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प्यार के मायनों की तलाश ‘बेफिक्रे’

befikre9_2016129_162136_09_12_2016बतौर निर्देशक आदित्य चोपड़ा ने ‘रब ने बना दी जोड़ी’ के आठ सालों बाद इस फिल्म से पुराने रोल में वापसी की है। 1995 में अपनी पहली फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ से लेकर अब तक उन्होंने प्यार की पहेलियों व उसकी राह की चुनौतियों को अपनी कहानियों में प्रमुखता और प्रभावी तरीके से पेश किया है। वे यार-परिवार, मूल्य और रिवाजों को भी तरजीह देते रहे हैं। साथ ही काल-खंड विशेष में युवा जिन द्वंद्वों से दो-चार हैं, वे उनकी कथा के केंद्र में रहे हैं। ‘बेफिक्रे’ भी तकरीबन उसी ढर्रे पर है। पूरी इसलिए नहीं कि इस बार यार-परिवार और रीति-रिवाज फिल्म के अतिरिक्त लकदक किरदारों के तौर पर मौजूद नहीं हैं। पूरी फिल्म नायक-नायिकाओं के इर्द-गिर्द ही सिमटी हुई है। रिश्तों के प्रति उनकी धारणाओं, पूर्वाग्रह, द्वंद्व और चुनौतियों की सिलसिलेवार जांच-पड़ताल की गई है। दिक्कत दोषहीन निष्कर्ष पर पहुंचने में हो गई है।

फिल्म की कथाभूमि पेरिस में है। वह शहर जो प्यार के ऊंचे प्रतिमान का सूचक है। वहां दिल्ली के करोलबाग के धरम की मुलाकात फ्रांस में ही पली-बढी शायरा से होती है। वह खुद को फ्रांसीसी ही मानती है। जाहिर तौर पर प्यार को लेकर उसकी जिज्ञासाएं और सवाल धरम से अलग हैं। उसे मालूम है कि प्यार और लिप्सा द्विध्रुवीय चीजें हैं। जिस्मानी संबंध स्थापित होने का मतलब यह कतई नहीं कि संबंधित शख्स से प्यार है ही। धरम इस मामले में अपरिपक्व है। उसके लिए दोनों में विभेद करना मुश्किल है। वह जरा मर्दवादी सोच से भी ग्रस्त है। फिर भी दोनों इश्क में पड़ते हैं, क्योंकि वे बेफिक्र यानी बेपरवाह स्वभाव के हैं। यही उन दोनों की सोच-अप्रोच में कॉमन बात है। उनकी प्रेम कहानी में मोड़ एक साल लिव इन में रहने के बाद आता है। रोजमर्रा की छोटी-मोटी परेशानियों से दो-चार होते हुए वे आखिरकार अलग होने का फैसला करते हैं। रो-धो कर नहीं। आपसी सहमति के बाद। उसके बाद भी उनकी दोस्ती कायम रहती है। फिर क्या होता है? क्या उन्हें सच्चे प्यार के मायने पता चल पाते हैं, फिल्म आगे इन्हीं सवालों के जवाब तलाशती है।

 

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