। वह गुजरात क्या राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ गए। लेकिन यह तय है कि हार्दिक पटेल के नेता बनने की कीमत पूरे देश को तनाव से चुकानी पड़ सकती है। ऐसे में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इसका समाधान करना होगा। खासतौर पर देश के युवको को हार्दिक पटेल जैसे जातिवादी मानसिकता के लोगों को नकारना होगा।

आज कई विपक्षी पार्टियां खुश हैं, उन्हें लगता है कि यह परेशानी गुजरात की है। वहां की भाजपा सरकार के सामने संकट उत्पन्न हुआ है। लेकिन यह सोच घातक हो सकती है। कल्पना कीजिए कि देश के अन्य राज्यों में भी आरक्षण की मांग पर ऐसे ही जाति समूह सड़कों या रेल पटरियों पर जमा होने लगे, तो क्या होगा। तब क्या गैर भाजपा पार्टियों की सरकारें चैन से बैठ सकेंगी।

इसमें संदेह नहीं कि वंचित या शोषित वर्ग को आरक्षण का लाभ देकर बराबरी पर लाना उचित है। लेकिन यह भी समझना होगा कि आरक्षण असीमित नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी सीमा भी निर्धारित की है। ऐसे में गुजरात सरकार यदि आरक्षण की नई मांग स्वीकार करती है, तो इसे ओबीसी कोटे के तहत ही किया जा सकता है। यदि इस पर आम सहमति हो तब आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन इससे ऐसे आंदोलनों से समस्या पेंचीदा भी हो सकती है। गुजरात में इसके लक्षण दिखाई भी देने लगे हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग ने पटेल समुदाय को आरक्षण देने का विरोध किया है। उनके अनुसार कुल मिलाकर यह समुदाय गुजरात में सवर्ण श्रेणी का रहा है।

ऐसे में चर्चा तो यह भी है कि इस भीड़ में भाजपा विरोधी तत्व भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। इनका पटेल संप्रदाय से कोई लेना-देना नहीं, ये गुजरात में अराजकता फैलाना चाहते हैं। इसके तार गुजरात के बाहर तक जुड़े हो सकते हैं। हार्दिक कभी अरविंद केजरीवाल की कार चला चुके हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आंदोलन की स्टेयरिंग हार्दिक नहीं, किसी अन्य के हाथ में हो। आर्थिक रूप से इस वर्ग को संपन्न माना जाता है। गांव-शहर सभी जगह इस वर्ग का प्रभाव है। हीरे के कारोबार में इनका वर्चस्व है।

इस वर्ग का नौकरी में कम प्रतिशत होने का कारण यह नहीं कि इनका शोषण होता रहा है, या यह वंचित वर्ग रहा है, जिसे पढ़ने का मौका नहीं मिला। यह शोषित, वंचित वर्ग नहीं है। गुजरात में इस समुदाय ने स्वेच्छा से व्यवसाय को तरजीह दी। नौकरी पर कम ध्यान दिया।

जाहिर है कि यहां समस्या अलग है। यदि हार्दिक पटेल अपने समुदाय की इस स्थिति में बदलाव चाहते थे, और उन्हें लगता था कि अब व्यवसाय की जगह नौकरी पर अधिक ध्यान देना चाहिए, तो उन्हें इसके मद्देनजर अपने जाति समुदाय में जन आंदोलन चलाना चाहिए था। उन्हें बताना चाहिए था कि उनका समुदाय अब नौकरी प्राप्त करने को अपना लक्ष्य बनाए। लेकिन जन जागरण का ऐसा अभियान कठिन होता, वह आज की तरह रातों-रात हार्दिक को इतना चर्चित न बना देता। इसलिए उन्होंने जातीय तनाव का रास्ता चुना। इसमें सफलता की नहीं, लेकिन उनके नेता की गारंटी अवश्य थी। इसमें वह सफल रहे।

जातीय मानसिकता से प्रेरित आंदोलन ने हार्दिक पटेल को अवश्य शानदार रोजगार दे दिया, वह राजनीति में चल निकले। लेकिन गुजरात के पटेल समुदाय को कोई बड़ा लाभ नहीं मिलेगा। यदि आरक्षण की मांग मान ली गयी, तब भी यह देखना चाहिए कि अब सरकारी नौकरियों की संख्या कम हो रही है। इसमें पहले से ही अन्य पिछड़ी जातियां आरक्षण में शामिल हैं उसमें गुजरात के पटेल जुड़ गए तो कितना लाभ मिलेगा। जो लोग अब तक पढ़ाई की जगह व्यवसाय और खेती को महत्व देते रहे हैं, वह आरक्षण का कितना लाभ उठा सकेंगे। इनमें से किसी बात का जवाब हार्दिक के पास नहीं है।

हार्दिक की बातों पर विश्वास करे कि गुजरात के सवा करोड़ लोग उनके साथ हैं, तो यह भी मानना होगा कि लगभग पांच करोड़ लोग उनके विरोध में है। वह उनके आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। जवाबदेह केवल हार्दिक ही नहीं है।

उनके कथन ने खासतौर पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी जवाबदेह बनाया है। हार्दिक ने इन्हें अपना माना। अब इन्हें बताना होगा कि क्या ये ऐसे जातिवादी आंदोलन का समर्थन करते हैं? यदि हां, तो यह बताएं कि यदि इनके प्रदेशों में भी आरक्षण की मांग को लेकर ऐसे आंदोलन हुए तो क्या वे उसका स्वागत करेंगे, यदि नहीं तो खुलकर विरोध करें, जिससे अन्य जाति समूह इससे प्रेरणा न लें। 

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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