दस्तक-विशेष

कितनी अरुणा शानाग और…

 

नारी : सुमन सिंह

aruna-070311वह एक अल्हड़, सुन्दर और नवयौवन की उमंग से भरी-पूरी मात्र चौबीस वर्ष की लड़की थी, जिससे प्रेम करती थी उससे जल्द ही शादी करने वाली थी। पेशे से नर्स थी। निश्छलता से लबालब उसकी उजली मुस्कान से बीमार दिलों के अंधेरे रोशन हो जाया करते थे। उसके सेवाभाव से भरे मन के किसी कोने में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का भी अटूट हिस्सा बसता था। इसी हिस्से ने उसे उस दिन व्यग्र किया होगा और वह उस चोर सफ़ाईकर्मी सोहनलाल वाल्मीकि के खिलाफ़ बोल पड़ी होगी। उसकी इस सत्यप्रियता की कितनी बड़ी सज़ा मिलने वाली है, उसने सोचा भी न होगा।
27 नवम्बर1973 की रात और रातों की तरह ही रही होगी उसके लिए। रोज की तरह ही चेंजिंग रूम में कपड़े बदलने गयी होगी। कुत्ते को बांधने वाली चेन से क्रूर सोहनलाल उसका दम घोंटने लगा होगा। अरुणा की थमती साँसों के साथ-साथ दुष्कर्म की पीड़ा की घुटती चीख किसी तक नहीं पहुँच पायी होगी। उसकी लहूलुहान मरणासन्न आत्मा तो अपने साथ हुए अन्याय पर तड़प भी न पायी होगी क्योंकि उसी समय उसका मस्तिष्क मृत हो गया था। आँखों की रोशनी चली गयी थी और लकवा मार गया था। उसकी मद्धम साँसों को तो उसके सहकर्मियों के औदार्य ने सम्हाल लिया पर वह 42साल तक मुम्बई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के बेड पर जिन्दा लाश की तरह पड़ी रही। पड़े-पड़े ही वह सुन्दर युवती कुरूप वृद्धा हो गयी और अंतत:66 वर्षीय अरुणा शानबाग ने18 मई 2015 को दम तोड़ दिया।
यह अरुणा की करुण, मार्मिक सत्यकथा है जिसको इसलिए याद रखा जायेगा कि उस पर किताब लिखी जा चुकी है, धारावाहिक और फ़िल्म बनी है, मध्यप्रदेश सरकार उसके नाम पर पुरस्कार शुरू करने जा रही है। लेकिन इसलिए भी कि अरुणा के समूचे जीवन को तहस-नहस कर देने वाले दरिंदे को मात्र सात साल की सज़ा हुई। अरुणा को लोग इसलिए भी भुला नहीं पायेंगे क्योंकि उसे घर वालों के उपेक्षित कर देने के बावजूद मानवीय मूल्यों में यकीन करने वालों ने बयालीस साल तक सहेज कर रखा। अरुणा को सम्हालने-सहेजने वालीं नर्सें सेवाभाव और समर्पण से भरी आस्थवान थीं। इन्होंने समय-समय पर अरुणा जैसी असहाय और असाध्य मरीजों के लिए इच्छामृत्यु की माँग करते हुए आंदोलन किया था लेकिन अदालत ने उनकी मांग नहीं मानी। लोगों ने इन्ही आंदोलनों के बहाने अरुणा को याद किया होगा। अरुणा के जाने के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए कैंडिल मार्च करने वाले भावप्रवण लोगों को तब 2012 की दिल्ली में घटित दुष्कर्म की शिकार क्षत-विक्षत और जीने की चाह में तड़पती युवती निर्भया भी जरूर याद आई होगी। कुछ पुराने लोगों को 1978 की बलात्कार पीड़िता महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले की 14 वर्षीया लड़की मथुरा भी जरूर याद आई होगी, क्योंकि उसी समय महिला संगठनों के सक्रिय आंदोलन के फलस्वरूप 1983 में अपराधिक कानून में संशोधन करके एक्ट (नंबर-46) गंभीर कानून बनाया गया।
स्त्रियों पर यौन हमले इतने आम हो चले हैं और बढ़ते जा रहे हैं
कि स्वाभाविक है रोज के अखबारों, समाचार चैनलों में पढ़े, देखे-सुने जाते बलात्कार, यौन-हिंसा, दुराचार, दुष्कर्म जैसी अपराधिक शब्दावलियाँ बहुत आम और ऊबभरी जान पड़े। मासूमों के साथ आये दिन होने वाले दुराचार, झाड़ियों, खेतों, कुओं, पास-पड़ोस यहाँ तक कि घरों में मिलने वाले अर्धनग्न-रक्तरंजित शव लोगों को बहुत विचलित न कर पाएं। आँकड़े चीख-चीख कर बताते हैं कि भारत में हर 35वें मिनट पर एक महिला दुष्कर्म की शिकार होती है और दर्ज़ मामलों में सिर्फ़ 27 प्रतिशत मामलों में ही सज़ा सुनाई जाती है। यह हौलनाक सत्य है कि दरिंदे बाहर नहीं घरों के भीतर भी है। घरों में अपने ही सगे-संबंधियों के दुष्कर्म की शिकार बच्चियाँ जब अपना दर्द बताना चाहती हैं तो उन्हें या तो मान-मर्यादा का हवाला देकर चुप करा दिया जाता है या तो उनके मूलभूत अधिकारों और सहज स्वतंत्रता पर ही अंकुश लगा दिया जाता है। अब लोग छोटी-छोटी घटनाओं से परेशान नहीं होते, बड़ी क्रूर-पैशाचिक घटना से ही सिहरते हुए जागृत होते हैं। मशाल उठाते हैं और क्रांति-क्रांति के ज्वार में कुछ दिन उबलते-उफनाते हैं फिर शांत और बेपरवाह हो जाते हैं। इतने बेपरवाह कि अपने ही घर की बच्चियों की सिसकियाँ नहीं सुन पाते।
जब तक औरत को उसके बाकी अस्तित्व की उपेक्षा कर सिर्फ शरीर के रूप में देखा जाता रहेगा, तब तक बलात्कारियों की पीढ़ियां पैदा होती रहेंगी। अरुणा शानबाग एक दारुण रूपक में बदल चुकी है जिसके साथ अपने प्रमुख स्तंभों समेत यह पूरी व्यवस्था भी 42 सालों से कोमा में पड़ी हुई है क्योंकि उस दहला देने वाले कांड के बाद से यौन हिंसा और बलात्कार न सिर्फ बढ़ते गए हैं बल्कि देश की राजधानी को “रेप कैपिटल” भी कहा जाने लगा है। इस सवाल का क्या जवाब है कि बलात्कारी तो सात साल बाद छुट्टा घूमने को स्वतंत्र हो गया लेकिन अरुणा को किस कसूर की सजा चार दशकों तक भुगतनी पड़ी, क्या यही सिलसिला आगे भी चलता रहेगा?

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