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हिंदी विरोध ने दी करुणानिधि को अलग पहचान

तमिलनाडु : तमिलनाडु की राजनीति में करुणानिधि को पहली पहचान हिंदी विरोध के चलते मिली थी. इस विरोध को उन्होंने इतनी मजबूती से पकड़ा और इतना मजबूत किया कि आने वाले बरसों में द्रविण मुनैत्र कषगम के दमदार नेता ही बने बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी पहुंचे. दरअसल दक्षिण भारत की राजनीति में सबसे दमदार सिरा हिंदी विरोध ही हो सकता है, इसे उन्होंने बहुत अच्छी तरह से समझ लिया था. इसलिए कभी इस मौके को हाथ से नहीं जाने दिया. करुणानिधि के हिंदी विरोध से तो हर कोई वाकिफ है लेकिन वो तो उस संस्कृत विरोध पर भी उतरने का मन बना रहे थे, जिसे दक्षिण भारत की भाषाओं का जननी भाषा माना जाता है. करुणानिधि की हिंदी विरोधी राजनीति को समझने के लिए करीब छह दशक पीछे लौटना होगा. ये 1953 का समय था. करुणानिधि दक्षिण भारतीय फिल्मों सफल स्क्रिप्ट राइटर तो बन चुके थे लेकिन सियासत का कीड़ा उनके दिमाग में कुलबुला रहा था. वो पेरियार के अनुयायी हुए. उनके साथ आंदोलनों में शिरकत करने लगे. लेकिन ये सारी कवायद उन्हें तमिल सियासत में पीछे की ही कतार में रखे हुए थी. वो तो सियासत में आगे की पंक्ति में पहुंचना चाहते थे. इसका सही मौका उन्हें 1953 में मिला.
उत्तर भारत के उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया ने कालाकुडी में सीमेंट की फैक्ट्री लगाई थी कालाकुडी नाम की ये जगह अरियालुर जिले में थी. इससे इस इलाके में लोगों को रोजगार मिला. डालमिया के काम को सम्मान देने के लिए कालाकुडी का नाम बदलकर डालमियापुरम कर दिया गया. डीएमके ने इसका विरोध किया. करुणानिधि डीएमके समर्थकों के साथ वहां पहुंचे. उन्होंने डालमियापुरम रेलवे स्टेशन के बोर्ड को काले रंग से पोत दिया. हिंदी में जहां ये नाम लिखा मिला, वो बोर्ड उखाड़े या तोड़े गए. ये विरोध प्रदर्शन जबरदस्त था. करुणानिधि केवल यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने रेल की पटरियां उखाड़ी और पटरियों पर लेट गए. ये प्रदर्शन घंटों चलता रहा. इसे स्थानीय लोगों को काफी समर्थन मिला. करुणानिधि गिरफ्तार जरूर हुए लेकिन डालमियापुरम का नाम बदलकर फिर से कालाकुडी हो गया. देखते ही देखते करुणानिधि का नाम पूरे देश में सबकी जुबान पर आ गया. इसके बाद तो करुणानिधि ने मद्रास स्टेट में हिंदी विरोध को तमिल अस्मिता से जोड़कर इसे हवा देने में पूरा जोर लगा दिया. ये बात सही है कि पेरियार ने 1938 से ही हिंदी विरोध को हवा देनी शुरू की थी लेकिन इस विरोध में जो आक्रमकता करुणानिधि ने डाली, उसने द्रमुक को 50 और 60 के दशक में नई जान दे दी. डीएमके मद्रास स्टेट की सत्ता तक आने के लिए पूरा जोर लगा रही थी. हिंदी विरोध ने उसे वो लहर दे दी.

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