अद्धयात्म

बार बार वृंदावन घूम आते हो पता है उसे किसने और क्यों बसाया था

img_20160924024256MATHURA: VRINDAVAN आज WORLD के मशहूर तीर्थस्थलों में से एक है। हो सकता है आप वहां कई बार गए हों तो क्या कभी आपके मन में ये सवाल नहीं आया कि इसका अस्तित्व क्या है।

चलिए आपको बताते हैं क्या है वृंदावन का इतिहास। कैसे मथुरा का एक छोटा सा गांव दुनिया का इतना बड़ा तीर्थस्थल बन गया। साथ ही बताते चले कि वृदांवन में ही दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर बन रहा है। 
कैसे नाम पड़ा वृंदावन
सबसे पहले आपको बताते हैं कि मथुरा के शालीग्राम का नाम वृंदावन कैसे पड़ा। तुलसी और राजा जलांधर की कहानी तो आप सभी ने सुनी ही होगी।
आपको पक्का ये भी पता होगा कि जालंधर को मारने के लिए भगवान विष्णु ने तुलसी के साथ छल भी किया था। अब ज्यादा दिमाग पर जोर मत डालिए आगे की बात हम बताते हैं। जब तुलसी जिसका असली नाम वृंदा था उसको पता लगा कि उसके साथ छल हुआ तो उसने नारायण को पत्थर बनने का शाप दे दिया। इतना ही नहीं वृंदा ने खुद भी आग में जलकर देहत्याग कर दिया। 
चूंकि विष्णु जी के बिना संसार चलना नामुमकिन था इसलिए देवों के देव महादेव ने भगवान विष्णु को शाप मुक्त कर दिया। उसके बाद भगवान ने वृंदा को वर दिया कि तुम मेरी पत्नी न होके भी मेरी पत्नी कहलाओगी। तब वृंदा की चिता के स्थान पर तुलसी का पौधा उगा जिससे पत्थर के भगवान विष्णु(शालिग्राम) से विवाह स्वयं लक्ष्मी ने करवाया।
जहां वृंदा ने देह त्यागा उस जगह को देवताओं ने वृंदावन का नाम दिया। और फिर अपने वरदान के स्वरुप वृंदा यानि तुलसी उसी स्थान पर जन्मी जहां वृन्दावन बसा था।
 
भगवान ने कृष्ण बनकर निभाया वादा
भगवान कृष्ण ने भी वृंदावन आकर रानी वृंदा को दिया वादा निभाया जोकि राधा के रूप में जन्म ले चुकी थी। भगवान कृष्ण 5 वर्ष के थे और राधा 12 वर्ष की थी इस कारण उनके प्रेम पर कोई उंगली भी न उठा पाया।
यहां समाए हुए हैं राधा और कृष्ण
वृंदावन में बांके बिहारी जी का एक भव्य मंदिर है। इस मंदिर में बिहारी जी की काले रंग की एक प्रतिमा है। इस प्रतिमा के विषय में मान्यता है कि इस प्रतिमा में साक्षात् श्री कृष्ण और राधा समाए हुए हैं।
इसलिए इनके दर्शन मात्र से राधा कृष्ण के दर्शन का फल मिल जाता है। इस प्रतिमा के प्रकट होने की कथा और लीला बड़ी ही रोचक और अद्भुत है इसलिए हर साल मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बांके बिहारी मंदिर में बांके बिहारी प्रकटोत्सव मनाया जाता है। यह तिथि इस वर्ष 7 दिसंबर को है।
कैसे प्रकट हुए बांके बिहारी 
संगीत सम्राट तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास जी भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। इन्होंने अपने संगीत को भगवान को समर्पित कर दिया था। वृंदावन में स्थित श्री कृष्ण की रासस्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने संगीत से रिझाया करते थे।
भगवान की भक्त में डूबकर हरिदास जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते। इनकी भक्ति और गायन से रिझकर भगवान श्री कृष्ण इनके सामने आ जाते। हरिदास जी मंत्रमुग्ध होकर श्री कृष्ण को दुलार करने लगते। एक दिन इनके एक शिष्य ने कहा कि आप अकेले ही श्री कृष्ण का दर्शन लाभ पाते हैं, हमें भी सांवरे सलोने का दर्शन करवाएं।
इसके बाद हरिदास जी श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर भजन गाने लगे। राधा कृष्ण की युगल जोड़ी प्रकट हुई और अचानक हरिदास के स्वर में बदलाव आ गया और गाने लगे- 
‘भाई री सहज जोरी प्रकट भई, जुरंग की गौर स्याम घन दामिनी जैसे। प्रथम है हुती अब हूं आगे हूं रहि है न टरि है तैसे।। अंग अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे। श्री हरिदास के स्वामी श्यामा पुंज बिहारी सम वैसे वैसे।।’
श्री कृष्ण और राधा ने हरिदास के पास रहने की इच्छा प्रकट की। हरिदास जी ने कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूं। आपको लंगोट पहना दूंगा लेकिन माता को नित्य आभूषण कहां से लाकर दूंगा। भक्त की बात सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराए और राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह रूप में प्रकट हुई। हरिदास जी ने इस विग्रह को बांके बिहारी नाम दिया।
 

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