दस्तक-विशेष

भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई की जयंती पर उनसे जुड़ी विशेष बातें

नई दिल्ली ( दस्तक विशेष) : देश के चौथे प्रधानमंत्री और भारत की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई की आज बर्थ एनिवर्सरी ( जयंती) है और इसी अवसर पर उनके जन्म , बचपन, शिक्षा, राजनीतिक करियर से जुड़े विभिन्न पहलुओं को स्मृतियों में लाना जरूरी है। मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को भदेली गाँव, जो अब गुजरात के बुलसर जिले में स्थित है, में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे एवं बेहद अनुशासन प्रिय थे। बचपन से ही युवा मोरारजी ने अपने पिता से सभी परिस्थितियों में कड़ी मेहनत करने एवं सच्चाई के मार्ग पर चलने की सीख ली। उन्होंने सेंट बुसर हाई स्कूल से शिक्षा प्राप्त की एवं अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्कालीन बंबई प्रांत के विल्सन सिविल सेवा से 1918 में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने बाद उन्होंने बारह वर्षों तक डिप्टी कलेक्टर के रूप में कार्य किया।

स्वाधीनता आंदोलन में भाग: 1930 में जब भारत में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किया गया आजादी के लिए संघर्ष अपने मध्य में था, श्री देसाई का ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में विश्वास खो चुका था, इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लेने का निश्चय किया। यह एक कठिन निर्णय था लेकिन मोरार जी देसाई ने महसूस किया कि यह देश की आजादी का सवाल था, परिवार से संबंधित समस्याएं बाद में आती हैं, देश पहले आता है। मोरार जी देसाई को स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तीन बार जेल जाना पड़ा। वे 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य बने और 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। जब पहली कांग्रेस सरकार ने 1937 में कार्यभार संभाला, श्री देसाई राजस्व, कृषि, वन एवं सहकारिता मंत्रालय के मंत्री बने

व्यक्तिगत सत्याग्रह और भारत छोड़ों आंदोलन में भाग:

महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गए व्यक्तिगत सत्याग्रह में श्री देसाई को गिरफ्तार कर लिया गया था। अक्टूबर 1941 उन्हें छोड़ दिया गया एवं अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें 1945 में छोड़ दिया गया। 1946 में राज्य विधानसभा के चुनावों के बाद वे मुंबई में गृह एवं राजस्व मंत्री बने। अपने कार्यकाल के दौरान श्री देसाई ने ‘हलवाहा के लिए भूमि’ प्रस्ताव के लिए सुरक्षा काश्तकारी अधिकार प्रदान करके भू-राजस्व में कई दूरगामी सुधार किये। पुलिस प्रशासन के क्षेत्र में उन्होंने लोगों और पुलिस के बीच की दूरी कम की एवं पुलिस प्रशासन को लोगों की जरूरतों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया ताकि वे लोगों के जीवन एवं संपत्ति को सुरक्षा प्रदान कर सकें।

वर्ष 1952 में वे बंबई के मुख्यमंत्री बने। वह यह मानते थे कि जब तक गांवों और कस्बों में रहने वाले गरीब लोग सामान्य जीवन जीने में सक्षम नहीं है, तब तक समाजवाद का कोई मतलब नहीं है। श्री देसाई ने किसानों एवं किरायेदारों की कठिनाइयों को सुधारने की दिशा में प्रगतिशील कानून बनाकर अपनी इस सोच को कार्यान्वित करने का ठोस कदम उठाया। इसमें श्री देसाई की सरकार देश के अन्य राज्यों से बहुत आगे थी। इसके अलावा उन्होंने अडिग होकर एवं पूर्ण ईमानदारी से कानून को लागू किया। बंबई में उनकी इस प्रशासन व्यवस्था की सभी ने जमकर तारीफ की।

राज्यों को पुनर्गठित करने के बाद श्री देसाई 14 नवंबर 1956 को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। बाद में उन्होंने 22 मार्च 1958 से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला। श्री देसाई ने आर्थिक योजना एवं वित्तीय प्रशासन से संबंधित मामलों पर अपनी सोच को कार्यान्वित किया। रक्षा एवं विकास संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने राजस्व को अधिक बढ़ाया, अपव्यय को कम किया एवं प्रशासन पर होने वाले सरकारी खर्च में मितव्ययिता को बढ़ावा दिया। उन्होंने वित्तीय अनुशासन को लागू कर वित्तीय घाटे को अत्यंत निम्न स्तर पर रखा। उन्होंने समाज के उच्च वर्गों द्वारा किये जाने वाले फिजूलखर्च को प्रतिबंधित कर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया।

1963 में उन्होंने कामराज योजना के अंतर्गत केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। पंडित नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने श्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रशासनिक प्रणाली के पुनर्गठन के लिए उन्हें प्रशासनिक सुधार आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए मनाया। लोक जीवन से संबंधित अपने लंबे एवं अपार अनुभव का उपयोग करते हुए उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।1967 में श्री देसाई श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में उप-प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्रालय के प्रभारी मंत्री के रूप में शामिल हुए। जुलाई 1969 में श्रीमती गांधी ने उनसे वित्त मंत्रालय का प्रभार वापस ले लिया।

श्री देसाई ने इस बात को माना कि प्रधानमंत्री के पास सहयोगियों के विभागों को बदलने का विशेषाधिकार है लेकिन उनके आत्म-सम्मान को इस बात से ठेस पहुंची कि श्रीमती गाँधी ने इस बात पर उनसे परामर्श करने का सामान्य शिष्टाचार भी नहीं दिखाया। इसलिए उन्हें यह लगा कि उनके पास भारत के उप-प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन के बाद श्री देसाई कांग्रेस संगठन के साथ ही रहे। वे आगे भी पार्टी में मुख्य भूमिका निभाते रहे। वे 1971 में संसद के लिए चुने गए। 1975 में गुजरात विधानसभा के भंग किये जाने के बाद वहां चुनाव कराने के लिए वे अनिश्चितकालीन उपवास पर चले गए। परिणामस्वरूप जून 1975 में वहां चुनाव हुए। चार विपक्षी दलों एवं निर्दलीय उम्मीदवारों के समर्थन से गठित जनता दल ने विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को निरर्थक घोषित करने के फैसले के बाद श्री देसाई ने माना कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए श्रीमती गांधी को अपना इस्तीफा दे देना चाहिए था।आपातकाल घोषित होने के समय 26 जून 1975 को श्री देसाई को गिरफ्तार कर हिरासत में ले लिया गया था। उन्हें एकान्त कारावास में रखा गया था और लोकसभा चुनाव कराने के निर्णय की घोषणा से कुछ पहले 18 जनवरी 1977 को उन्हें मुक्त कर दिया गया। उन्होंने देशभर में पूरे जोर-शोर से अभियान चलाया एवं छठी लोकसभा के लिए मार्च 1977 में आयोजित आम चुनाव में जनता पार्टी की जबर्दस्त जीत में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। श्री देसाई गुजरात के सूरत निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए थे। बाद में उन्हें सर्वसम्मति से संसद में जनता पार्टी के नेता के रूप में चुना गया एवं 24 मार्च 1977 को उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

प्रधानमंत्री के रूप में श्री देसाई चाहते थे कि भारत के लोगों को इस हद तक निडर बनाया जाए कि देश में कोई भी व्यक्ति, चाहे वो सर्वोच्च पद पर ही आसीन क्यों न हो, अगर कुछ गलत करता है तो कोई भी उसे उसकी गलती बता सके। उन्होंने बार-बार यह कहा, “कोई भी, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी देश के कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए”। उनके लिए सच्चाई एक अवसर नहीं बल्कि विश्वास का एक अंग था। उन्होंने शायद ही कभी अपने सिद्धांतों को स्थिति की बाध्यताओं के आगे दबने दिया। मुश्किल परिस्थितियों में भी वे प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ते गए। वह स्वयं यह मानते थे – ‘सभी को सच्चाई और विश्वास के अनुसार ही जीवन में कर्म करना चाहिए’।

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