दस्तक-विशेष

भाजपा बनी अखिल भारतीय पार्टी

जितेन्द्र शुक्ला

BJPयह बहस का मुद्दा हो सकता है कि अपने दो साल के कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी सरकार ने क्या किया। जिन्हें मोदी पसन्द हैं वे इसका विश्लेषण अपनी तरह से करेंगे और जिन्हें मोदी और उनकी कार्यशैली नापसन्द है, वे इसकी व्याख्या अलग तरह से करेंगे। यह पहली बार नहीं हो रहा है कि किसी सरकार की उपलब्धियों और नाकामियों पर चर्चा हो रही हो। सरकारें चाहे केन्द्र की रही हों या फिर राज्यों की, कसौटी पर सभी कसे जाते रहे हैं। लेकिन यहां इन सबके बीच एक यक्ष प्रश्न यह है कि सरकार ने चाहे जो भी हासिल किया हो लेकिन इन सबके बीच भाजपा ने क्या हासिल किया। सिर्फ हिन्दी भाषी क्षेत्रों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा यूं तो राष्ट्रीय पार्टी थी लेकिन असम में मिली जीत ने उसे अखिल भारतीय पार्टी बना दिया। फिलहाल पार्टी को सब तरफ हरा-हरा दिख रहा है।
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया लेकिन चूंकि भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानि राजग में शामिल थी इसलिए इसे राजग सरकार कहा गया। सभी को याद होगा कि साल 2013 में गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में ही उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट किया गया था। हालांकि मोदी के नाम की घोषणा के बाद भाजपा के पितामह लालकृष्ण आडवाणी नाखुश भी हो गये थे। उस समय मोदी के खास सिपहसलार अमित शाह भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हुआ करते थे और राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष। सरकार बनने के बाद राजनाथ सिंह ने केन्द्र में गृहमंत्री का पद संभाला तो अमित शाह की ताजपोशी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में हुई। भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी अमित शाह की प्रभारी के तौर पर उप्र में दिखायी गयी प्रतिभा को नमन करते हुए उन्हें भाजपा अध्यक्ष पद पर बैठाने के लिए हरी झण्डी दे दी। हालांकि तब यह सवाल भी उठे कि सरकार में सर्वोच्च पद पर भी गुजरात प्रांत का दबदबा है और संगठन में भी। लेकिन चूंकि मोदी का करिश्मा तब चरम पर था इसलिए विरोध के स्वर गले में ही सूखकर रह गए।
केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के तुरन्त बाद ही हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने थे। लोकसभा में अपने दम पर मैजिक नम्बर हासिल करने के बाद मोदी के करिश्मे का भाजपा को यहां भी इन्तजार था। भाजपा ने नए खेवनहार अमित शाह ने इन तीनों ही राज्यों में मुख्यमंत्री के रूप में किसी को प्रोजेक्ट नहीं किया और पुराने नारे यानि कांग्रेस मुक्त भारत को ही आगे बढ़ाया। मोदी ने भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया और इन राज्यों में जमकर प्रचार किया। नतीजतन हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो महाराष्ट्र में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। महाराष्ट्र में शिवसेना के अलग हो जाने के बाद दोनों ही दलों ने अपने-अपने दम पर ताल ठोंकी थी। बाद में दोनों ने गठबंधन कर महाराष्ट्र में सरकार बनायी और भाजपा नेता देवेन्द्र फणनवीस मुख्यमंत्री बने। सबसे ज्यादा चौकाने वाले परिणाम जम्मू-कश्मीर से आये जहां भाजपा ने अपने अब तक के इतिहास में सर्वाधिक सीटों पर कब्जा किया। यहां पर भाजपा किसी भी सूरत में सरकार में शामिल होना चाहती थी। काफी माथापच्ची के बाद पीडीपी के साथ मिलकर भाजपा ने वहां सरकार बनायी। इस दौर में मोदी और शाह की सफलता के आगे सभी नतमस्तक थे। मोदी सरकार में जो चाहते थे वही हो रहा था और इधर संगठन में अमित शाह के निर्णयों को चुनौती देने वाला कोई नहीं था।
उसके बाद बारी आयी दिल्ली प्रदेश के विधानसभा चुनाव की। भाजपा का यहां सीधा मुकाबला अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से था। हालांकि कांग्रेस भी ताल ठोंक रही थी लेकिन न उसमें जोश था और न जुनून। अमित शाह को पहली बार दिल्ली में मुंह की खानी पड़ी। केजरीवाल ने अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए भाजपा को चारों खाने चित्त कर दिया। यहां भाजपा मात्र तीन सीट ही जीत सकी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी रणनीति में फेरबदल कर पूर्व आईपीएस किरण बेदी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया। जबकि भाजपा के रणनीतिकारों ने हरियाणा, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में ऐसी किसी कवायद से परहेज किया गया था। राजनैतिक पंडित किरण बेदी को मुख्यमंत्री को चेहरा बताने को हार का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। दरअसल दिल्ली में भाजपा के पास मदन लाल खुराना व साहिब सिंह वर्मा जैसा कोई बड़ा चेहरा नहीं था। लेकिन वहीं डा. हषवर्धन एक ऐसा नाम था जिसका विवादों से कोई वास्ता नहीं था और वह सर्वमान्य नेता थे। पर भाजपा ने उन पर दांव नहीं लगाया। यही भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण था। लेकिन यहीं से यह चर्चा आम हो गयी कि मोदी का करिश्मा दम तोड़ने लगा है।
दिल्ली के बाद अमित शाह और भाजपा के थिंक टैंक की अग्नि परीक्षा बिहार में थी। बिहार फतेह के लिए भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया लेकिन लालू-नीतीश की जोड़ी के आगे उसकी सांस फूल गयी और यहां भी भाजपा चारों खाने चित्त हो गयी। बिहार में भाजपा ने जीतनराम मांझी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया। भाजपा ने बिहार में दलित वोटों को लुभाने के लिए ही मांझी को कंधे पर बैठाया लेकिन यह दांव उलटा पड़ा। वहीं राजग में शामिल राम विलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी भी कुछ अलग नहीं कर सकी। दिल्ली से नसीहत लेते हुए भाजपा ने बिहार में किसी को भी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया था। बिहार के हार भाजपा के लिए एक बहुत बड़ा आघात था। लेकिन इसके बावजूद अमित शाह की क्षमता को लेकर किसी ने भी आवाज तक नहीं उठायी और भाजपा में सब कुछ पूर्ववत चलता रहा।
फिर अभी हाल में केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम और पॉण्डिचेरी में विधान सभा चुनाव हुए। इन राज्यों में भाजपा के पास न बहुत कुछ खोने को था और न ही बहुत कुछ पाने की उम्मीद थी। पश्चिम बंगाल में यूं तो 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 17.5 फीसदी वोट मिले थे जो कि विधानसभा चुनाव में गिरकर 10.2 फीसद रह गया। लेकिन उसे अकेले अपने दम पर तीन सीटें हासिल हुईं। यहां भाजपा ने विधानसभा की 294 सीटों में से 262 पर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया। यहां तक कि भाजपा करीब 70 सीटों पर वाम मोर्चे और कांग्रेस के गठबंधन का खेल बिगाड़ने का काम जरूर किया।
केरल में भाजपा के लिए कुछ करने का था नहीं। 140 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा को केवल एक सीट मिली। लेकिन वामपंथियों के गढ़ में भाजपा के लिए यह उपलब्धि है। वहीं पॉण्डिचेरी में भाजपा खाली हाथ रही। तमिलनाडु में भी भाजपा की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ लेकिन असम में भाजपा ने जो इतिहास रचा, उससे भाजपा राष्ट्रीय पार्टी होने के साथ ही अखिल भारतीय पार्टी बन गयी। दरअसल पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा की कोई जमीन थी ही नहीं। असम में 126 सीटों वाली विधानसभा मं भाजपा गठबंधन ने 86 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा को अकेले 61 सीटों पर जीत हासिल हुई। यहां पर भाजपा ने पांच से सीधे 61 पर छलांग लगायी। हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा को असम में 36.8 फीसदी वोट मिले थे जबकि विधानसभा चुनाव में यह घटकर 29.5 फीसदी हो गया। दरअसल भाजपा ने यहां बिहार से सीखा और अकेले ताल ठोंकने की गलती नहीं की और एजीपी व बोडो लैण्ड से गठबंधन किया।
असम की जीत के पीछे एजीपी से 2011 में बीजेपी में आए सर्बानंद सोनोवाल और 2015 में कांग्रेस से भारतीय जनता पार्टी में आए हिमांता विश्वा शर्मा के जनाधार की बड़ी भूमिका रही। 2011 में सोनोवाल प्रफुल्ल महंता से अजमल से नजदीकी के सवाल पर एजीपी छोड़ बीजेपी में आ गए। एक साल के भीतर बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बन गए। यानी 2012 तक बीजेपी के पास अपने नेताओं का इतना अभाव था कि दूसरे दल से आया व्यक्ति साल भर के भीतर प्रदेश अध्यक्ष बन जाता है। सितंबर 2015 तक हिमांता कांग्रेस में ही थे। बीजेपी का कमाल यह रहा कि उसने सर्बानंद को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया और हिमांता को विद्रोह भी नहीं करने दिया। लेकिन वास्तव में जीत का आधार तैयार किया है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने। बीजेपी ने दूसरे दलों से आए सिर्फ 14 उम्मीदवारों को ही टिकट दिया, बाकी उसके अपने ही उम्मीदवार रहे।
साफ है कि केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद के दो साल भाजपा के लिए मिश्रित फल देने वाले रहे और अमित शाह निर्विवाद अध्यक्ष। अब भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी उप्र विधान सभा के चुनाव। इसी को ध्यान में रखकर मोदी सरकार के दो साल पूरे होने के जश्न की शुरूआत खुद प्रधान मंत्री ने उप्र के सहारनपुर से की। भाजपा अध्यक्ष सीना ठोंककर दावा कर रहे हैं कि उप्र में पार्टी का सीधा मुकाबला समाजवादी पार्टी से होगा और हम वहां पूर्ण बहुमत की सरकार बनायेंगे। इसी सोच के चलते नरेन्द्र मोेदी ने अपने मंत्रिमण्डल के करीब 40 मंत्रियों को झोंक दिया है ताकि आमजन तक वे अपनी सरकार की उपलब्धियां पहुंचायें और उप्र विधानसभा चुनाव की नींव रखें। इसके साथ ही भाजपा मंदिर मुद्दे को भी फिर से चर्चा में लाने जा रही है। इसी कड़ी में उप्र के पूर्वी अंचल के फायर ब्राण्ड नेता और गोरक्षापीठ के मुखिया महंत (योगी) आदित्य नाथ को मोदी मंत्रिमण्डल में भी स्थान दिया जा सकता है। मोदी और अमित शाह की जोड़ी हर हाल में उत्तर प्रदेश की जंग जीतना चाहती है। पार्टी के रणनीतिकार मानते हैं कि सुविचारित रणनीति पर अमल से उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरा जा सकता है। इसे 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। लोकसभा के 2014 के चुनाव में पार्टी को 80 में से 71 सीटें मिली थीं। हालांकि उसके बाद से पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है। पार्टी के लिए उप्र की जंग जीतना अपनी साख बचाने सरीखा होगा। यदि यूपी में भगवा फहरा तो मान लिया जायेगा कि मोदी सरकार की उपलब्धियों का लाभ पार्टी को भी मिला है। =

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