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कौन हैं यूपी BJP अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य, क्यों खेला पार्टी ने इतना बड़ा दांव?

एजेन्सी/ s-1नई दिल्ली। बीजेपी ने यूपी में अब तक का सबसे बड़ा चुनावी दांव खेलते हुए लक्ष्मीकांत वाजपेयी की जगह कभी चाय बेचने वाले एक प्रमुख ओबीसी चेहरे केशव प्रसाद मौर्य को उत्तर प्रदेश इकाई का जिम्मा सौंपते हुए प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है। गौरतलब है कि मौर्य शुरू से ही आरएसएस से जुड़े रहे हैं। बीजेपी की इस रणनीति से साफ है कि यूपी में बीजेपी की रणनीति गैर यादव पिछड़ों को एकजुट करने की है इसीलिए केशव प्रसाद मौर्या को आगे किया गया है।

यूपी में तमाम नेताओं के नामों के बीच जिस प्रकार राज्य की कमान फूलपुर से सांसद केशव प्रसाद मौर्य को दी गई है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार बीजेपी यूपी में लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराना चाहती है। कहा तो यह भी जा रहा है कि हिंदूत्व को मुद्दे को बढावा देने के लिए ही इस घोषणा के लिए हिंदू नव वर्ष विक्रम संवत 2073 के पहले दिन तक इंतज़ार किया गया।

इन सबके बावजूद यूपी के राजनीतिक पटल पर उनकी बड़ी पहचान नहीं है और ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि मौर्य बीजेपी की तरफ से सीएम पद के उम्मीदवार नहीं हों सकते।

47 साल के केशव प्रसाद मौर्य जिस फूलपुर से पार्टी के सांसद हैं, वहीं से जहां एक तरफ तीन बार देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चुनाव जीते तो दूसरी तरफ पूर्वांचल के बाहुबली अतीक अहमद जैसे बाहुबली भी। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में मौर्य ने तीन लाख वोटों से क्रिकेटर मोहम्मद कैफ को हराकर इस सीट को कब्जे में लिया।

कौन हैं केशव प्रसाद मौर्य-

कौशाम्बी में किसान परिवार में पैदा हुए केशव प्रसाद मौर्य के बारे में कहा जाता है कि उन्होने संघर्ष के दौर में पढ़ाई के लिए अखबार भी बेचे और चाय की दुकान भी चलाई। चाय पर जोर देने का कारण साफ है कि कहीं न कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इससे जुड़ाव रहा है, ऐसे में सहानुभूति मिलना तय है। मौर्य आरएसएस से जुड़ने के बाद वीएचपी और बजरंग दल में भी सक्रिय रहे। हालांकि हलफनामे के मुताबिक आज की स्थिति काफी अलग है। उनके और उनकी पत्नी के पास करोड़ों की संपत्ति है। हलफनामे के अनुसार आज केशव दंपती पेट्रोल पंप, एग्रो ट्रेडिंग कंपनी, कामधेनु लाजिस्टिक आदि के मालिक हैं और साथ ही जीवन ज्योति अस्पताल में दोनों पार्टनर हैं। सामाजिक कार्यो के लिए कामधेनु चेरिटेबल सोसायटी भी बना रखी है।

हिंदुत्व से जुड़े राम जन्म भूमि आंदोलन, गोरक्षा आंदोलनों में हिस्सा लिया और जेल गए। इलाहाबाद के फूलपुर से 2014 में पहली बार सांसद बने मौर्या काफी समय से विश्व हिंदू परिषद से जुड़े रहे हैं। ऐसे में कोई दो राय नहीं कि मौर्या का चयन आरएसएस के इशारे पर किया गया है। इन सबके बावजूद यूपी के राजनीतिक पटल पर उनकी बड़ी पहचान नहीं है और ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि मौर्य बीजेपी की तरफ से सीएम पद के उम्मीदवार नहीं हों सकते। अखिलेश यादव और मायावती जैसे बड़े चेहरों के सामने इस तरह के लो प्रोफाइल चेहरे को उतारना खतरे से खाली नहीं होगा।

क्या कहता है जातिगत समीकरण

मौर्य कोइरी समाज के हैं और यूपी में कुर्मी, कोइरी और कुशवाहा ओबीसी में आते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के साथ अन्य चुनावों में भी बीजेपी को गैर यादव जातियों में इन जातियों का समर्थन मिलता रहा है और यही वजह है कि पार्टी ने पिछड़ी जातियों को अपने समर्थन का संदेश भी दे दिया है। अगर राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो साफ है कि बीजेपी को यूपी की सत्ता तक पहुंचने के लिए अगड़े-पिछड़े दोनों का समर्थन जरूरी होगा और ऐसे में जातीय संतुलन बनाने के लिए बीजेपी सीएम उम्मीदवार के लिए किसी सवर्ण का नाम घोषित कर सकती है।

पार्टी ने ज़िला और मंडल स्तर पर भी बड़ी संख्या में ओबीसी नेताओं को कमान दे दिया है। जाहिर है पार्टी इस कदम से न सिर्फ सामाजिक समीकरणों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है बल्कि यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि इस चुनाव में एक बार फिर हिंदुत्व का मुद्दा उछाल सकती है।

मौर्य पर दर्ज हैं कई आपराधिक मामले

मौर्य पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं। लोकसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग को दिए हलफनामे से साफ है कि उन पर दस गंभीर आरोपों में मामले दर्ज हैं। जिसमें 302 (हत्या), 153 (दंगा भड़काना) और 420 (धोखाधड़ी) जैसे आरोप भी शामिल हैं। मौर्या2011 में मोहम्मद गौस हत्याकाण्ड में भी आरोपी हैं और इसके लिए वे जेल भी जा चुके हैं। हालांकि‍ इस केस में वे बरी हो चुके हैं।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

कुछ राजनीतिज्ञ विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में मायावती को टक्कर देने के लिए भारतीय जनता पार्टी को किसी पिछड़े या दलित चेहरे को आगे लाएगी और सवर्ण चेहरा उसके लिए जिताऊ नहीं हो सकता है। कहा जाता है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में बीजेपी को हिंदुत्व के साथ पिछड़े वर्ग का साथ बढ़त की ओर ले जाता है। यूपी में कल्याण सिंह हो या एमपी में उमा भारती, इसी संयोजन के तहत आगे बढ़े हैं। शिवराज सिंह चौहान भी इसी फेहरिस्त को आगे बढ़ाते हैं। यही नहीं पीएम मोदी भी हिंदुत्व, पिछड़ा और चाय के संयोग से ही सत्ता पर काबिज हुए थे। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि बीजेपी ने अपना पूरा ध्यान अब सोशल इंजीनि‍यरिंग पर दे दिया है। बीजेपी अपने एजेंडे के तहत दलितों को  पार्टी से जोड़ना चाहती है। अगर इतिहास की बात करें तो पिछले तीन यूपी अध्यक्ष सवर्ण जाति के थे और विधानसभा चुनाव में कुछ ख़ास नहीं कर पाए थे। ऐसे में पार्टी ने पिछड़ी जाति के नेता पर दांव लगाया है।

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कैसा रहा राजनीतिक करियर

जहां तक राजनीतिक करियर का सवाल है तो विश्व हिंदू परिषद से जुड़े केशव 18 साल तक गंगापार और यमुनापार में प्रचारक रहे।2002 में शहर पश्चिमी विधानसभा सीट से उन्होंने बीजेपी प्रत्याशी के रूप में राजनीतिक सफर शुरू किया लेकिन बसपा प्रत्याशी राजू पाल के हाथों हार का सामना करना पड़ा। लेकिन मौर्य के लिए हार का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ, 2007 के चुनाव में भी उन्होंने इसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और एक बार फिर हार का मुंह देखना पड़ा। लेकिन आखिरकार 2012 के चुनाव में उन्हें सिराथू विधानसभा सीट से भारी जीत मिली। दो साल तक विधायक रहने के बाद 2014 लोकसभा चुनाव में पहली बार फूलपुर सीट पर बीजेपी का झंडा फहराया।

मोदी ने नोएडा रैली में दिए थे संकेत

बीजेपी ने दलित की ओर झुकाव का संकेत नोएडा में आयोजित जनसभा में एक तीर से दो निशाने साधते हुए दे दिया था। स्टैंडअप इंडिया को लांच करने के साथ ही दलितों को अपने साथ मिलाने का पांसा फेंकते हुए पीएम मोदी ने साल भर पहले चुनावी बिगुल भी फूंक दिया। उन्होंने इस योजना के तहत दलितों को बढ़ावा देने के लिए हर बैंक ब्रांच से उस एरिया के दलित परिवार को 10 लाख रुपए से एक करोड़ रुपए तक का लोन देने की घोषणा की। इस घोणषा से साफ है कि पीएम नहीं चाहते कि दलित वोट लोकसभा चुनाव की तरह बीजेपी को मिले न कि दोबारा से छिटककर बसपा की ओर डायवर्ट न हो जाएं।

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यही कारण है कि मोदी ने दलित नेता और पूर्व रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम को उनकी जयंती पर याद किया। इससे एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की गई है और इसी के तहत बसपा सुप्रीमो मायावती की सीधी टक्कर बीजेपी से है और ऐसे में बीजेपी ने इसकी शुरुआत मायावती के गृह जनपद नोएडा से ही कर दी। बसपा का कैडर वोट अगर बीजेपी की ओर झुकता है तो यह साफ है कि यूपी की सत्ता तक पहुंचना मुश्किल नहीं होगा और 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराया जा सकेगा।  लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 80 में से 73 सीटें बीजेपी गठबंधन को मिली थी जबकि राज्य विधानसभा (2012) में उसके 403 विधानसभा सीटों में से केवल 47 विधायक हैं।

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