बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हमेशा गठबंधन के सहारे ही सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होते रहे हैं, लेकिन गठबंधन की गांठ से कभी वो बंध के नहीं रहे. उन्होंने भले ही सरकार सहयोगी पार्टी के साथ चलाई हो, पर सहयोगी पार्टी के साथ कदम से कदम मिलाकर हर सफर तय नहीं करते. दरअसल नीतीश की सियासत का ये अजीब संयोग है कि वो जिस भी पार्टी के साथ मिलकर सरकार चला रहे होते हैं, उस पार्टी के मर्जी के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति उम्मीदवार के खिलाफ अपनी रजामंदी की मुहर लगाई.
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इस बार के चुनाव में ही नहीं, बल्कि इससे पहले भी उनका इतिहास कुछ ऐसा ही रहा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में क्रमश: सत्तारूढ़ और विपक्षी दल का समर्थन कर फिर से वही दोहराया है, जो उन्होंने 2012 के चुनावों में किया था. उस समय वह आधिकारिक रूप से विपक्ष का हिस्सा थे.
राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश महागठबंधन के साथ थे लेकिन वोट उनकी पार्टी जेडीयू के लोगों ने एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंदके पक्ष में मतदान किया. जबकि महागंठबंधन में उनकी सहयोगी पार्टी के नेता लालू प्रसाद यादव से लेकर कांग्रेस नेता गुलामी नबी आजाद तक ने नीतीश कुमार को मनाने की कोशिश की. लालू ने तो यहां तक कहा कि रामनाथ कोविंद संघ जुड़े हुए, नीतीश कुमार उन्हें वोट न करें और बिहार की बेटी मीरा कुमार को समर्थन करें.
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गुलामी नबी आजाद ने भी कहा कि बिहार की बेटी की हार पर सबसे पहला निर्णय नीतीश कुमार ने लिया है. उन्होंने कहा कि जो लोग एक सिद्धांत में विश्वास करते हैं, वो एक फैसला लेते हैं. और जो लोग कई सिद्धांतों में विश्वास करते हैं, वो अलग-अलग फैसले लेते हैं. तो नीतीश कुमार ने कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा कि वो कांग्रेस के पिछलग्गू नहीं हैं. रामनाथ कोविंद के समर्थन में कहा था कि राम कोविंद बिहार के राज्यपाल पद पर रहते हुए बहुत अच्छा काम किया है.
मौजूदा दौर में अब जब नीतीश कुमार महागठबंधन से नाता तोड़कर एनडीए खेमे में आ गए है. ऐसे में एनडीए को उम्मीद थी कि उपराष्ट्रपति के चुनाव में उनके उम्मीदवार वेंकैया नायडू का नीतीश समर्थन करेंगे, लेकिन नीतीश कुमार ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने यूपीए उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी के पक्ष में समर्थन करने का एलान करके एनडीए को भी अपने स्वभाव से परिचय करा दिया. अब नीतीश एनडीए के साथ तो हैं, लेकिन उपराष्ट्रपति चुनाव में उनकी पार्टी यूपीए उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी को वोट कर रही है.
गौरतलब है कि नीतीश कुमार ने कुछ ऐसा ही इतिहास 2012 में भी दोहराया था. नीतीश की पार्टी उस वक्त भाजपा नीत राजग का हिस्सा थी. जिसने राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था. साथ ही उपराष्ट्रपति पद के लिए राजग के जसवंत सिंह का समर्थन किया था. उसी के बाद बीजेपी से नीतीश कुमार की दूरियां बढ़ने लगी थी। उसके बाद कई मुद्दों पर नीतीश की राय एनडीए से अलग होती थी. 2014 के आम चुनावों के लिए नरेन्द्र मोदी को नेता चुने जाने के बाद उन्होंने 2013 में गठबंधन तोड़ लिया था.