छत्तीसगढ़ः ‘पूरे स्कूल को पता है, मैं पुलिस वाला हूं’
चौथी कक्षा में पढ़ने वाले सार्थक अभी 12 साल के हैं और 2013 से छत्तीसगढ़ पुलिस में बाल सिपाही की नौकरी कर रहे हैं। असल में छत्तीसगढ़ में पिछले कई सालों से पुलिस विभाग में ऐसे बच्चों को बाल सिपाही के तौर पर भर्ती किया जाता है, जिनके अभिभावक की पुलिस की नौकरी में रहते हुए असमय मौत हो गई हो।
राज्य में ऐसे बाल आरक्षकों की संख्या लगभग 300 के आसपास है, जिनकी उम्र 5 साल से 17 साल तक है। सार्थक उनमें से ही एक हैं। सार्थक की मां कहती हैं, “छत्तीसगढ़ पुलिस में कार्यरत अपने पति की मौत के बाद मैं बिखर गई थी, मैं गर्भवती थी और सार्थक तब केवल आठ साल का था।
जब विभाग ने नौकरी का प्रस्ताव रखा तो मेरे सामने आठ साल के सार्थक को बाल सिपाही के तौर पर भर्ती करवाने के अलावा कोई चारा नहीं था।” हालांकि सार्थक की मां नहीं चाहतीं कि उनका बेटा ज़िंदगी भर सिपाही बना रहे। उनकी इच्छा है कि पहले सार्थक कुछ पढ़-लिख ले, फिर जो बनना चाहे, वह बने। 12 साल के सार्थक अपनी आंखों को मिचमिचाते हुये कहते हैं, “मैं ख़ूब पढ़ना चाहता हूं और बड़ा आदमी बनना चाहता हूं।”
उन्हें कई कवितायें याद हैं लेकिन सपने और परियों वाली कविता उन्हें ज़्यादा पसंद है। उनके पास बड़े-बड़े सपने हैं लेकिन मासूम राज इस बात को भी जानते हैं कि परियां और सपने सच नहीं होते। जाने किसने उन्हें सीखा दिया है, राज कहते हैं, “केवल हमारी ज़िंदगी सच है।”
छत्तीसगढ़ पुलिस में कार्यरत उनके पिता 28 साल के हिम्मत सोनवानी की पिछले साल एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी, जिसके बाद घर की आर्थिक स्थिति गड़बड़ा गई।
इसके बाद पिछले महीने की 4 अप्रैल को ही राज को छत्तीसगढ़ पुलिस में बाल सिपाही के तौर पर भर्ती किया गया है। रायपुर में अपने चाचा के साथ पहली बार पुलिस लाईन में आए राज बेफिक्री के साथ पुलिस वालों के बीच आते-जाते घास में बैठी तितली को देख रहे हैं।
राज कहते हैं, “मैंने अपने पीपी-1 के दो दोस्तों को बताया था कि मैं पुलिस हूं लेकिन उन्हें किसी और को बताने के लिए मना किया था। लेकिन उन्होंने मेरी बात नहीं मानी और अब पूरे स्कूल को पता है कि मैं पुलिस वाला हूं।”
राज को टीवी पर कार्टून देखना पसंद नहीं है, लेकिन वे टीवी सिरियल सीआईडी ज़रुर देखते हैं और उन्हें दया का किरदार सबसे अधिक पसंद है। हालांकि मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि इन बाल आरक्षकों से पुलिस थानों में काम लिया जाता है, जो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का साफ उल्लंघन है। उन्हें एक दिन पुलिस दफ्तर में काम करना पड़ता है और दूसरे दिन वे स्कूल जाते हैं।