अजब-गजबसाहित्यस्तम्भ

हिन्दी के शत्रु : सत्ता, सम्पत्ति एवं सँस्थाएं : प्रभाकर माचवे

हिन्दी विरोध वस्तुत: भाषा और साहित्य के कारण से नहीं, परन्तु आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक कारणों से होता है। पूर्वांचल में, असम में और बंगाल मारवाड़ी व्यापारियों का विरोध हिन्दी-विरोध का रूप लेता है। उड़ीसा में संबलपुरी (हिन्दी-मिश्रित उपभाषा) अपना स्वतंत्र अस्तित्व चाहती है। दक्षिण में उत्तर भारत, संस्कृत, आर्य, ब्राह्मण और हिन्दी का विरोध एक साथ किया जा सकता है। केरल में विरोध उतना तीव्र नहीं, परन्तु विन्ध्यांचल के नीचे सभी भाषिक अल्पसंख्यकों को भय है कि हिन्दी अनिवार्य-प्रशासनिक भाषा होते ही नौकरियों में अधिक्तम और अधिकार प्राप्त कर लेंगे। सब दक्षिणी लोग ‘द्वितीय श्रेणी के नागरिक बन जाएँगे। आ.ए.एस. आदि पदों में, विज्ञान तकनीकी में अहिन्दी-भाषी ही अधिक है। अंग्रेज़ी के पीछे इंग्लैण्ड, अमेरिका और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं से बड़ी राशियाँ आती है। ‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंग्लिश’ और ईसाई धर्मसंस्थाओं द्वारा संचालित शिक्षालय, चिकित्सालय, समाजसेवी संस्थाएँ बड़े पैमाने पर भारत के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को विदेश-यात्राएँ दिलवाती हैं। हिन्दी उस बड़ी आर्थिक स्पर्धा में कहीं भी नहीं ठहरती। उर्दू-भाषियों खाड़ी के देशों से विशेष धार्मिक शिक्षा के नाम पर बड़ी इमदाद आती है।
ये सब बातें हमारी साहित्य-संस्थाओं के विचार क्षेत्र से परे या बाहर हैं। हिन्दी केवल भावना के बल पर जीती है। अन्य भाषाएं अधिक व्यावहारिक हैं। कहीं हिन्दी का विरोध धर्म सा जाति के नाम पर, कहीं सांस्कृतिक श्रेष्ठता के नाम पर, कहीं आर्थिक लालच के नाम पर, कहीं ‘आधुनिकता’ और वैज्ञानिकता के नाम पर, कहीं अल्पसंख्यकों के आत्म-निर्णय के अधिकार के नाम पर होता है। हम ज्यों-ज्यों राजनीति में अलगाववादी और विघटनकारी शक्तियों की वृद्धि देखते हैं, हिन्दी पिछड़ती, सिमटती जाती है। पहले जम्मू हिन्दी का केन्द्र था। अब वह कश्मीरी के विरोध में डोगरी का केन्द्र है। हिमाचल प्रदेश में पहाड़ी भाषा की अस्मिता का आन्दोलन है। मैंने हिंदी पुस्तकों के हरियाणवी में और कुरयाली (झारखण्ड की भाषा) में अनुवाद देखे हैं और उनके लिए पुरस्कारों की माँग सुनी है। मेरे पास नागपुर से प्रकाशित एक गोंडी पत्रिका आती थी। नेपाली से अलग गोरखाली को, गोवा में कोंकण को, गुजरात में कच्छी को, तुलू और संथालीको स्वतंत्र दर्जा दिलाने की माँगे, आन्दोलन और सँस्थाएं देखी हैं। अब भारत में एक संस्था रोमन लिपि में सब भाषाओं के लिखे जाने का आग्रह करना चाहती है। राजस्थान में मिथिला में, मालवा और छत्तीसगढ़ में, भोजपुर और बुन्देलखण्ड में अपनी-अपनी भाषा-विशेषता को लेकर मातृभाषाओं और जनपद राष्ट्र की संचेतना बढ़ रही है। यह सारा विवाद प्रदेश पुनर्निर्माण की पीस वर्ष पुरानी बात से शुरु हुआ।
हमने राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर वैज्ञानिक ढंग से न विचार किया है, न समस्याओं के हल का व्यावहारिक चिंतन किया है। आज डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालय हैं। विज्ञान के विषय के अध्ययन में स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी कहीं नहीं है, न इंजीनियरिंग या चिकित्सा की शिक्षा में हिन्दी का पूर्ण प्रवेश हो पाया है। केवल मानविकी के विषयों में राष्ट-भाषा से काम लिया जा रहा है और वह भी मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार और उत्तरप्रदेश के कुछ विद्यालयों में। पाठ्यपुस्तकों का निर्माण भी अनुवाद के द्वारा ही अधिक हुआ है। अंग्रेज़ीदां अपना उच्चासन छोड़कर जनसाधारण तक आना नहीं चाहते। उनका बस चले तो वे किंडरगार्टनसे अंग्रेज़ी चलाकर अपने वर्ग का न्यस्तस्वार्थ चलाए रखें, अनंतकाल तक। प्रशासनिक सेवाओं में हिन्दी और मातृभाषाओं में परीक्षाएँ देने का प्रावधान दो दशकों से है, परन्तु अधिक परीक्षाएँ अंग्रेज़ी माध्यम से ही आई. ए. एस., आई. एफ. एस. होते हैं। इसके मूल में हमारी राष्ट्र केबारे में पश्चिमीकरण की ओढ़ी हुई मानसिकता है। उसी को हमने आधुनिकता मान लिया है। भारत है तो भारती है। परन्तु भागवत-पुराण में जिसे अजनाभवर्ष कहा गया और वायुपुराण में हेमवतवर्ष, वह हमारा नवखण्ड कार्मुख संस्थान, आज सिमटकर मध्यदेश तक आ गया है। वहाँ के ग्रामांचल में भी हमारी आकाशवाणी और दूरदर्शन की मानक-हिन्दी बहुत कम ज्ञेय है। हिन्दी केवल फ़िल्मों, कवि-सम्मेलन रे मंचों और नेता के भाषणों की श्रुति ही नहीं। पर हिन्दी भाषा-भाषी जनसंख्या के अनुपात में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की संख्या और खपत अन्य भाषाओं की तुलना में नगण्य है। बांग्ला, मलयालम, मराठी और तेलुगु में छपनेवाले समाचार पत्र कही अधिक पढ़े जाते हैं।
यों राष्ट्रभाषा हिन्दी के बोले हुए और लिखे हुए रूपों में पांच- स्तर भेद है। वे सभी विकसित आधुनिक भाषाओं में होते हैं, परन्तु साक्षरता के प्रमाण-भेद से अपेक्षा अधिक जान पड़ते हैं : (1) बोली जाने वाली हिन्दी (2) पढ़ी या सिखाई जानेवाली व्यावहारिक हिन्दी (3) साहित्यिक हिन्दी (इसमें भी एकरूपता नहीं है) (4) सरकारी, पारिभाषिक शब्दावलीयुक्त हिन्दी और (5) सुनी जानेवाली हिन्दी : फ़िल्म, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि से प्रसारित हिन्दी से प्रसारित हिन्दी। जब हम अंग्रेज़ी के स्टैंडर्डाइवेशन’ की तरह हिन्दी से अपेक्षा करते हैं, वहाँ हम भूलते हैं कि हर संस्कृति का अपना स्वरूप, विकास की गति और परम्परा तथा प्रयोग का परस्पर द्वन्दात्मक संबंध होता है। भारत व अमेरिका है, न यूरोप न चीन। भारत, नेपाल या श्रीलंका या बांग्लादेश या अफ़ग़ानिस्तान भी नहीं है। भारत इज़राइल नहीं है, न अफ़्रीका का कोई देश। ‘भारत’ शब्द केवल भौगोलिक इकाई नहीं है, न केवल एक नस्ल या वंश के नागरिकों का नाम है, न एक धार्मिक अनुबंध का दूसरा नाम है। आज का भारत केवल एक धर्म, एक प्रजाति, एक भूखण्ड मात्र का नाम नहीं है। वह नई परिभाषाएँ बनाने से बदल नहीं जाता। हमारे संविधान निर्माताओं को उसका ज्ञान था। इस ‘अनेकता-में-एकता’ को उन्होंने अस्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। उस समयतक हमारी राष्ट्रीयता में सब भाषाओं के बोलनेवालों का योगदान था। हिन्दी और हिन्दीतर भाषी साथ-साथ जेल गए, साथ-साथ उन्होंने लाठियाँ खाई और साथ-साथ सपने देखे।
1948 के बाद जब पद और अधिकार ‘बहुसंख्यक’ और ‘अल्पसंख्यक’ शब्द हमारे मानस पर अचेतन से उठकर मँडराने लगे तब प्रश्न पूछे जाने लगे कि एक सौ वर्ष के कांग्रेस के इतिहास में क्या कोई सिख या असमवासी या या हरिजन स्वराज्य से पहले कांग्रेस का अध्यक्ष बना ? नहीं बना तो क्यों नहीं बना ? मैं 1954 में केरल गया तो एक लड़की ने प्रश्न पूछा : ‘हिन्दी में कितने हरिजन लेखक हैं ?’ 1956 में असम राष्ट्रभाषा परिषद में मैं हिन्दी में बोला परन्तु अभी चार वर्ष पूर्व उसकी स्वर्णजयंती में अंग्रेज़ी में बोलना पड़ा। मॉरीशस में एक लड़कियों के स्कूल में गत वर्ष एक श्रोता ने पूछा ‘ भारत में कितने वैज्ञानिक हिन्दी प्रदेशों से हैं ?’ स्त्री वैज्ञानिक कौन-कौन? ‘बांलादेश में ढाका में मुझसे एक प्रोफ़ेसर ने पूछा : ‘बांग्ला से हिन्दी में इतने अनुवाद होते हैं, हिन्दी से बांग्ला में क्यों नहीं होते?’ श्रीलंका में एक बौद्धभिक्षु ने पूछा : ‘हिन्दी में कितने बौद्ध लेखक हैं ?’ नेपाल में प्रश्न किया गया, इन सवालों के जवाब आप अपने मन से पूछें। सब बातों का एक ही निदान : ‘डेढ़ सौ वर्षों की ब्रिटिश राज की ग़ुलामी’ देने से अब काम नहीं चलेगा। स्वराज्य के भी कई वर्ष बीत गए। हमारे सरकारी प्रतिष्ठानों ने हिन्दी परिभाषा निर्माण में कोशकार डॉ. रघुवीर, रामचन्द्र वर्मा, राहु सांस्कृत्यायन, डॉ. कामिल बुल्के, किशोरीदास वाजपेयी आदि भाषा वैज्ञानिकों से कोई सहायता क्यों नहीं ली ? इन अनुभवी भाषाविदों को छोड़ नौसिखुए और भाषा-विज्ञान का कोई भी ज्ञान न रखने वाले रंगरूटों और केवल सृजनात्मक लेखकों या पदेन विभागाध्यक्षों से क्यों काम लिया ? नौकर- शाही हिन्दी को जल्दी लाना नहीं चाहती थी। सबको ख़ुश करना चाहती थी। अत: वह ‘अशुभस्य कालहरणस’ करती रही। मैं छ: केन्द्रीय मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकारी समितियों में रहा हूं, और वहाँ की पद्धति देख चुका हूं, ज्ञानी जेल सिंह गृहमंत्री थे, तब उस सलाहकार समिति में गंगाप्रसाद सिंह जी ने कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। ज्ञानी जी सहज भाव से बोल गए : ‘ये सेक्रेटरी लोग आपको ‘टुंगा’ रहे हैं। हिन्दी लाने की किसी को जल्दी नहीं हैं।’ हमारे नौकरशाह अपने मन में अंग्रेज़ी को देवी और हिन्दी को दासी मानकर चलते हैं। जहाँ ज़रूरी नहीं, वहाँ भी अंग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं। अभी लखनऊ में भारतीय विद्याभवन की स्वर्णजयन्ती पर संगोष्ठी में मैं गया था। तीन सज्जन जिनकी मातृभाषा हिन्दी है, सब हिन्दी श्रोताओं के आगे न सिर्फ ग़लत-सलत अंग्रेज़ी में बोले, पर सारे उद्धरण विदेशी विद्वानों के दिए एक महानुभाव ने। इस मानसिक दासता को क्या कीजिएगा ? तो पहली समस्या सत्ता है। दूसरे शत्रु हमारे व्यावसायिक लोग हैं। मैं कलकत्ता में सात वर्ष तक एक भारतीय भाषा विषयक सँस्थान से जुड़ा था। मैंने देखा कि हमारे राजस्थानी भाई घर में मारवाड़ी, मेवाड़ी, हाड़ौती, जैसलमेरी हैं, अपने औद्योगिक व्यापारी संस्थानों में फ़र्स्टक्लास अंग्रेज़ी पत्र-व्यवहार करने वाले टंकक-आशुलिपिक रखते हैं। हिन्दी में काम करने में कतराते हैं। मुण्डन-नामकरण, विवाह आदि सँस्कारों के निमंत्रण-पत्र, नववर्ष के कार्ड, अंग्रेज़ी में भेजते हैं।
नई पीढ़ी तो अंतरराष्ट्रीयता के नाम पर जेट-सेट, पाँचसितारा होटल संस्कृति की दास तथा मातृभाषा-राष्ट्रभाषा से दूर होती जा रहीं है। अब वहाँ हिन्दी माध्यम की माध्यमिक शालाओं में अंग्रेज़ी ‘नर्सरी-राइम’ पढ़ाई जा रही है। हिन्दी के पाक्षिक-साप्ताहिक पत्र अंग्रेज़ी सह पत्रिकाओं के अनुवाद होते जा रहे हैं। प्रकाशकों का भी प्रथम ध्येय अर्थोपार्जन है, भाषा-प्रेम नहीं। सम्पादकगण अंग्रेज़ी अनुवाद पर अपने ‘स्तंभ’ रंगते हैं। हिन्दी में नई कविता, नई आलोचना, नई कहानी आदि आंदोलनों के लिए लंदन, न्यूयार्क आदि अंग्रेज़ी हज-स्थान हैं। उन्हीं के उद्धरणों की भरमार होती है। सारे विज्ञापनों का माध्यम अंग्रेज़ी या अंग्रेज़ी के कृत्रिम अनुभव हैं। उपभोक्ता सँस्कृति के प्रचारक यही चाहते हैं। ‘हर मौसम में रंग कोकाकोला के संग’। तो हमारी दूसरी समस्या है सम्पत्ति। राष्ट्रभाषा के विकास में तीसरी बाधा संस्थाएँ हैं। सरकारी और ग़ैरसरकारी दोनों की नीति थी कि किसी समस्या का समाधान न मिले तो आयोग या समिति बना दो। हम भी यही करते आ रहे हैं। बहुत से नेक इरादों से शुरू किए हुए कई प्रतिष्ठान धीरे-धीरे ‘सँस्थावाद’ के जाल और घेरे में फँस जाते हैं। कहीं संस्थाओं पर बैठे हुए बुज़ुर्ग अपने-आपको या निकट सम्बन्धियों या अपनी ही उपजातिवालों को पुरस्कृत कर लेते हैं। अंधा बाँटे रेवड़ी। कहीं ये नव सामंत किसी ‘वाद’ का नाम लेकर चेलों-चेलियों की जमात लेकर चलते हैं। पूरा कुंभ मेले- वाला दृश्य है। हर साधु का अपना अखाड़ा है, हिन्दू धर्म का हुआ, किस्म-किस्म के गुरु, महर्षि, स्वामी, बाधा, भगवान, पनपे और पूरा ‘निरानंद मार्ग’ हो गया, वही दृश्य राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में है, जिन्होंने एक भी पुस्तक बरसों नहीं लिखी या जो केवल मौखिक रूप से हिन्दी हितैषी हैं। मेरे पास कोई पंचवार्षिक योजना या सब समस्याओं की रामबाण दवा नहीं है। नीत्शे ने कहा था-“ऐसे लोगों से सावधान रहो जो कहते हैं कि उनके पास रेडिमेड सत्य-समाधान हैं।” मैं ऐसे सरलीकृत मसीहा से आपको आगाह करना चाहता हूँ।
हिन्दी में मुझे हिन्दीतर भाषाओं से उत्तम अनुवादकों के नाम-पतों की डाइरेक्टरी चाहिए, अनुदित ग्रंथों की सूचियाँ चाहिए, दुभाषियों की सेना चाहिए, विद्वानों को खोजकर उनके ‘अवकस्थित’ कार्य का उचित सम्मान करने वाले कद्रदां चाहिए, पैसे या पद के पीछे दुम न हिलाने वाले, चारण न बननेवाले स्वाभिमानी सेवक चाहिए, मृत्यु के बाद पद्मविभूषण या स्मृति खोने पर पद्मभूषण देना बन्द होना चाहिए, कई भारतीय भाषाओं-उपभाषाओं के हिन्दी में कोश चाहिए, दूरदर्शन पर हिन्दी पढ़ाने के लिए भाषापाठ चाहिए, हिन्दी के महान लेखकों पर आलेख-पट (डाक्युमेंटरी) चाहिए, लेखकों के सहकारी प्रकाशन चाहिए, नई पीढ़ी को भाषा रुचि पैदा करने वाली प्रकाशित सामग्री चाहिए। ऐसी मेरी ‘सहस्नाक्ष-सहभ्रबाहु’ मांगें हैं। उनकी ओर पहले ध्यान दें। गुड़गाँव में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के ४३ वें अधिवेशन में डॉ. माचवे ने राष्ट्रभाषा परिषद सभापति के नाते जो भाषण 24 अप्रैल को दिया था, यह उसकी संक्षेप है।

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