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खेतों में पराली जलना गैरकानूनी, पराली जलने से दिल्ली में प्रदूषण रिकॉर्ड स्तर पर

नई दिल्ली: दिल्ली-एनसीआर पर प्रदूषण का हवाई हमला शुरू हो चुका है। राजधानी में हर साल की तरह इस बार भी पराली (फसल की खूंट) का धुआं दिखने लगा है। हरियाणा और पंजाब में किसानों के पराली जलाना शुरू करने के साथ ही इसका खतरनाक धुआं दिल्ली को अपने आगोश में लेने लगा है। शनिवार को भी दिल्ली की हवा की गुड़वत्ता खराब होने के पीछे यही कारण बताया जा रहा है। शनिवार सुबह दिल्ली के आनंद विहार में प्रदूषण की मात्रा 699 मापी गई। साथ ही पंजाबी बाग में यह मात्रा 307 रही। धुएं से अगले कुछ दिनों में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और आसपास के इलाकों में लोगों के लिए सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। सवाल उठ रहे हैं कि क्या सरकार इस बार भी पिछले साल की तरह देखती रहेगी और दिल्ली के ऊपर धुएं की चादर छाने के बाद हवा में हाथपैर मारेगी? याद कीजिए पिछले साल 2017 की दीपावली, जब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद केन्द्र सरकार ने पटाखों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस प्रतिबंध के वक्त दावा किया गया कि दीपावली के पटाखों से राष्ट्रीय राजधानी का वातावरण बुरी तरह प्रदूषित हो जाता है और इसका खामियाजा इन पड़ोसी राज्यों समेत राष्ट्रीय राजधानी की करोड़ों की आबादी को उठाना पड़ता है। 2017 में प्रतिबंध के साए में पटाखे नहीं फोड़े गए लेकिन इसके बावजूद राष्ट्रीय राजधानी और आसपास के राज्यों को प्रदूषण के प्रकोप से नहीं बचाया जा सका। पटाखों पर प्रतिबंध इसलिए लगाया गया जिससे यह पता चल सके कि आखिर पटाखों से कितना प्रदूषण वातावरण में मिल रहा है। सर्वे में हैरान करने वाले तथ्य सामने आए कि उत्तर भारत के प्रदूषण का असली विलेन पटाखे नहीं बल्कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में जलाई जाने वाली पराली है। वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शुक्रवार को आरोप लगाया कि दिल्ली सरकार द्वारा पराली जलाने का मुद्दा बार-बार उठाए जाने के बावजूद केंद्र सरकार, हरियाणा और पंजाब सरकार ने इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए। उन्होंने आशंका जताई कि ठंड का मौसम आते ही फिर से दिल्ली समेत यह पूरा क्षेत्र “गैस चैंबर” बन जाएगा और लोगों को “सांस लेने में कठिनाई” का सामना करना पड़ेगा। केजरीवाल ने ट्वीट किया, ‘‘हम केंद्र, हरियाणा और पंजाब सरकारों के साथ इस मामले को उठाते रहे हैं, फिर भी अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। किसान फिर से असहाय हो गए हैं। दिल्ली समेत पूरा क्षेत्र फिर से गैस चेंबर बन जाएगा। लोगों को फिर से सांस लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। यह अपराध है।” इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएआरआई) के एक दशक पहले दिए आंकड़ों के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली का वातावरण पराली जलाने से लगभग 150 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड, 9 मिलियन टन कार्बन मोनोऑक्साइड व 0.25 मिलियन टन बेहद जहरीली ऑक्साइड ऑफ सल्फर से भर जाती है। आईएआरआई का दावा है कि दिल्ली में प्रदूषण के अन्य स्रोत जैसे गाड़ियां, फैक्ट्रियां और कूड़ा जलाने से लगभग 17 गुना अधिक प्रदूषण महज अक्टूबर-नवंबर के दौरान उत्तर भारत में पराली जलाने से होता है। पराली जलाने से कॉर्बन डाइऑक्साइड का संचार अन्य प्रदूषण स्रोतों से लगभग 64 गुना अधिक होता है। पराली जलाने की परंपरा भारत में नई नहीं है। एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा 2014 में एकत्र किए गए आंकड़ों के मुताबिक 2008-09 के दौरान देश में फसल की कटाई के बाद लगभग 620 मिलियन टन पराली खेतों में बची। इसमें से लगभग 16 फीसदी पराली को खेतों में जला दिया गया जिसमें लगभग 60 फीसदी पराली धान की थी और महज 22 फीसदी पराली गेहूं की थी। कृषि विभाग के अनुमान के मुताबिक अकेले पंजाब में 20 मिलियन टन धान और 20 मिलियन टन गेहूं की पराली खेतों में बच रही है। पंजाब और हरियाणा में पराली के जलाए जाने के कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) दिल्ली और आसपास के इलाकों में हवा की गुणवत्ता पिछले सप्ताह बुधवार को लगातार तीसरे दिन खराब रही थी। केन्द्रीय वायु गुणवत्ता एवं मौसम पूर्वानुमान शोध केन्द्र (सफर) के वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) के अनुसार दिल्ली में हवा की गुणवत्ता का स्तर बुधवार को शाम चार बजे 239 तक पहुंच गया था। इसे हवा की खराब श्रेणी में रखा जाता है। किसानों द्वारा पराली जलाने का काम आमतौर पर खरीफ की फसल के बाद किया जाता है क्योंकि रबी फसल में निकलने वाली पराली से जानवरों के लिए भूसा और चारा तैयार किया जाता है.।यह किसानों के लिए अतिरिक्त आय का साधन बनता है। खरीफ फसल तैयार होने के बाद अगली बुआई के लिए उत्तर भारत में किसानों के पास महज 15 से 20 दिन का समय रहता है। जहां एक तरफ इस समय में उसे त्योहार भी मनाना है, उसे अगली बुआई के लिए खेत को तैयार भी करना है। ऐसे में कृषि जानकारों का दावा है कि इन राज्यों में लगभग 80 फीसदी किसान अपने खेत में पड़ी पराली को जला देते हैं।
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सूचकांक पर हालांकि मंगलवार को इसका स्तर 256 था। इसमें बुधवार को मामूली सुधार दर्ज किया गया। सूचकांक पर शून्य से 50 अंक तक वायु गुणवत्ता को ‘अच्छा’, 51 से 100 तक के स्तर को ‘संतोषजनक’, 101 से 200 तक के स्तर को ‘मध्यम’ श्रेणी, 201 से 300 तक के स्तर को ‘खराब’, 301 से 400 तक के स्तर को बहुत खराब और 401 से 500 तक के स्तर को ‘गंभीर’ श्रेणी में रखा जाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वायु गुणवत्ता संबंधी आंकड़ों के अनुसार गाजियाबाद और गुरुग्राम में भी 10 अक्टूबर को हवा की गुणवत्ता खराब बनी रही। वायु गुणवत्ता सूचकांक पर गाजियाबाद 233 और गुरुग्राम 243 के स्तर पर थे। वायु प्रदूषण के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार पीएम 10 और पीएम 2.5 की मौजूदगी क्रमश: 224 और 102 के स्तर पर पहुंच गई थी। वायु प्रदूषण के स्तर में इजाफे का कारण हवा के रुख में बदलाव और पंजाब एवं हरियाणा में किसानों द्वारा पराली जलाए जाने की घटनाओं में बढ़ोतरी को बताया जा रहा है। केंद्र सरकार ने दिल्ली के पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा से 11 अक्टूबर को अपील की कि वे प्रदूषण नियंत्रित करने की दिशा में धान की पराली जलाये जाने से रोकने के लिए पूरी गंभीरता तथा जिम्मेदारी से काम करें। केंद्रीय पर्यावरण, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि केंद्र सरकार हर स्तर पर मामले की निगरानी कर रही है। उन्होंने कहा कि मंत्रालय ने राज्यों के मंत्रियों और अधिकारियों से इस बारे में बैठकें की हैं और किसानों को जरूरी उपकरण 15 अक्टूबर तक वितरित करने को कहा है। केन्द्र सरकार के सामने पड़ी एक अन्य रिपोर्ट का दावा है कि पराली जलाने से पंजाब के किसानों को प्रतिवर्ष 800 से 2000 करोड़ रुपये का न्यूट्रीश्नल लॉस और 500 से 1,500 करोड़ रुपये का नुकसान नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश फर्टिलाइजर पर खर्च के जरिए हो रहा है। इस समस्या के प्रभाव क्षेत्र में यदि राज्यों की जनसंख्या को देखें तो उत्तर प्रदेश (20 करोड़), राजस्थान (6.8 करोड़), दिल्ली एनसीआर(5 करोड़), पंजाब (2.8 करोड़) और हरियाणा (2.5 करोड़) में कुल जनसंख्या लगभग 37 करोड़ है। इस जनसंख्या की आधी जनसंख्या पराली से हो रहे प्रदूषण से सीधे प्रभावित होती है। यानी देश की 15-16 करोड़ की जनसंख्या को विषाक्त वायु से बचाने के लिए सरकार को लगभग 3,200 करोड़ रुपये खर्च करना है। प्रति व्यक्ति ये खर्च तकरीबन 200 रुपये प्रतिवर्ष बैठता है। क्या ये कीमत इतनी ज्यादा है कि सरकार आम आदमी को जहरीले धुएं से बचाने के लिए इसे नहीं चुका सकती? ये सवाल दिल्ली-एनसीआर के आसमान में छा रहे जहरीले बादलों की तरह गहरा होता जा रहा है।

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