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इन देशों में रहते हैं मुस्लिम, लेकिन मस्जिद बनाने की अनुमति नहीं

नई दिल्‍ली : जामा मस्जिद में हाल ही में लड़कियों की एंट्री पर प्रतिबंध का नोटिस लगा गया. ये अलग बात है कि भारी विरोध के बीच एक दिन के भीतर ही रोक हटा दी गई. शाही इमाम के मुताबिक अगर कोई लड़की इबादत के लिए आए तो उन्हें कोई एतराज नहीं. इस बीच मस्जिदों के बारे में कई तथ्य सामने आ रहे हैं. जैसे प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक 2025 तक दुनियाभर में मस्जिदों की संख्या तेजी से बढ़ते हुए 4.5 बिलियन तक पहुंच जाएगी. इसमें इस्लामिक कम्युनिटी सेंटर और दूसरी संस्थाएं शामिल नहीं हैं.

शुरुआत ग्रीस की राजधानी एथेंस से करते हैं, जहां सीरिया से लेकर पाकिस्तान तक के लोग बड़ी संख्या में हैं. कुछ 2 सौ साल पहले 1833 में यहां शुक्रवार की नमाज के लिए एक मस्जिद खुली, जिसके बाद सीधे 2020 में ही औपचारिक तौर पर एथेंस में ये धार्मिक स्थल खुल सका. लंबे समय तक धार्मिक स्थल को बंद रखने के पीछे इस जगह का कट्टरता से भरा इतिहास है.

इससे पहले साल 1453 से लेकर 1800 के मध्य तक ग्रीस (Greece) में उस्मानी साम्राज्य का कब्जा रहा. तब इस यूरोपियन देश में बेहद कट्टरता था, यहां तक कि ऑर्थोडॉक्स कैथलिक समुदाय पर धर्म बदलने का दबाव रहा. ये सब झेल चुके एथेंस ने पक्का किया कि वो किसी भी तरह के धर्म और उसकी कट्टरता को अपनी तरफ से बढ़ावा नहीं देगा और बाकी यूरोपियन देशों की तरह ही रहेगा.

आजादी के बाद से ग्रीस में कितनी ही सरकारें आईं लेकिन जनता की नब्ज पहचान चुकी सरकारों ने मस्जिदों की दोबारा शुरुआत की बात नहीं की. इस बीच ग्रीस में एक चीज बदल रही थी, वो थी मुस्लिम आबादी. मिडिल ईस्टर्न देशों में बढ़ती राजनैतिक-आर्थिक अस्थिरता के बीच वहां से शरणार्थी भागकर यूरोप की तरफ आने लगे. ग्रीस सबसे पास का देश है, तो यहां मुस्लिमों की आबादी बढ़ने लगी. साल 2019 में जारी इंटरनेशनल रिलीजिअस फ्रीडम की रिपोर्ट के अनुसार ग्रीस की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी लगभग 2 प्रतिशत थी. ये एक बड़ी संख्या है.

इतनी बड़ी संख्या के बाद भी वहां लोग फ्लैट्स में नमाज या धार्मिक चर्चाएं किया करते. धर्मनिरपेक्ष उदारवादिता के बढ़ने के बाद औपचारिक तौर पर मस्जिद शुरू करने की बात चली लेकिन जनता के भीतर विरोध और गुस्सा बना रहा. यही कारण था कि सरकार चाहकर भी कोई पुख्ता कदम उठाने से डरती.

अब वहां मस्जिदें तो हैं, लेकिन पुराना दमन झेले हुए लोग या उनकी पीढ़ियां लगातार इसका विरोध करती हैं. जैसे इसी साल फरवरी में ग्रीस की एक मस्जिद पर हमला हुआ, साथ में इस धर्म के खिलाफ पोस्टर चिपकाए गए. तब पड़ोसी मुल्क तुर्की तक इस विरोध की लहर जा पहुंची थी. वहां भी ग्रीस का विरोध होने लगा. जैसे-तैसे सरकारों ने मामला शांत किया.

यहां हालात फिर भी बेहतर माने जा सकते हैं, लेकिन दो और देश भी हैं, जहां मुस्लिमों की धार्मिक आजादी किसी हद सीमित है. एक देश है स्लोवाकिया, जो नब्बे की शुरुआत में चेक रिपब्लिक से टूटकर बना. यहां की तत्कालीन स्लोवाक नेशनल पार्टी ने साल 2016 में मुस्लिम धर्म को ,मजहबों रजिस्टर्ड श्रेणी से हटा दिया. यानी आधिकारिक रूप से मुस्लिम अब वहां अपने धार्मिक स्थल नहीं बना सके. इसकी एक वजह ये भी दी गई कि किसी भी धर्म को रजिस्टर होने के लिए कम से कम 50 हजार अनुयायी चाहिए. अब चूंकि स्लोवाकिया में इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी तो है नहीं, लिहाजा ये धर्म आधिकारिक लिस्ट से हट गया.

ये भी एक बात है कि सरकार के इस कदम को इस्लामोफोबिया बताया गया. कहा गया कि 5 हजार की आबादी वाले मुस्लिम अलग-थलग पड़ जाएं, इसलिए जान-बूझकर 50 हजार वाला नियम आया. किसी हद तक ये बात सही लग सकती है क्योंकि मिडिल ईस्ट में अफरातफरी के दौर में स्लोवाकिया ने शरणार्थियों को बसाने से सिरे से मना कर दिया. सच्चाई जो भी हो, लेकिन एक तथ्य ये है कि अब यहां कोई मस्जिद नहीं. नमाज या ऐसी ही धार्मिक एक्टिविटी के लिए लोग एक-दूसरे के घरों, जहां लंबे-चौड़े दालान हों, वहां जाते हैं.

दूसरा देश एस्टॉनिआ है, जो नब्बे के दशक में सोवियत संघ से टूटकर बना. यूरोप के उत्तर-पूर्व में बाल्टिक सागर के पूर्वी तट पर बसा ये देश अलग होने के बाद से ही तेजी से विकास करने लगा. साल 2013 में यहां फ्री ट्रांसपोर्ट की बात हुई और तुरंत ही यहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट को एकदम फ्री कर दिया गया. इसके पीछे तर्क ये था कि रूस के समय में तकलीफें झेल चुके इस देश के लोगों को घूमने-फिरने की जरूरत है.

खुलेपन और विकास के बावजूद कुछ चीजें यहां अलग हैं, जैसे मुस्लिमों की मौजूदगी के बाद भी एक भी औपचारिक मस्जिद न होना. साल 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में केवल 1508 मुस्लिम हैं, ये पूरी आबादी का 0.14 हैं. ये बात भी सही है कि बीते 12 सालों में आबादी बढ़ी होगी, लेकिन तब भी यहां किसी मस्जिद के निर्माण की बात सामने नहीं आई.

एक तरफ स्लोवाकिया जैसे देश अपने यहां मुस्लिम शरणार्थियों को लेने से मना कर रहे हैं, दूसरी तरफ यूरोप के कई देश मिलता-जुलता इशारा दे रहे हैं. मिसाल के तौर पर फ्रांस को ही लें तो लगातार कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा ये उदार देश अब बेहद तेजी से धार्मिक कट्टरता के खिलाफ कदम ले रहा है.

खासकर यहां धार्मिक फंडों पर नजर रखी जा रही है जो कथित तौर पर टैरर फंडिंग के खिलाफ सख्त कदम है. फ्रांस से अलावा स्वीडन और डेनमार्क जैसे देश भी अब मिडिल ईस्ट से आ रहे रिफ्यूजीज को लेने से हिचक रहा है क्योंकि उनकी बढ़ती संख्या कथित तौर पर देश के स्थाई निवासियों को परेशान कर रही है.

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