उत्तराखंडराज्य

उत्तराखंड के जंगल दे रहे हैं 107 बिलियन रुपये की पर्यावरणीय सेवा

देहरादून: पर्यावरण संरक्षण के जरिये देश की आबोहवा को प्रदूषण से लड़ने और सांस लेने लायक बना रहे उत्तराखंड के इस योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना तो मिलती आ रही है, मगर यह भी सच है कि इसके एवज में प्रतिपूर्ति के मुद्दे को अभी तक अनसुना ही किया जा रहा है। उत्तराखंड के जंगल दे रहे हैं 107 बिलियन रुपये की पर्यावरणीय सेवा

यह ठीक है कि विषम भूगोल और दुरूह परिस्थितियों के मद्देनजर हिमालयी राज्यों के सामने पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन साधने की सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन उत्तराखंड को इनसे अधिक जूझना पड़ रहा है। इसीलिए राज्य की ओर से पर्यावरणीय सेवाओं के एवज में ग्रीन बोनस अथवा इसी तरह के अन्य इंसेटिव की मांग लगातार उठाई जा रही है। अब प्रदेश में ‘डबल इंजन’ की सरकार है तो उम्मीद बंधी है कि आम बजट में केंद्र सरकार इसके लिए कुछ न कुछ पहल अवश्य करेगी।

यह किसी से छिपा नहीं है कि 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में जंगल सहेजकर आबोहवा को स्वच्छ रखना यहां की परंपरा में शुमार रहा है। इसीलिए उत्तराखंड के जंगल अन्य राज्यों की तुलना में अधिक महफूज हैं। कुल भूभाग का 46 फीसद वनावरण इसकी तस्दीक भी करता है। इससे न सिर्फ पहाड़ सुरक्षित हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रमुख कारक हवा, मिट्टी, पानी भी। 

एक अनुमान के मुताबिक अकेले यहां के जंगलों से ही हल साल 107 बिलियन रुपये की पर्यावरणीय सेवाएं मिल रही हैं। यही नहीं, हर साल ही वर्षाकाल में बड़े पैमाने पर यहां की नदियां अपने साथ बहाकर ले जाने वाली करोड़ों टन मिट्टी निचले इलाकों को उपजाऊ माटी देती आ रही है।

इन्हीं पर्यावरणीय सेवाओं को सहेजने में राज्य वासियों को दुश्वारियों से भी दो-चार होना पड़ रहा है। वन कानूनों की बंदिशों के चलते बड़ी संख्या में परियोजनाओं को आकार नहीं मिल पा रहा है। संरक्षित क्षेत्रों और इको सेंसिटिव जोन के प्रावधानों ने नींद उड़ाई हुई है। ताजा मामला, भागीरथी इको सेंसिटिव जोन का है, जिसके कठोर प्रावधानों में 10 जल विद्युत परियोजनाएं, आल वेदर रोड समेत अन्य योजनाएं लटकी हैं।

यहां के जंगलों में पल रहे वन्यजीवों की बात करें तो बाघ, गुलदार, हाथी, भालू, सूअर जैसे जानवरों ने राज्यवासियों की नाक में दम किया हुआ है। 600 से ज्यादा लोग वन्यजीवों के हमलों में गुजरे 17 सालों में मारे गए, जबकि 1200 से ज्यादा घायल हुए हैं। 

यही नहीं, खेती को वन्यजीव चौपट कर रहे हैं, सो अलग। पहाड़ के गांवों से निरंतर हो रहे पलायन के पीछे वन कानूनों के कारण सुविधाओं का न पसर पाना और वन्यजीवों का खौफ भी हैं।

इस सबके एवज में ही राज्य की तरफ से लगातार मांग उठाई जा रही है कि पर्यावरणीय सेवाओं के एवज में उसे ग्रीन बोनस दिया जाए, ताकि स्थानीय जनमानस के जख्मों पर कुछ तो मरहम लग सके। राज्य गठन के बाद से ही केंद्र के समक्ष यह मसला रखा जा रहा है, मगर हामी के बाद भी कोई प्रभावी पहल अब तक नहीं हो पाई। 

हालांकि, केंद्र की मौजूदा सरकार ने सत्तासीन होने के बाद हिमालयी राज्यों और यहां के विकास के मॉडल को लेकर कुछ रुचि जरूर दिखाई, मगर ग्रीन बोनस पर बात अभी तक अटकी है। अब जबकि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर यह तैयारियों का साल भी है तो सभी के मन में यह उम्मीद है कि केंद्र इस बजट में ग्रीन बोनस का कुछ न कुछ प्रावधान अवश्य करेगा।

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