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संरक्षण के आभाव में मिट रहा है बौद्ध कालीन स्तूपों का आस्तित्व

बेगूसराय: अंगुत्तराप एवं स्वर्णभूमि के नाम से विख्यात मिथिला-मगध-अंग की संधि स्थली बेगूसराय ना केवल राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि और बिहार केशरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की कर्मभूमि है, बल्कि बिहार के साहित्य-संस्कृति-उद्योग की यह राजधानी ऐतिहासिक धरोहर से भी परिपूर्ण है। इसका प्रमाण है हरसाई स्तूप, जयमंगला गढ़ एवं बराबर खुदाई में पाल कालीन तथा बौद्ध धर्म से संबंधित अवशेषों का मिलना। एशिया प्रसिद्ध काबर झील क्षेत्र में मंझौल थुम्ब से नटियाही डीह तक मौजूद बौद्ध कालीन 11 स्तूप बहुत कुछ कह रहे हैं। विश्वस्तर पर ‘दैत्य का छिट्टा’ नाम से प्रसिद्ध स्तूपों में से हरसाई में मंझौल-गढ़पुरा नमक सत्याग्रह पथ पर नहर के बगल में चार स्तूपों का एक समूह है जो संपूर्ण बिहार में पाए जाने वाले अन्य स्तूपों से पूर्णतया अलग है। तीन स्तूप के मध्य इसका एक मुख्य स्तूप है जिसकी पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में लगभग समान दूरी पर एक-एक स्तूप है। मुख्य स्तूप की ऊंचाई करीब 65 फीट एवं व्यास करीब 360 फीट है।

पालकालीन साहित्य में भगवान बुद्ध के अंगुत्तराप भ्रमण तथा बौद्धकाल में जयमंगला गढ़ के महाविहार होने का संकेत मिलने से इन स्तूपों को बौद्ध कालीन माना जा रहा है। इतिहासकारों का मत है कि मिट्टी के टीले के रूप में मौजूद ये स्तूप भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के बने हैं। हरसाई स्तूप के आसपास के खेतों से भवनों के भग्नावशेष बराबर मिलते रहते हैं। बौद्ध कालीन इस स्मारक की महत्ता को ध्यान में रख कर इसका संरक्षण एवं विकास कर दिया जाय तो आने वाली पीढ़ी को इस संस्कृति को समझने का अवसर मिल सकता है। स्थानीय किवदंती के अनुसार पौराणिक काल में यहां दैत्यों का बसेरा था तथा उसी के मध्य रहती थी मां जयमंगला। एक बार दैत्यराज जयमंगला से शादी करने पर अड़ गया तो माता ने शर्त रखी थी काबर को पूरी रात में मिट्टी से भर दोगे तो मैं शादी कर लूंगी अन्यथा तुम्हें यहां से बाहर भागना होगा। दैत्यों ने मिट्टी भरनी शुरू की तभी आधी रात को ही दैवीय बल से सुबह का उजाला फैल गया।

इसके बाद जान के भय से भागते दैत्य माता जयमंगला का एक स्तन काट कर भाग निकले तथा इस क्रम में जहां-जहां मिट्टी भरने वाला छिट्टा फेंका गया वह स्तूप के रूप में है एवं स्थानीय लोग इसे दैत्य का छिट्टा कहते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार की उदासीनता से यह विलुप्त हो रहा है, कई स्तूपों को काटकर स्थानीय लोगों ने खेत बना लिया है और जो बचे हैं उन्हें भी धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है। ध्यानाकर्षण के बाद अधिकारी, नेता यहां आते हैं और संरक्षण की बातें करते हैं परंतु उदासीनता एवं संवेदनहीनता के कारण इसका क्षरण लगातार जारी है।
हरसाई स्तूप को संरक्षित एवं सुव्यवस्थित करने के लिए गढ़पुरा सीओ ने 2014 में इस स्थल के विकास के लिए जमीन की मापी कराकर तथा हरसाई स्तूप से लेकर मुख्य सड़क तक पथ के निर्माण के लिए प्रतिवेदन बनाकर भेजा था लेकिन आगे की कार्यवाही के लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं मिलने से कार्यवाही नहीं हो पाई है। पुरातत्वविद प्रोफेसर शैलेश कुमार सिन्हा एवं डॉ कुंदन कुमार का कहना है कि अपने भग्नावशेष में संपूर्ण इतिहास समेटे इन स्कूलों का जिम्मेदारीपूर्वक संरक्षण और विकास कर दिया जाए तो यह अंतरराज्यीय एवं अंतरराष्ट्रीय पर्यटन केन्द्र बन सकता है।

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