दस्तक-विशेषसाहित्य

कहां जाएगी मौना…

कहानी : डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
maunaतू जब से आई है मेरे तो भाग फूट गए हैं।’ लक्ष्मी ने मौना को लगभग धक्का देते हुए कहा। धक्के के झोंक से मौना गिरते-गिरते बची। इकहरे बदन की मौना जिसे देखने वालियों ने ‘सूखी टहनी’ कहा था, टुकुर-टुकुर देखने लगी लक्ष्मी की ओर। उसे समझ में नहीं आया कि उसने अब ऐसा क्या गलत कर दिया जिसके कारण लक्ष्मी उसे धकिया रही है। ‘ऐसे क्या देख रही है? मुझे खा जाएगी क्या?’ लक्ष्मी ने एक बार फिर डांटा मौना को। मौना सहम गई। यह लगभग प्रतिदिन का क्रम था। यदि लक्ष्मी मौना को दिन में दसियों बार झिड़के न, उसके सिर के बाल न खींचे, धक्के न दे तो शायद लक्ष्मी का खाना हज़म न हो। जाने कौन सा भाग्य लेकर पैदा हुई थी मौना कि अभी वह ठीक से जवान भी नहीं हुई थी कि उससे उसका घर टूटा, उसका ‘देश’ टूटा और उसका अपना परिवार टूटा। यह परदेस मौना के लिए सचमुच विदेश जैसा था। एकदम अपरिचित, न बोली अपनी न भाषा अपनी। मौना देखने में कोई विशेष नहीं थी। सांवली रंगत, पतला चेहरा, बाहें ऐसी कि जैसे किसी मध्यम कद के पेड़ की सूखी टहनियां, पांव ऐसे जैसे हड्डी पर चाम मढ़ दिया गया हो, सीना भी लगभग चपटा। ऐसी कोई खूबी नहीं थी जिसे देख कर कोई पुरुष उस पर मर मिटता या उसे पाने को हठ करता। उसमें यदि कोई विशेषता थी तो यही कि वह एक औरत थी। उसकी सूखी टांगों के ऊपर, हड़ीली जांघों के बीच एक जंगल था जिसमें किसी भी पुरुष को वह झरना मिल सकता था जो न केवल उसकी प्यास को तृप्त कर सकता था अपितु उसके वंश को आगे भी बढ़ा सकता था। मौना अपनी इस विशेषता से भली-भांति परिचित भी नहीं हो सकी थी कि उसकी इस खूबी को सूंघते हुए लोग उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगे। पहले उसकी झुग्गी बस्ती के शोहदे, फिर बाहरी अजनबी लोग।
तीन बहनों और दो भाइयों के बीच की कड़ी थी मौना। जब वह अपने माता-पिता के पास थी तब उसका यह नाम नहीं था। लेकिन जब से वह ब्याह कर सागर जिले के इस देहात में आई, उसके ठीक पहले उसका नाम मौना रख दिया गया। वैसे बिलकुल सही नाम था -मौना। वह बोलती ही कहां थी? किससे बोलती? क्या बोलती? कैसे बोलती? वह इशारों को समझने का प्रयास करती रहती। वह भी इसलिए कि उस घर की औरतों के क्रोध का कारण वह समझ सके और उनकी मार तथा गालियों से बच सके। गालियों के शब्द भले ही उसकी समझ से परे थे किन्तु आवाज़ की ऊंचाई, चेहरे के हावभाव और हाथों व उंगलियों के संकेत उसे इस बात का आभास करा देते थे कि उसे गंदी-गंदी गालियां दी जा रही हैं।
मगर क्यों? उत्तर किससे पूछे? कैसे पूछे? पूछने का प्रयास करती तो मार खाती। रोती तो मार खाती। उसकी आंख से आंसू आते ही लक्ष्मी किसी आक्रमणकर्ता की भांति उस पर टूट पड़ती और उसके सिर के बाल पकड़ कर उसके चेहरे को झटकते हुए कहती,‘आ हा़हा़..महारानी जी टेसुए बहा रही हैं अभी रात होगी तो यही टेसुए लिए खसम के सामने जा खड़ी होंगी़.ज़ी तो चाहता है कि इसकी आंखें फोड़ दूं!’ ‘ये क्या हो रहा है लक्ष्मी? छोड़ मौना को!’ लक्ष्मी की सास डांटती। वह उसे याद दिलाती,‘फोकट की नहीं आई है़..हज़ार-दो हज़ार खर्चे हैं तेरे पति ने़. .और जो तू किसी काम की होती तो इसे काहे को लाना पड़ता़.?’ सास भी लक्ष्मी को ताना मारे बिना नहीं रहती। ‘ठीक है, कह लो! कोई और होती तो घर छोड़ कर चली जाती़.’ लक्ष्मी स्वर बदल कर रोने का अभिनय करने लगती और सास के गुस्से का रुख बड़ी सफाई से मौना की ओर मोड़ देती।
‘अरी, ठठरी की बंधी़. तू यहां क्या खड़ी है? क्या तेरा बाप आ कर अनाज साफ़ करेगा?’ सास मौना पर बरस पड़ती फिर माथे पर हाथ मारती हुई कहती,‘मेरी तो किस्मत ही खराब है, एक बहू लाई छांट-छूंट कर तो वह निपूती निकली और दूसरी.. इसे तो देखे से ही घिन आती है़..ज़ाने कौन किसम का बच्चा पैदा करेगी ये़..भगवान जाने!’ हां, मौना बच्चा पैदा कर सकती थी जो लक्ष्मी नहीं कर पा रही थी। मौना सुबह पांच बजे जाग जाती। यही समय उसके लिए नियत किया गया था। उठ कर पूरे घर में झाड़ू फेरती। हैंडपंप से पानी भरती और फिर नहा कर चौके में घुस जाती। जो भी सो कर उठता उसे चाय देना मौना की ड्यूटी थी। मेरे आने से पहले इन लोगों को कौन चाय देता रहा होगा? मौना सोचती। वह पूछ किसी से नहीं सकती थी। गूंगी नहीं थी किन्तु उससे बोलने वाला कोई नहीं था।  चाय का दौर निपटता तो भोजन पकाने का दौर शुरू होता। उस समय तक लक्ष्मी भी चौके में आ धमकती। वह इस तरह ऊंची आवाज़ में निर्देश देती जाती गोया मौना के रहते हुए भी उसे ही सारा काम करना पड़ रहा हो। मौना तैलघानी में घूमने वाले बैल की भांति चुपचाप काम करती जाती। एक, दो, तीन कब बज जाते उसे पता नहीं चलता। उसने चाय पी या नहीं? उसने कुछ खाया या नहीं? इसकी चिन्ता किसी को नहीं रहती। सबके भोजन कर लेने के बाद मौना का नंबर आता। बचाखुचा खाना उसे मिल ही जाता। खाना खा कर कुछ देर सुस्ताती कि कभी चाय की फरमाइश तो कभी भजियों की फरमाइश। ऐसी फरमाइशें करते समय लक्ष्मी की सास को घिन नहीं आती। एक नौकरानी के हाथों का बना खाना या कोई भी व्यंजन वह अपना जन्मसिद्घ अधिकार मानती। वह अपने जमाने में ढेर सारा दहेज ले कर इस घर में आई थी। उसने इस घर को चार बेटे दिए जबकि दो बेटियों से छुटकारा पाते हुए उसे मामूली सा दुख हुआ था, अधिक नहीं। उसे बेटों की मां बनना था, बेटियों की नहीं। उसने दाई से पहले ही कह दिया था कि बेटी जन्मे तो उसका जीवित मुंह मुझे मत दिखाना। दाई ने इस काम को कैसे अंजाम दिया यह तो दाई ही जाने, बाकी लक्ष्मी की सास ने दाई से इस बारे में कभी कोई प्रश्न नहीं किया। इसके विपरीत अपने प्रत्येक पुत्र के जन्म पर दो साड़ियां और पांच सौ रुपए परिवार से अलग, अपनी ओर से दिए।
दो लाड़ले बेटों ने बड़े होकर शहर में दुकान खोल ली और शादी के बाद वहीं बस गए। लक्ष्मी के ससुर के मरते ही घर का बंटवारा हुआ। लक्ष्मी अपनी सास के तीसरे नंबर के बेटे की बीवी थी। बड़े दोनों बेटों के घर छोड़ कर, अपना हिस्सा ले कर जाने के बाद लक्ष्मी, उसका पति, उसकी सास और उसका देवर गांव वाले घर में रह गए। गांव में रह गए इस परिवार की आर्थिक कमर टूट गई। उस पर लक्ष्मी के पांव भारी नहीं होने का दुख। जो गर्भ कभी ठहरा भी तो दो-तीन माह के लिए। इधर लक्ष्मी का देवर भी ब्याह के लिए तैयार खड़ा था। माली हालत जितनी बढ़-चढ़कर प्रदर्शित की जाती थी, उतनी थी नहीं। किसी ने सलाह दी कि बंडा तहसील के फलां गांव के सेठ जी के घर ओडीशा से लड़की ब्याह कर लाई गई है। थोड़ा सा खर्चा और ढेर सारी सहूलियतें। जब तक जिन्दा रहेगी गुलामों की तरह घर का काम करेगी। बीवी बना कर लाई जाएगी तो कोई कानूनी अड़चन नहीं रहेगी। जब हालात सुधर जाएं या कोई अच्छा रिश्ता मिल जाए तो उस ‘कलूटी’ से छुटकारा पाने का हल भी ढूंढ लिया जाएगा। ‘कलूटी?’ रामप्रसाद ने मुंह बना कर कहा था। रामप्रसाद यानी लक्ष्मी का देवर। उसी के ब्याह की बात चल रही थी। ‘औरत, औरत होती है़. गोरी या काली के नखरे तब देखने चाहिए जब औरतों का ढेर लगा हो हमारे यहां लड़कियां वैसे ही कम पड़ रही हैं।’ समझाने वाला बुंदेली में समझाने लगा था जिससे रामप्रसाद के भेजे में बात बैठ जाए।
‘हम न सोबी ऊके संगे!’ रामप्रसाद ने फिर भी अड़ियल रवैया दिखाया। उसने बेझिझक कह दिया कि वह ‘कलूटी’ औरत के साथ नहीं सोएगा। ‘तो जा, ढूंढ ले अपनी भौजी जैसी… फेर गोरी को गू चाटत रहियो़. निपूते मर जइयो…। अरे, नासपिटे! कलूटी के संगे तुमाओ भैया सो लेहे, ईको कमा से कम एक मोड़ा तो मिल जेहे़.़।’ समझाने वाले ने रामप्रसाद को आड़े हाथों लिया। ‘तो जेई ऊके संगे ब्याह काए नई कर लेते?’ रामप्रसाद का फिल्मी हिरोइन-सी दुल्हन पाने का सपना टूटा जा रहा था। ‘अरे मूरख! हमाए लाने सोई रैहे वो अब अगर हम ब्याह के लाए तो तुमाई भौजी के घर वाले थाना-कचहरी करा देंगे।’ बड़ा भाई यानी दुर्गाप्रसाद बोल पड़ा। अंतत: रामप्रसाद को बड़े भाई की बात माननी ही पड़ी। जिसने रास्ता सुझाया था, वही दुर्गाप्रसाद और रामप्रसाद को ले कर ओडिशा के उस कस्बे की झुग्गी बस्ती में पहुंचा जहां बाढ़ पीड़ित परिवार के रूप में शिबोम बीस वर्ष से रह रहा था। चार बेटियों और दो बेटों का बाप शिबोम। दो बेटियों को ‘ब्याह’ चुका था। तीसरी के लिए ‘रिश्ते’ की बाट जोह रहा था कि ‘रिश्ता’ ले कर आने वालों ने चौथी बेटी को पसंद किया। ये ‘रिश्ता’ ले कर आने वाले थे दुर्गाप्रसाद, रामप्रसाद और उनका वही बिचौलिया। उन्होंने मौना को पसंद किया। क्योंकि मौना की बड़ी बहन के पिचके गालों के बीच बड़े-बड़े दांत दुर्गाप्रसाद को पसंद नहीं आए थे। पशुमेले में खरीददार पशुओं का कद-काठी और ताकत का आकलन करता है। यदि दुधारु पशु हो तो उसके थन टटोल कर खुद भी अनुमान लगाता है कि कितना दूध देगी। दुर्गाप्रसाद ने भी बिचौलिए से कहा कि ‘लड़की का डॉक्टरी जांच करा दो, यदि यह मां नहीं बनी तो?’  ‘तो नौकरानी बन के पैसे तो चुका ही देगी न!’ बिचौलिए ने कहा था। उसे डॉक्टरी जांच की बात नहीं जमी।
mauna_1‘सिर्फ नौकरानी?’ ‘और क्या? काम नहीं बना तो दूसरी का इंतेजाम कर लेंगे़..तब तक मजे करना’ अश्लीलतापूर्वक हंसा था बिचौलिया। दुर्गाप्रसाद उसकी बात सुन कर मन ही मन पिघल गया था। उसे बिचौलिए कि वह बात याद आ गई थी कि ‘औरत तो औरत होती है।’ दुर्गाप्रसाद को अपने एक लम्पट दोस्त की वह बात भी याद आई थी कि ‘अरे शकल पसंद न आए तो उसके मुंह पर डालो कपड़ा और कर डालो अपना काम़.़.!’ ‘शकल पे मत जा!’ दुर्गाप्रसाद ने अपने छोटे भाई को समझाया। मौना के पिता शिबोम के साथ मोलभाव करने के बाद सौदा तय हुआ दो हज़ार दो सौ पच्चीस रुपए और इस वादे में कि उसकी तीसरी बेटी के लिए भी ऐसा ही कोई ‘रिश्ता’ वे लोग ढूंढ देंगे। रामप्रसाद ने शिबोन के परिवार और आस-पास की झुग्गीवालों के सामने मौना की मांग में सिंदूर भरा। इस ‘रस्म’ के लिए मौना को लाल रंग की साड़ी दी गई थी पहनने के लिए ताकि वह ‘दुल्हन’ दिखे। शादी के बाद शिबोम और उसके परिचय वालों को देसी दारू और मछली के सस्ते पकौड़ों की दावत दी गई। शिबोम सीना फैलाए घूमता रहा और मौना ब्याह की प्रसन्नता को अपने दिल में समेटे अपरिचित ‘देश’ की ओर चल पड़ी, रेलगाड़ी में बैठ कर। वह अपने दूल्हे को देखती और मन ही मन खिल उठती। उसकी दोनों बड़ी बहनों के दूल्हे ऐसे नहीं थे। वे उम्र में बहुत बड़े थे बहनों से। ‘हमारे यहां दुल्हन का नाम बदल दिया जाता है। हम तुम्हें मौना कह कर बुलाया करेंगे।’ दुर्गाप्रसाद ने मौना को शादी से पहले ही जता दिया था। मौना समझ नहीं सकी थी। उसे हिन्दी नहीं आती थी, बुन्देली मिश्रित हिन्दी तो बिलकुल भी नहीं। शिबोन ने बेटी को दुर्गाप्रसाद की बात को अपनी भाषा में अनुवाद कर के बताया था। क्या फ़कऱ् पड़ता है? मौना ने सोचा था। दो समय के भात से बढ़ कर नाम नहीं होता। वे कुछ भी पुकारें, कम से कम भात तो देंगे! न जाने कितने दिन और कितनी रातें मौना और उसके परिवार को पानी पी कर काटनी पड़ जाती हैं। जिस दिन मां-बाप को काम नहीं मिलता, उसे काम नहीं मिलता, उसकी बहन को काम नहीं मिलता, उस दिन फांके के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता। उसकी झुग्गी बस्ती के सभी तो दिहाड़ी मजदूरी करने वाले हैं। जिस दिन मजदूरी मिली तो मर्दों ने दारु पी कर आधी मजदूरी ‘मूत दी’, जैसा कि मौना की मां कहती है। रही आधी मजदूरी तो उसमें आधा दर्जन या पौन दर्जन परिवारजन को भरपेट भात खिलाना संभव ही नहीं है। मौना के विवाह पर उसकी मां रोई थी, फिर खुश हुई थी यह सोच कर कि चलो, एक और बेटी को इस नरक से छुटकारा मिलेगा…और परिवार को कुछ दिनों के लिए भरपेट अन्न।
उसके मायके से ससुराल तक का रास्ता बहुत लम्बा था। एक रेल से दूसरी रेल और भीड़ का सैलाब। भीड़ तो मौना ने भी देख रखी थी किन्तु रेल पर चढ़ने का यह उसका पहला अवसर था। इसीलिए शुरू में उसे अच्छा लगा, लेकिन जल्दी ही वह थक गई। आंखें फाड़-फाड़ कर देखा था उसने रेल की खिड़की के बाहर का दृश्य। रास्ते में उसे जो भी खाने को दिया गया, उसके लिए नया था, उसे अच्छा लगा। उसने भोजन का विविध स्वाद कभी जाना ही कहां था?  मौना अपने ससुराल पहुंची। उसका किसी ने स्वागत नहीं किया। एक औरत से परिचय कराया गया। नाम बताया गया लक्ष्मी। मौना ने नाम रट लिया। आसान था। परिचित सा। अलबत्ता, लक्ष्मी की एक भी बात मौना के पल्ले नहीं पड़ी। भाषायी समस्या थी। लक्ष्मी बुन्देली मिश्रित हिन्दी भाषी थी और मौना ओडिया भाषी। गांव के कई लोग उसे देखने आए। सबके चेहरों पर कौतूहल था। फिर भी औरतों के चेहरे पर उपेक्षा का भाव और पुरुषों के चेहरों पर लालसा का भाव। गोया वे सारे के सारे पुरुष एक मौना पाना चाहते थे। मौना को लगा कि उसकी भाषा बोलने वाली, उसकी ‘देश’ की एक भी औरत उस गांव में नहीं है। यह भ्रम उसे सदा बना रहा जबकि उस गांव में पांच औरतें और थीं मौना के ‘देश’ की। उन्हें भी मौना की तरह घर से बाहर निकलने की मनाही थी। उन्हें आपस में मिलने देने का तो प्रश्न ही नहीं था। वे एकाकी, आश्रित और लाचार अनुभव करती रहें, यही उनके पतिनुमा मालिकों के लिए बेहतर था। यूं भी कौन सोच सकता था कि बुन्देलखंड के पिछड़े हुए गांव में ओडिशा से लड़कियां ब्याह कर लाई जाने लगीं हैं। क्योंकि वहां लड़कियां कम हैं, क्योंकि लाचार ओडिया लड़कियों के रूप में एक ऐसी नौकरानी मिल जाती है जो न काम छोड़ कर भाग सकती है और न आंखें दिखा सकती है। सौदा लाभ ही लाभ का।
मौना को पहली रात में ही अनुभव हो गया कि उसका ब्याह भले ही रामप्रसाद के साथ किया गया है, लेकिन उसके जेठ दुर्गाप्रसाद का भी उस पर उतना ही अधिकार है। सुहागरात दुर्गाप्रसाद ने ही मनाई। देह ने अनन्त पीड़ा झेली किन्तु यह पीड़ा मन की पीड़ा से बढ़ कर नहीं थी। कोई सप्ताह भर बाद उसका असली पति यानी रामप्रसाद उसके पास रात को आया। शराब का भभूका छोड़ता हुआ। उसने रामप्रसाद से अपनी पीड़ा व्यक्त करनी चाही, लेकिन रामप्रसाद को होश ही कहां था उसका दुखकष्ट सुनने का। उसने बेरहमी से अपना काम किया और चला गया। यह क्या हो रहा है उसके साथ? मौना हतप्रभ थी। किससे कहे अपना दुख? उस घर में नौकर के नाम पर वही थी और सेविका के नाम पर भी वही। लक्ष्मी एक भी काम को हाथ नहीं लगाती। शीघ्र ही मौना के भीतर की औरत ने जान लिया कि ब्याह कर पत्नी बना कर नहीं अपितु नौकरानी और देहपिपासा शांत करने के साधन के रूप में लाई गई है। जिस पेट भर अन्न का सपना देखती वह यहां आई थी, उस अन्न में भी कटौती बढ़ती चली गई। यदि उसके हाथ से एक कप भी टूटा तो समझो कि उसके एक समय का भोजन गया। बूढ़ी सास भी मौना को ही कोसती। ‘ये भी क्या बांझ है रे?’ सास कभी दुर्गाप्रसाद से पूछती तो कभी रामप्रसाद से। ‘खुदई तो बंजर बेटे पैदा किए हैं और हम लुगाइयों को कोसती हो!’ ऐसे समय लक्ष्मी सास को ताना मारे बिना नहीं रहती,‘अरे, इससे तो मेरी मौसी की लड़की से ब्याह करातीं तो कहीं अच्छा रहता।’
‘और उस ब्याह में आठ-दस हजार फुंकते, उसका क्या? वो तेरा बाप देता? ये तो हजार-बारा सौ में काम बन गया।’ सास भी पीटे नहीं रहती।
‘काम बने तब न!’ लक्ष्मी आखें नचा कर कहती। लक्ष्मी ने तो सोच ही रखा था कि मौना के पांव भारी तो हों फिर देखती है उसे़.़.औलाद का ‘औ’ भी नहीं जनने देगी। गला दबा देगी उसका। यही बात उसने गुस्से में आ कर दुर्गाप्रसाद को कह दी। ‘एक बार बच्चा तो जन दे फिर तो मैं ही गला दबा दूंगा उसका।’ दुर्गाप्रसाद कुटिलता से बोला था, लेकिन पति की बात पर लक्ष्मी को विश्वास नहीं था, मर्द की जात कहीं लक्ष्मी का ही गला न दबा दे। नर्क-सा जीवन जीती मौना रोती, सिसकती और दुआ करती कि कम से कम एक बार तो उसके मां-बाप उससे मिलने आ जाएं। पर, कैसे आएंगे? क्या उन्हें पता है रास्ता? वे भी तो कभी रेल पर नहीं चढ़े? टिकट खरीदने के लिए पैसे कहां से लाएंगे? क्या उसकी उन दोनों बहनों को भी ऐसा ही नरक जीना पड़ रहा है या फिर वे कहीं आराम से हैं? मौना को संदेह था उनके आराम से होने में। वे दोनों भी तो उसी की तरह अपरिचितों के हाथों चंद रुपयों के बदले ‘ब्याह’ दी गई थीं। क्या तीसरी बहन भी ब्याह दी गई होगी अब तक? सोच कर रोने लगती मौना।
mauna_2एक दिन लक्ष्मी पर मानो वज्रपात हो गया। मौना को चक्कर आया। वह पानी का कलसा लिए हुए धड़ाम से गिरी। लक्ष्मी ने तो समझा कि मौना ‘टें बोल गई’, उसने चैन की सांस लेते हुए सोचा कि चलो, बला टली। किन्तु बला टली नहीं, सास ने मौना के शरीर को टटोला और प्रसन्न हो कर घोषणा की कि मौना पेट से है। सास की वाणी सुनते ही पथरा गई लक्ष्मी। कुछ देर बाद उसने स्वयं को सम्हाला और अपने आने वाले कल के बारे में सोचने लगी। अंतत: उसने दुर्गाप्रसाद से दोटूक बात करने का निश्चय किया। ‘जनने तो दो उसे, बेच आऊंगा उसे भिंड, मुरैना में कहीं बेफालतू चिन्ता मत कर!’ दुर्गाप्रसाद ने आश्वस्त किया। ‘और जो तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं कुएं में कूद कर जान दे दूंगी।’ लक्ष्मी ने चेतावनी दी। ‘ऐसी नौबत नहीं आएगी! भरोसा रख मुझ पर।’ दुर्गाप्रसाद ने भरोसा दिलाया। मौना को जब पता चला कि वह गर्भवती है तो वह सोच में पड़ गई कि अब उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? उसे और उसके बच्चे को अच्छे से रखेंगे ये लोग या उसके बच्चे को भी उसी की भांति नौकर बना कर रखा जाएगा? और जो बच्ची हुई तो? मौना घरवालों की बोली कुछ कुछ समझने लगी थी। अब वह अपने कान खड़े रखती, एक चौकन्नी मां की तरह। एक अच्छी बात यह थी कि उसे अब भरपेट भोजन दिया जाने लगा था। इतना तो वह समझ गई थी कि उसके पेट में मौजूद गर्भ के कारण उसे भरपेट भोजन दिया जा रहा है, लेकिन प्रसव के बाद? इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं था। यदि वह प्रसव के पहले ही इस घर से कहीं भाग जाए तो?
लेकिन कहां? उसे तो ठीक से पता भी नहीं है कि वह है कहां? उसके अपने माता-पिता का घर किस शहर में, कितनी दूर और कहां हैं? वहां तक कैसे पहुंचेगी? रेल की लम्बी यात्रा के बाद एक बस में सवार हो कर वह इस गांव तक आई थी। यदि वह घर से भाग कर बस में भी सवार हो जाए तो जाएगी कहां? उसे रेल कहां मिलेगी? एक तो वह पढ़ी-लिखी नहीं थी और उस पर उसे अपनी बोली-भाषा के अलावा कुछ आता नहीं था। कैसे और कहां चली जाए वह? हिन्दी भी टूटी-फूटी समझ पाती है। इसी उधेड़बुन में मौना के दिन-रात कटते। एक दिन मौना को दो अपरिचित आदमियों के सामने खड़ा किया गया। वे विचित्र नेत्रों से उसे घूरते रहे। गर्भ धारण करने और भरपेट भोजन करने के कारण चेहरे पर आई लुनाई ने मौना के स्त्रीत्व में चार चांद लगा रखा था। सांवला चेहरा चमक उठा था। देह भर आई थी। कुछ देर वे दोनों मौना को घूरते रहे फिर मौना को दूसरे कमरे में भेज दिया गया। पता नहीं क्यों मौना का मन सशंकित हो उठा। एक अज्ञात अनिष्ट की आहट उसे मिलने लगी। किससे पूछे कि ये लोग कौन हैं? पति से? नहीं वह नहीं बताएगा। जेठ से? वह तो कभी कुछ बताता ही नहीं है। मौना ने उससे गांव का नाम पूछा था ताकि उसे पता तो चले कि वह जिस गांव में रह रही है, उसका नाम क्या है? जेठ दुर्गाप्रसाद ने उसके प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया था। लक्ष्मी से पूछे? या फिर सास से?
आखिर उसने साहस बटोर कर लक्ष्मी से पूछा। ‘जब वे दोनों तुझे ले जाएंगे खरीद कर तब खुद ही पता चल जाएगा़.़.फिर ऐश करना जब दिन रात..गा..मारने वाले मिलेंगे।’ लक्ष्मी ने भद्दे ढंग से उत्तर दिया था। ‘खरीदना’ और ‘बेचना’ जैसे शब्दों के अर्थ मौना जानती थी। इतने अरसे में उसे हिन्दी के कई शब्द समझ में आने लगे थे। ‘और बच्चा?’ मौना ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए पूछा। ‘बच्चा अपने बाप के पास रहेगा। यहां मेरे पास।’ कुटिलतापूर्वक मुस्कुराते हुए, अपनी गोद की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मी बोली। मौना हतप्रभ रह गई। पहले माता-पिता, भाई-बहन छूटे और अब उसका बच्चा भी उससे छुड़ा लिया जाएगा? ये जो उसे खरीद कर ले जाएंगे, ये लोग इसी तरह उसे घर में रख कर काम कराएंगे? भाइयों के बीच द्रौपदी बना कर रखेंगे या फिर कहीं धंधे पर बिठा देंगे?़.़.घबरा गई मौना। उसे पता है कि ‘धंधा’ क्या होता है। उसकी बुआ परिवार के पेट की आग बुझाने के लिए धंधा करने लगी थी़. .साल भर में ही उसे ऐसी बीमारी लगी कि वह ऐड़ियां रगड़-रगड़ के मरी। मौना ने देखा था अपनी मौसी का तड़पना, रोना और मृत्यु के लिए भगवान से प्रार्थना करना। नहीं, उसे यहां से भागना ही होगा, हर कीमत पर। मौना ने सोचा। कहां जाएगी? कहीं भी। उसकी कोख में अब उसका अपना बच्चा है। वह अपने बच्चे को नहीं छोड़ेगी। कभी नहीं।
बस से उतर कर घर में प्रवेश करने के बाद से मौना कभी घर के बाहर निकली ही नहीं थी। उसे बस-अड्डे का रास्ता भी ठीक से पता नहीं था। बाहर निकलते ही सब का ध्यान उस पर जाएगा और लोग उसे जाने नहीं देंगे। जैसे-जैसे दिन व्यतीत होने लगे, मौना की छटपटाहट बढ़ने लगी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस नरक से कैसे भागे? अंतत: उसने उस दाई का सहारा लेने का निश्चय किया जो उसका गर्भ जांचने दो-तीन बार आ चुकी थी। मौना ने पेट दर्द के बहाने दाई को बुलवाया और जांच के दौरान एकांत पाते ही दाई के पैर पकड़ लिए। मौना का भाग्य अच्छा था कि बूढ़ी दाई का मन पसीज गया। या फिर इससे बड़ा कारण यह था कि बूढ़ी दाई को गांव में चल रहे इस धंघे का पता था। या फिर कोई और कारण था तो वह स्वयं ही जानती होगी।
बूढ़ी दाई ने ही तय किया कि जिस दिन गांव के मंदिर में भंडारा होगा उस दिन मौका मिलते ही वह मौना को बस पकड़वा देगी। बूढ़ी माई अपनी बात की पक्की निकली। भंडारे वाले दिन परिवार के सभी लोग मुफ़्त का भोजन करने मंदिर गए। बाहर से घर की सांकल लगा गए थे। मगर बूढ़ी दाई ने ऐन बस छूटने के समय सांकल खोली और मौना की मुट्ठी में बीस रुपए का नोट थमाते हुए उसे बस में घुसा दिया। बस चल पड़ी और मौना थर-थर कांपती रही। कंडक्टर आया। ‘कहां जाना है?’ उसने मौना से पूछा और पैसे के लिए अपना हाथ बढ़ाया। ‘सागर बस-अड्डा़..’ मौना ने अटकते हुए कहा। ‘हां-हां, बस-अड्डे पर ही उतारुंगा! जाने कहां-कहां से चले आते हैं नमूने! लाओ पैसे दो! पन्द्रह रुपए।’ कंडेक्टर ने मसखरी करते हुए पैसे मांगे। मौना ने घबरा कर बीस का नोट उसे थमा दिया। ‘खुल्ले देता हूं अभी!’ कहते हुए कंडक्टर ने एक कागज का टुकड़ा मौना के हाथ पर रखा और आगे बढ़ा। मौना को समझ में नहीं आया कि टिकट के पन्द्रह रुपए की थी या बीस की? यात्रियों से ठसाठस भरी उस बस में कंडक्टर खड़े हुए यात्रियों को धकियाते हुए बढ़ा। मौना ने अपने पेट को बचाने का प्रयास किया। कंडक्टर उसकी पीठ पर हाथ रखता हुआ आगे बढ़ गया। विचित्र लगा मौना को। घर में उसका पति और जेठ दोनों की मनचाहे ढंग से उसके शरीर को रौंदते थे फिर भी एक अपरिचित का स्पर्श उसके भीतर की स्त्री को चौंका गया।
बस से उतरने के पहले कंडेक्टर ने उसे पांच रुपए लौटा दिए थे। यह पांच रुपए ही उसकी कुल सम्पत्ति थे। उसने सहेज कर अपनी साड़ी के पल्लू में बांध लिया। ‘सागर में बस अड्डे पे उतर के टेशन चली जइयो!’ बूढ़ी दाई ने समझाया था। ‘टेशन’ मौना को समझ में नहीं आया था। मगर उसे लग रहा था कि वह दौड़ कर उसी रेलगाड़ी में बैठ जाए जिस में बैठ कर वह अपने पिता के घर से सागर तक आई थी। सागर में बस अड्डे पर उसने ‘रेल’, ‘रेल’ कह कर पूछना शुरु किया। कुछ ने सिर झटक कर अनसुना कर दिया। कुछ ने बताया। फिर इसी तरह रास्ता पूछती-पूछती रेलवे स्टेशन पहुंच गई। किस रेल में उसे चढ़ना है? कहां जाना है? उसे पता नहीं था। बहुत देर तक वह प्लेटफार्म पर डोलती रही। गला सूखने लगा तो पांनी की टंकी के पास पहुंच कर गला तर किया। भूख उसे नहीं लगी थी, लेकिन उसे ध्यान आया कि कहीं उसके गर्भ का शिशु भूखा न हो? एक अबोध मां अपने सहज ज्ञान से अपने गर्भस्थ शिशु की आवश्यकताएं भांपने लगी। मौना ने दो रुपए का केला खरीदा और खा लिया। प्लेटफार्म पर लाइटें जल गई थीं। चहल-पहल बढ़ गई थी कि फिर एक रेल आई। भीड़ का एक रेला उसमें से उतरा और दूसरा चढ़ने लगा। मौना भी धक्का-मुक्की करती हुई जा चढ़ी। उस समय उसके मन में बस दो ही इच्छाएं बलवती थीं कि एक तो इस भीड़ की धक्का-मुक्की में उसका गर्भ सुरक्षित रहे और दूसरी कि वह यहां से बहुत दूर चली जाए। टिकट भी लेना पड़ता है, यह मौना को पता नहीं था। बेटिकट यात्रा करने वालों को मिलने वाली सज़ा की सभी लिखित सूचनाएं अनपढ़ मौना के लिए व्यर्थ थीं। रेल के डब्बे के फर्श पर बैठते ही मौना की आंखों में आंसू छलछला गए। उसे लगा जैसे अब वह अपने पिता के घर, अपने लोगों के बीच पहुंच जाएगी। इस छलिया आशा ने उसकी आंखों में और आंसू उड़ेल दिए। उन आंसुओं में मां-बाप और भाई-बहन की छवियां भी थीं जिनसे वह शायद कभी नहीं मिल सकेगी।
बाबू कैसे होंगे? उसे याद करते होंगे? उसने अपने पिता के बारे में सोचा। मां कैसी होगी? वह याद करती होगी? क्या अभी वे रुपए बचे होंगे जो उसके ब्याह में उसके मां-बाप को दिए गए थे? दोनों बड़ी बहनों के ब्याह में मिले रुपयों से मां ने तीन माह घर चलाया था। .और कला? क्या वह भी अब तक ब्याह दी गई होगी? मौना को अपनी तीसरी बड़ी बहन की याद आई। ‘ब्याह?’ इसी तरह का ब्याह? जैसा उसका खुद का हुआ? उस गांव में  कौन जाने उस गांव में मौना की झुग्गी-बस्ती की और लड़कियां भी रही हों? कौन जाने मौना की दोनों बड़ी बहनें भी उसी गांव के किन्हीं घरों में..धक से रह गया मौना का दिल। मौना देर तक रोती रही और उसके आस-पास बैठे लोग नाक-भौंह सिकोड़ कर उसे देखते रहे। किसे परवाह कि बुन्देलखण्ड के गांवों में क्या चल रहा है..किसे परवाह कि भरपेट भात के लिए ओडिशा में बेटियां बिक रही हैं..किसे परवाह कि यह रोती हुई गर्भवती औरत मौना कहां से भाग कर आ रही है और अब कहां जाएगी..।=

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