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उग्रवादियों के विरुद्ध के.पी.एस. गिल का ‘फार्मूला’ अपनाया जाए  

pslगुरदासपुर: 27 को जिला गुरदासपुर के एक पुलिस थाने पर आतंकी हमले की खबर आई, टैलीविजन चैनलों के समाचार स्टूडियो चहक उठे। ‘खालिस्तानी आतंकवाद फिर से सुरजीत हुआ’, प्रारम्भिक प्रतिक्रियाओं में से एक यह थी। पंजाब के अधिकतर लोग भी ऐसा ही सोचते थे।आखिर हमले की हकीकत उजागर हो गई: यह सीमापार से पाकिस्तानी सेना द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित आई.एस.आई. से वरदहस्त प्राप्त एक फिदायीन हमला था।‘खालिस्तान’ के लिए लडऩे वाले सिख उग्रपंथियों ने मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के एकमात्र मामले को छोड़कर कभी भी इस प्रकार का आत्मघाती हमला करने का रास्ता नहीं चुना था। जल्दी ही यह बात स्पष्ट हो गई कि दीनानगर थाने पर हुआ हमला 26/11 के हमलों का ही एक लघु रूप था। गुप्तचर ब्यूरो द्वारा अपुष्ट जानकारियां इकठ्ठी की गईं और सरकार को सौंप दी गईं कि सीमा के नजदीक किसी थाने पर हमला हो सकता है। कोई भी एस.एच.ओ. यह मानने को तैयार नहीं था कि उसका थाना ही निशाना बन सकता है। दीनानगर हमले के बाद अब इन लोगों ने अपनी अपेक्षाएं संशोधित कर ली हैं।एक दशक के आतंकवाद के बाद पंजाब 1992 में शांति की ओर लौट आया था। ‘कौमपरस्त’ बानगी की चुनौती से निपटने का परम्परागत तरीका तो यही है कि पूरे दलबल सहित उन आतंकियों का पीछा किया जाए जिनके विचार परिवर्तित होने की कोई संभावना नहीं। के.पी.एस. गिल ने यह फार्मूला बहुत प्रभावी ढंग से प्रयुक्त किया था। इस प्रक्रिया के समांतर ही उस समुदाय के लोगों के दिल जीतने के प्रयास होने चाहिएं जिस समुदाय से आतंकवादी संबंध रखते हैं। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो एक-आध लड़ाई तो जीती जा सकती है, सम्पूर्ण युद्ध नहीं।कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा जट सिख ग्रामीणों को यह समझाने की कोशिश की गई कि आतंकवाद से किसी का भला नहीं होगा बल्कि उलटा इससे उनकी जिंदगी दूभर हो जाएगी, लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हुआ। जब आतंकी संगठनों में आपराधिक तत्वों ने घुसपैठ कर ली और ऐसे तत्वों ने महिलाओं की इज्जत  पर हाथ डालना शुरू कर दिया, केवल तभी जाकर जट सिख अपने सहधर्मी आतंकियों के विरुद्ध हुए और उन्हें दबोचने में पुलिस के सहायक बने।राजनीति ही आतंकवाद का पोषण करती है जिंदा रहने के लिए आतंकियों को अपने खुद के समुदाय से प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन की जरूरत होती है। जब खालिस्तानी अपने ही लोगों की हमदर्दी खो बैठे तो आतंकवाद का जिन्न शांत हो गया।इस प्रकार के आंदोलनों को राजनीति ही जन्म देती है। वास्तव में सिख खालिस्तान में दिलचस्पी नहीं लेते थे। फिर भी हताश तत्वों, खास तौर पर राजनीतिक वर्ग से संबंधित तत्वों ने जब भी खुद को किसी खतरे में पाया, उन्होंने विद्वेष को बढ़ावा दिया।वर्तमान में अकाली पंजाब में अपना जनाधार खो रहे हैं। भ्रष्टाचार और नशीले पदार्थों के कारोबार ने उनकी लोकप्रियता को तार-तार कर दिया है। यहां तक कि उनके अपने राजनीतिक सहयोगी भी परेशानी महसूस कर रहे हैं। लगातार पीछे धकेले जा रहे अकालियों ने अब अपने ही समुदाय के हताश और नाराज तत्वों का तुष्टीकरण करने के लिए आतंकवाद के आरोपों में सजा काट रहे और अन्य राज्यों की जेलों में बंद उग्रवादियों का स्थानांतरण करके घरों के करीब लाने के वायदे करने शुरू कर दिए हैं।वे ऐसी मित्रभावी बयानबाजी करने का स्वांग रच रहे हैं जिससे यह आभास हो कि वे खालिस्तानी अलगाववादियों के मामले में नर्म रुख अपना रहे हैं। इस प्रकार अकाली इन तत्वों को स्वयं वह स्थान उपलब्ध करवा रहे हैं जो पंजाब के लोगों ने उन्हें नहीं दिया था।खालिस्तान की मांग मूल रूप में विदेशों में बैठे हुए सिखों पर आधारित है। वास्तव में इस आंदोलन से व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होने की आशा रखने वाले मुठ्ठी भर लोगों को छोड़कर स्थानीय सिख जनता की ओर से खालिस्तान की कोई मांग नहीं की जाती। हाल ही में खालिस्तान की मांग के सुरजीत होने के संबंध में हम जो शोर सुन रहे हैं इसके संबंध में बहुत फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है।केन्द्र सरकार को पंजाब में अपने राजनीतिक सहयोगी के साथ बातचीत चलानी चाहिए और शायद उन्हें यह भरोसा दिलाना चाहिए कि प्रदेश की राजनीति में उनकी प्रमुख भूमिका को कोई आंच नहीं आने दी जाएगी। केन्द्र सरकार ने ऐसा न किया तो अकाली वास्तव में न चाहते हुए भी सिखों में अपनी निर्णायक हैसियत बनाए रखने के लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन करने की गलती करने का मोह नहीं त्याग पाएंगे।अकालियों को इस प्रकार का समर्थन देने की कीमत भाजपा को अवश्य ही वसूल करनी होगी। इसे चाहिए कि अपने सहयोगियों को अंधाधुंध बढ़ रहे भ्रष्टाचार और नशाखोरी के अभिशाप पर अंकुश लगाने का परामर्श दे। बहुत से लोगों का यह मानना है कि अकाली दल के प्रमुख नेता ही नशीले पदार्थों के व्यापार की पीठ ठोक रहे हैं।आम तौर पर नशीले पदार्थों के तस्करों द्वारा प्रयुक्त होने वाला नदी मार्ग अपनाकर ही फिदायीनों द्वारा सीमा पार करने और भारत में प्रवेश करने की हकीकत से ही सरकार की आंखें खुल जानी चाहिएं कि इस प्रकार के अपराधियों को संरक्षण देने में किस प्रकार के खतरे छिपे हुए हैं।नशीले पदार्थों की तस्करी को आसान बनाने में भ्रष्ट कस्टम व पुलिस अधिकारी एवं बी.एस.एफ. के अफसर भी भूमिका निभाते हैं।

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