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यूपी में माया, मुलायम को उन्हीं की चाल से मात देगी भाजपा

भाजपा ने संगठनात्मक चुनाव के सहारे 2017 के लिए चुनावी इंजीनियरिंग भी शुरू कर दी है। इसीलिए संmayawati-56606d9e0316d_exlstगठन में पिछड़े चेहरों को आगे लाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया गया है, जिससे पार्टी को सिर्फ अगड़ों और बनियों की पार्टी की छवि से मुक्त किया जा सके। मोटे तौर पर संगठन की कार्यकारिणी में पिछड़ों को कम से कम 30 प्रतिशत हिस्सेदारी का फॉर्मूला तय किया गया है।

ऐसा लगता है कि पार्टी के रणनीतिकार सूबे में लगभग एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पिछड़ों व दलित वोटों की लामबंदी से बचना चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जातीय लामबंदी होने से प्रदेश का चुनावी संघर्ष मायावती और मुलायम के बीच सिमट जाएगा।

ऐसा होने से मुस्लिम मतदाता भी भाजपा को हराने के नाम पर किसी एक के पक्ष में लामबंद हो जाएंगे। इसका सबसे बड़ा नुकसान भाजपा को ही होगा। इसीलिए रणनीतिकार दलितों व पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाकर अपनी पकड़ व पैठ मजबूत बनाए रखना चाहते हैं।

ये हैं वजह : राजनीतिक विश्लेषकों की बात सही लगती है। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव पिछड़ों और बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती दलितों के बीच जिस तरह अपनी छवि को नए सिरे से तराशने की कोशिश में जुट गए हैं, उससे भाजपा के रणनीतिकारों के आकलन को भी बल मिलता है।

जहां तक दलित वोटों का सवाल है तो भाजपा ने पहले से ही संगठन में इनकी भागीदारी का फॉर्मूला तय कर रखा है। साथ ही पार्टी और केंद्र सरकार की तरफ से दलितों के बीच पैठ बनाने के लिए अन्य कई काम किए जा रहे हैं। इसीलिए अब पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है।

यह है समीकरण : पार्टी प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा संगठन ‘सबका साथ-सबका विकास’ के संकल्प के साथ काम कर रही है। पार्टी काफी पहले से सोशल इंजीनियरिंग की पक्षधर रही है।

दलितों या पिछड़ों की संगठन में भागीदारी के पीछे चुनावी गणित न होकर समाज के सभी लोगों को संगठन में सम्मानजनक भागीदारी देने का प्रयास है। भले ही पाठक का तर्क यह हो, लेकिन सूबे के सामाजिक समीकरण असली कहानी बयां कर रहे हैं। प्रदेश में पिछड़ों में बड़ा वोट बैंक यादव मुलायम का परंपरागत वोट माना जाता रहा है।

इसी तरह दलितों में भी सबसे बड़ी आबादी जाटव मायावती के खेमे में मानी जाती है। पार्टी रणनीतिकारों को पता है कि ऐसी स्थिति में अगर उन्होंने संगठन में दलितों व पिछड़ों के चेहरों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न दिया तो चुनावी समीकरणों को संतुलित करना काफी मुश्किल हो जाएगा।

 

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