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उचित संसाधनों के न होने से किसान भाई जलाते हैं पराली, सरकार को उठाना होगा कोई उचित कदम

नई दिल्ली: जब दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में पराली (धान के बचे डंठल) जलाने का खतरा सिर पर मंडरा रहा है, ऐसे में हरियाणा की तैयारी पंजाब से बेहतर है। हरियाणा में धान की कटाई के एक ही हफ्ते रह गए है। इस बीच, हरियाणा के कई जिलों में गैर सरकारी संगठनों और ग्रामीणों ने पराली से निपटाने के लिए कुछ शानदार कदम उठाए हैं। वे इसका निपटान जलाने की बजाए इको फ्रेंडली (पर्यावरणीय अनुकूल) तरीके से करेंगे, जबकि कई जिलों में और पंजाब में भी पराली को जलाने का तरीका अभी भी सबसे अधिक प्रचलित है। राष्ट्रीय राजमार्ग के बगल में स्थित मैना और पहरवार गांवों के किसानों का दावा है कि उन्होंने पिछले दो सालों से पराली जलाना बंद कर दिया है। ग्रामीण और सामाजिक कार्यकर्ता विक्रम पंघल कहते हैं, ‘पंचायत सदस्यों का एक समूह हमेशा सतर्क रहता है और पराली जलाने के दुष्प्रभावों के बारे में किसानों को जागरूक करता है। वे उन्हें घर पर ही इसके लिए विकल्प भी प्रदान करते हैं।’ गांव ट्रैक्टर-ट्रॉली और मजदूरों का इंतजाम करता है ताकि खेतों से पराली इकट्ठा कर सके और उसे स्थानीय गौशालाओं को बेचने की व्यवस्था करता है। गौशालाओं में इसे भूसे बना कर मवेशी को खिलाने के काम में लाया जाता है। सिरसा जिले में तो पराली पैसा कमाने का भी एक मौका बन गया है। जब धान का मौसम नजदीक है, तो ऐसे में सिरसा के चक्रियान गांव का एक मजदूर, 45 वर्षीय अमरीक सिंह खुद को इस व्यवसाय के लिए तैयार कर रहे हैं। वह पहले पराली एक स्थान पर इकट्ठा करते हैं। वह बताते हैं, ‘किसान पैसे के बदले पराली बेचकर खुश है और हमें रस्सी बनाने के लिए डंठल मिल जाती है।’ पराली से औसतन कमाई 30,000 से 50,000 रुपए प्रति एकड़ के बीच है। सिंह कहते हैं कि रस्सी बनाने के लिए पराली सूखी होनी चाहिए, जिसे बाद में किसानों को बेचा जाता है और किसान गेहूं के गांठ बांधने के लिए इसका उपयोग करते हैं। एक और किसान हरि राम कहते हैं कि रस्सी बनाना एक कला है, जो उन्होंने अपने पिता से सीखी है और उनके पिता ने भी यह कला अपने माता-पिता से सीखी, वे कहते हैं, ‘हम भूमिहीन मजदूर हैं। हम खेतों में फसल काटने का काम करते हैं और बाद में पशुओं के खाने के लिए पराली ले लेते हैं और साथ ही रस्सी बना कर बेचते हैं।’ पहले धान के किसान मुफ्त में पराली दे देते थे लेकिन जब उन्होंने देखा कि इससे भी कमाई होने लगी है तो वे अब इसके बदले कुछ पैसे लेने लगे हैं। जेबीएनआर ट्रस्ट के सहयोग से नाबार्ड ने राज्य के कुरुक्षेत्र जिले के बर्ना क्लस्टर में पिछले साल एक सफल किसान प्रशिक्षण पायलट परियोजना का परीक्षण किया। उन्होंने अब अपने कार्यक्रम को हरियाणा के नौ अन्य जिलों- सोनीपत, पानीपत, यमुना नगर, अंबाला, करनाल, कैथल, सिरसा, जिंद और फतेहाबाद में फैला दिया है। इस ऑपरेशन के प्रमुख विक्रम आहुजा ने कहा कि खेती के उपकरण जैसे हैप्पी सीडर, मल्चर, रिवर्सिबल प्लो, रेक और बेलर्स आदि गांव स्तर पर उपलब्ध कराए गए हैं, ताकि किसानों को पराली को स्थानांतरित करने के विकल्प मिल सकें। अाहुजा का कहना है, ‘यह एक पायलट प्रोजेक्ट था, जिसमें सितंबर से दिसंबर 2017 के दौरान किसानों को एक गहन प्रशिक्षण, प्रदर्शन और कार्यान्वयन कार्यक्रम उपलब्ध कराया गया था।’ वे बताते हैं, ‘किसान पराली से रस्सी बना सकते थे या खेतों में पड़े पराली के बीच ही गेहूं की बुवाई कर सकते थे। इसके परिणामस्वरूप बर्ना क्लस्टर में पराली जलाने की घटना शून्य रही।’ अपने अनुभव साझा करते हुए, उन्होंने कहा कि कई जगहों पर किसानों ने शुरुआत में यह शपथ लेने से इनकार कर दिया था कि वे पराली नहीं जलाएंगे। इस प्रतिक्रिया ने शुरुआत में टीम को चौंका दिया क्योंकि किसानों का कहना था उनके पास पराली के उचित निपटान के लिए आवश्यक मशीनें नहीं थीं। सस्ती मशीनों की कमी, हरियाणा के कई किसानों के लिए बाधा बनी हुई है। हालांकि राज्य सरकार ने दावा किया है कि पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए पर्याप्त उपाय किए गए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर धान-उत्पादकों के पास बताने के लिए एक अलग कहानी है। दिल्ली से 50 किलोमीटर दूर, सोनीपत जिले के गोहाना के नागर गांव के 44 साल के किसान रमेश कुमार शर्मा कहते है कि एक बार फिर से उन्हें पराली जलाने के लिए मजबूर होना होगा। उनके अनुसार, उन्होंने 18 एकड़ भूमि पर धान बोया था और उसमें से पिछले पखवाड़े हुई बारिश से 3 एकड़ फसल बर्बाद हो गई। अब उनकी जमीन पर सिर्फ 15 एकड़ फसल ही बची है। वे कहते हैं, ‘धान की फसल के बाद, गेहूं बुवाई का मौसम शुरू होता है और मजदूरों को खाली खेत की आवश्यकता होती है। ऐसे में पराली जलाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।’ उनका मानना है कि न सिर्फ वे बल्कि उनके साथी किसान भी सरकार से समर्थन न मिलने की स्थिति में पराली जलाने को विवश हो जाएंगे। धान के खेत में मजदूरी करने वाले बिजेंद्र कुमार ने खुलासा किया कि किसान उन्हें और उसके जैसे अन्य लोगों को पैसा दिया है ताकि हम पराली को एक स्थान पर इकठ्ठा करके उसे जला दे, उनका कहना है कि वे सभी जानते हैं कि पर्यावरण के लिए पराली जलाना हानिकारक है। लेकिन इसका उचित निपटान करने में किसानों को 2,000 रुपए अतिरिक्त खर्च करना होता है ताकि इसे लोड करके बाजार तक भेजा जा सके, रोहतक-रेवारी राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित एक गांव के मनजीत सिंह इसके लिए कृषि मशीनों की कमी को दोष देते हैं। उनके मुताबिक यदि ऐसी मशीनें होती तो पराली का निपटान आसानी से और इकोफ्रेंडली तरीके से किया जा सकता था। सिंह ने 13 एकड़ जमीन पर धान की खेती की है। वे कृषि विभाग पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि उन्होंने सब्सिडी वाली मशीनों का लाभ उठाने के लिए अधिकारियों से संपर्क किया था, लेकिन कोई लाभ नहीं मिला, सिंह आरोप लगाते हैं, ‘हमें मशीन लेने के लिए समूह बनाकर आने को कहा गया था, जबकि कुछ चुने हुए लोगों को व्यक्तिगत सब्सिडी दी गई थी।’

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