जहां कल्पनाओं के पंख होते हैं
आपके पत्र
‘दस्तक टाइम्स’ के जनवरी 2016 के विषेशांक में नवीन जोशी का लेख पढ़कर मुझे यह कहने का मन कर रहा है। मेरे बेटा-बहू अमेरिका में है, दोनों डॉक्टर हैं। मेरा बेटा अमेरिका के सबसे बड़े हेल्थ ग्रुप में सीनियर पोजीशन में काम करता है। हर सप्ताह वो अमेरिका के किसी न किसी शहर के दौरे पर होता है, लेकिन दो या तीन दिन में वापस घर आ जाता है और सप्ताह के बाकी दिन घर से काम करता है। हवाई जहाज से वह उड़कर अपने काम पर जाता है और फिर विमान से ही वापस आ जाता है, अपने बीवी-बच्चों और सवा एकड़ में फैले घर के चारों तरफ फैली हरियाली, छोटे से जंगल और उनमें विचरते हिरनों के बीच। अपने घर में किसी बालकनी में वह लैपटॉप लेकर बैठता है और सारा दिन उसी पर काम करता है। बाहर चिड़ियां चहचहा रही होती हैं, तितलियां बिना कुछ कहे खुशियां बहा रही होती हैं और लॉन में लगाई गई एक कैनॉपी में डली मेज पर मोटी मोटी गिलहरियां नृत्य करती हैं।
बात का अगर भारत संदर्भ लिया जाए तो मेरा बेटा अपना दौरा जल्द से जल्द पूरा कर अपने घर आंगन में लौटे, इसका पूरा खर्च कम्पनी देती है। पता नहीं कम्पनी कैसे मेरे बेटे और उस जैसे दूसरे अफसरों का खर्चा वहन करती है!
लेकिन शायद कम्पनी जानती है कि यह सुविधा देकर वह अपने कर्मियों को कितना सुखी बनाती है, उनका मनोबल बढ़ाती है, उसके आसपास को खुशहाल रखती है। मैं अभी तीन माह पहले वहां गया था। उन्हीं दिनों मेरी मेल पर डीएलएफ नाम की मशहूर बिल्डर्स कम्पनी का एक संदेश आया। वे लोग दिल्ली के ग्रेटर कैलाश टू में आवासीय कॉलोनी बना रहे हैं। और जानते हैं, उसके सबसे छोटे एक फ्लैट का न्यूनतम मूल्य है 12 करोड़ रुपए, वह भी मात्र 2400 वर्ग फीट का फ्लैट! मैंने अपनी बहू को यह मेल दिखाया और उससे कहा कि दिल्ली में प्रॉपर्टी अमेरिका से भी महंगी है। उसका जवाब था- लेकिन पापा यह तो बताइए कि जब दिल्ली में 12 करोड़ के फ्लैट से आप बाहर आएंगे तो क्या चंद कदम की दूरी पर जंगल होगा, हिरन होंगे, मोर होंगे और सांस लेने लायक हवा होगी? क्या आप बिना जाम में फंसे गाड़ी चला सकेंगे?
नवीन जी की सुखद कल्पनाओं के मानिंद पिथौरागढ़ के हवाई अड्डे से जो नहीं हो सकता था, वह अमेरिका में तो आज जगह-जगह होता है। स्विटजरलैंड में होता है, कई और यूरोपीय देशों में होता है। लोग नौकरी पर जाते हैं और शाम अपने गांव वापस आ जाते हैं।
स्विटजरलैंड जैसे कई देशों में हर गांव में कम से कम एक उद्योग लगा हुआ है जो नौकरी देता है। वहां कई कई मॉल होते हैं, जहां जरूरत का हर सामान मिलता है, शहरों जैसे अच्छे स्कूल होते हैं और इन स्कूलों में लखनऊ के बाबू स्टेडियम जैसे फुटबाल के तीन-तीन चार-चार मैदान होते हैं.. और सबसे बड़ी बात यह कि कानून का राज होता है। नवीन जी, आप जिस गांव में रोज वापस आना चाहते हैं, अब वो वैसे गांव भी नहीं रहे। वहां एक प्रधान होता है जो कई लाख खर्च करके चुनाव जीतता है, बच्चे को ठीक से पढ़ाना है तो उसे टाई लगाकर, स्कूल डे्रस पहनाकर एक बस में बिठालाना होता है जो कई मील दूर शहर में बने स्कूल में उसे ले जाती है और शाम को वापस लाती है। ऐसे बच्चे से आप यह पूछने लायक भी नहीं रहते कि ‘बच्चे स्कूल में कोई होमवर्क मिला है क्या’?
ज्ञानवर्धक साबित हो रही पत्रिका
मैं पत्रिका से पिछले कई वर्षों से जुड़ी होने के कारण बताना चाहती हूं कि इसके व्यापक प्रसार क्षेत्र और सहज उपलब्ध्ता होने से पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसकी बढ़ रही रोचकता से बड़ी संख्या में पाठकों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हो रहा है। साथ ही उसकी निखरती भूमिका के चलते महिला पाठकों का भी ध्यान इसकी ओर तेजी से बढ़ रहा है। पत्रिका के पिछले अंक में प्रकाशित कहानी माँ के कंगन और हसरतें काफी अच्छी लगीं। बिल्कुल दिल को छू को गयीं। ऐसी कहानियों से महिलाओं का ज्ञानवर्धन होता है और इससे महिलाओं को नई सीख और प्रेरणा मिलती है, जो महिलाओं को पत्रिका से जुड़ने के लिए पे्ररित कर रही है। ऐसी कहानियां लगातार प्रकाशित करते रहना चाहिए। अनुरोध है कि इसमें महिलाओं के सन्दर्भ में लेख प्रकाशित तो हो रहे हैं, फिर भी स्वास्थ्य, खानपान तथा कुछ अलग तरह से समसामयिक विषय पर लेखन कार्य करवाया जाए तो दस्तक पत्रिका की रोचकता में चार चांद लग सकते हैं। अच्छी पत्रिका के लिए दस्तक परिवार को बधाई।
-रंजना गुप्ता, इलाहाबाद
महिला अपराध पर अंकुश जरूरी
महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध पर काबू पाने के लिए तमाम कठोर कानून बने हैं। इसके बावजूद प्रतिदिन क्यों महिलाएं शोषण, हत्या एवं आत्महत्या की शिकार हो रही हैं। क्या यही अपराध है कि उसने लड़की होकर जन्म लिया या कुछ और। दस्तक के पिछले अंक में प्रकाशित रिपोर्ट- तुमने कभी खौलता हुआ पानी पीया है, एक जिंदा निर्भया की आपबीती है, जो समाज के घिनौने चेहरे से रूबरू कराती है। विशेष स्टोरी के लिए अभिषेक जी को बधाई। अगर देखा जाए तो महिलाओं के बिना सृष्टि ही अधूरी है। उसके बावजूद कुछ क्रूर लोग गर्भ में ही लड़की की जानकारी पर हत्या करवा देते है, जबकि यह कानूनन अपराध है, लेकिन उनको इस कानून का तनिक भी भय नहीं। तभी तो वारदात को अंजाम देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। उसके बाद ससुराल सही मिला तो ठीक, नहीं तो वहां भी उसको हेयदृष्टि से देखकर शोषण का सिलसिला चालू रहता है। क्यों उनके लिए स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है। अगर है तो उनको क्यों एक वस्तु की नजर से देखा जाता है। प्रतिदिन देश में हजारों की संख्या में लड़कियों के साथ तमाम आपराधिक वारदात घटने की खबरें रहती हैं। क्या कानून उनके प्रति हो रहे अपराध को रोक पाने में सक्षम नहीं या फिर पुलिस प्रशासन की भूमिका सक्रिय नहीं। सवाल बरकरार है कि महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध कैसे कम हो पाएंगे। क्या जनता के द्वारा जनता के लिए चुने गए सेवकों की कोई जिम्मेदारी नहीं। यदि है तो इसे रोकने के लिए वह क्या कदम उठाएंगे।
-अखिलेश सिंह, वाराणसी