अद्धयात्मदस्तक-विशेष

रामेश्वरम

सीता के रूप में खड़ी सती को देखते ही राम ने पिता सहित अपना नाम बताते हुए उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर पूछा कि मां, बैल पर बैठने वाले कहां हैं? और आप यहां वन में अकेली कैसे फिर रही हैं। सती डर गईं, राम ने उन्हें आश्वस्त करने के लिए वन में ही अनेक रूपों में दर्शन दिए। चारों ओर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उन्हें प्रसन्न मुद्रा में दिखाई दिए। घबराई सती वटवृक्ष के नीचे बैठे शिव के पास लौट आईं। सीता का परित्याग राम की शिव भक्ति के परंपरागत आचरण का ही रूप है।

(प्रो. सुरेश आचार्य)

श्री आशुतोष राणा भारतीय आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास के निरंतर जिज्ञासु और सतत् अनुरागी जानकार हैं। शिव उनके परम आराध्य हैं रामाख्यमीशं हरि अर्थात राम उपनाम वाले महाविष्णु श्री हरि ने तो विधिवत घोषित ही कर दिया है कि जो शिव का द्रोह करके मेरी भक्ति करता है वह मनुष्य मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं। श्री राणा के द्वारा रचित ‘पार्थिवेश्वर महादेव’ तथा ‘सीता परित्याग’ का विषद अध्ययन मुझे आनंद और उल्लास से भर गया। श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, वे लोक में मर्यादा की स्थापना के लिए न केवल राज सत्ता का त्याग करते हैं अपितु लोक निंदा के कलंक के असत्य आरोप का जहर पीते हुए सीता का परित्याग करके राज्य के लोक मंगलकारी आदर्श की स्थापना भी करते हैं। प्रभु परम शिव तो अमृत मंथन के पश्चात निकले हलाहल के दाहक ज्वाल से सृष्टि की रक्षा करने के लिए उस महा गरल को कंठ में धारण करके ही नीलकंठ कहलाये।
श्री राम और पंडित-राज दशानन दोनों शिव से जुड़े हुए हैं। लोक में व्याप्त अनेक अज्ञानजनित अवधारणाओं को निरस्त करते हुए श्री आशुतोष राणा ने पार्थिवेश्वर महादेव के आवाहन-पूजन और सम्यक आराधन के लिए महापंडित रावण के पौरोहित्य को रेखांकित किया है। भूले बिसरे गीत की तरह यह मन को छू लेने वाला प्रसंग है। लक्ष्मण के साथ न आकर और हनुमान की विनय को स्वीकारते हुए रावण का शिव के पार्थिव स्वरूप के पूजन के लिए राम का पौरोहित्य को स्वीकार करना धर्मगरु के स्वाभिमान और सत्य का प्रतीक है। राम को ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद देकर रावण भारतीय धर्मानुष्ठान की श्रेष्ठ परंपरा की रक्षा के साथ ही अपना मरण भी निश्चित कर लेता है। यह शैव परंपरा के भक्तों की सहजता और सांसारिक वैभव की निस्सारता की ओर इंगित भी है।
श्री आशुतोष राणा की ये रचनाएं दरअसल रामकथा ही हैं मगर इसमें सामाजिक संलग्नता अपने पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित होकर इन्हें अद्यतन करती है। सीता परित्याग अपने सम्पूर्ण पाठ में हृदय को छूने वाली रचना है। स्मरणीय है कि रामवनगमन के समय सीता हरण के पश्चात राम को सीता के विरह में खग, मृग, और भौरों की पंक्तियों से मृगनयनी सीता का पता पूछने वाले राम को शिव का ‘जय सच्चिदानंद जगपावन’ कहकर प्रणाम करना सती को संदेह से भर देता है। अंतत: शिव से आज्ञा लेकर सती राम की परीक्षा लेने उनके मार्ग में सीता का रूप धारण करके खड़ी हो जाती हैं। सीता के रूप में खड़ी सती को देखते ही राम ने पिता सहित अपना नाम बताते हुए उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर पूछा कि मां, बैल पर बैठने वाले कहां हैं? और आप यहां वन में अकेली कैसे फिर रही हैं। सती डर गईं, राम ने उन्हें आश्वस्त करने के लिए वन में ही अनेक रूपों में दर्शन दिए। चारों ओर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उन्हें प्रसन्न मुद्रा में दिखाई दिए। घबराई सती वटवृक्ष के नीचे बैठे शिव के पास लौट आईं। शिव से उन्होंने सारा परीक्षा-प्रसंग छिपा लिया, किन्तु अंतर्रायामी शिव ने सब जान लिया, उनके हृदय में यह जानकर बड़ा विषाद हुआ कि सती ने सीता का वेष धारण कर लिया था। कैलाश की ओर लौटते हुए उन्होंने संकल्प कर लिया- एहि तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। यह सती का परित्याग ही था जिसके परिणाम स्वरूप अंतत: सती ने शरीर छोड़ दिया।
सीता का परित्याग राम की शिव भक्ति के परंपरागत आचरण का ही रूप है। श्री आशुतोष राणा से मेरा आग्रह है कि चार पुरुषार्थों में से धर्म के लुप्त और विकृत होते अर्थ की रक्षा के लिए वे इस सम्पूर्ण प्रसंग को एक औपन्यासिक रूप में दें तथा इसे वर्तमान सामाजिक संदर्भों सहित एक नई व्याख्या के साथ प्रस्तुत करें। यह शुभ कार्य करके वे अपना शिव-संकल्प पूर्ण करें। मेरा दृढ़ विश्वास है कि एतदर्थ उन्हें अपने गुरु पंडित देव प्रभाकर जी शास्त्री का शुभाशीष भी प्राप्त होगा। पुष्पदंत गंधर्व की शिव महिमा को याद करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं कि यदि हिमालय पर्वत के बराबर स्याही को समुद्र बराबर दावात में घोला जाए तथा कल्पवृक्ष की शाखा से बनाई गई कलम से स्वयं सरस्वती अपनी पूर्ण आयु धरती को कागज बनाकर लिखती रहें तब भी भगवान शिव के गुणों का वर्णन नहीं हो सकता। वहीं प्रभु परम शिव हम सबका कल्याण करें। हम अर्थात जलचर, थलचर, नभचर, जड़ और चेतन सभी का।

(प्रो. सुरेश आचार्य, पीएच.डी. डी. लिट्. (से.नि.), डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, (केन्द्रीय विश्वविद्यालय), पूर्व प्रधान संपादक – मध्य भारती (शोध पत्रिका))

Related Articles

Back to top button