संपादकीय

ज्यादा चौकस रहने की जरूरत

अमरनाथ यात्रा साल में एक बार होने वाली ऐसी तीर्थयात्रा है जिसे तमाम भारतीय अपने जीवन में कम से कम एक बार जरूर करना चाहते हैं। यह यात्रा कश्मीर के गगनचुंबी पर्वतों से गुजरती है। अमरनाथ गुफा पहाड़ों की गोद में एक कंदरा है जहां बर्फ की एक शिला स्वाभाविक रूप से एक खास आकृति ग्र्रहण कर लेती है। परंपराओं में यह माना गया है कि यह आकृति हिंदुओं के आदि देव भगवान शिव के लिंग का प्रतीक है। श्रुतियों के अनुसार यही वह गुफा है जहां भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरता की कहानी सुनाई थी। लिंग के रूप में आकार लेनी वाली हिमशिला गर्मियों के अधिकांश दौर में उसी रूप में बरकरार रहती है। प्रत्येक वर्ष जुलाई से अगस्त के बीच तकरीबन तीन लाख तीर्थयात्री हजारों किलोमीटर दूर से चलकर आते हैं। 2011 में तो तीर्थयात्रियों का आंकड़ा 6,40,000 के स्तर को छू गया था, लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट आती गई। पवित्र गुफा का मार्ग बेहद दुर्गम है।

यूं तो यात्रा पूरी तरह हिंदू धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है, लेकिन इसकी जड़ें बहुत समावेशी हैं। इस चुनौतीपूर्ण यात्रा के लिए तमाम जरूरी बंदोबस्त मुख्य रूप से कश्मीरी मुसलमानों द्वारा ही किए जाते हैं। उनमें से तमाम भगवान शिव के प्रति श्रद्धाभाव रखते हैं। इस यात्रा से तमाम कश्मीरी घरों की आजीविका चलती है और यह राज्य की पर्यटन अर्थव्यवस्था का एक अहम अंग है। यात्रा के लिए जम्मू से सड़क मार्ग के जरिये लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। फिर पहलगाम (चंदनबाड़ी) या बालटाल में पड़ाव डालना होता है। उसके बाद पवित्र गुफा की यात्रा आरंभ होती है। 

राज्य में पिछले 28 वर्षों से पाकिस्तान द्वारा थोपे गए छद्म युद्ध ने धर्मों के बीच अविश्वास की विभाजन रेखा खींच दी है। पाकिस्तान की मंशा यह है कि भारत की समावेशी संस्कृति में दरार पैदा कर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना को तार-तार किया जाए। सहिष्णु और समावेशी देश के रूप में भारत की ताकत उस पाकिस्तान की आंखों में हमेशा से ही खटकती आई है जिसकी खुद की संस्कृति महज इस्लाम पर आधारित है। ऐसे में वह आतंक और दुष्प्रचार के जरिये सांप्रदायिक बैर पैदा करने के अपने खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने की फिराक में लगा रहता है। अमरनाथ यात्रा भारत विरोधी तत्वों के लिए अपनी स्वार्थसिद्धि का एक बड़ा जरिया है। छह से आठ हफ्तों के दौरान श्रद्धालुओं का भारी जमावड़ा और जम्मू से लेकर प्रथम पड़ाव तक पहुंचने के बीच उन्हें कहीं भी निशाना बनाया जा सकता है। 

इसके बाद 48 किलोमीटर की लंबी पैदल यात्रा में कई विश्राम स्थल बने हुए हैं जहां आतंकी पहाड़ की चोटियों से या सुरक्षा घेरे में सेंध लगाकर श्रद्धालुओं को निशाना बना सकते हैं। खतरनाक विस्फोटक और हथियारों के दम पर आतंकी इस रास्ते में कहीं भी बड़ी संख्या में लोगों को मार सकते हैं। इस यात्रा के प्रबंधन में तमाम बारीकियों का खयाल रखना पड़ता है, लेकिन इनमें सबसे अहम सुरक्षा का सवाल ही है। इससे पहले इस यात्रा पर वर्ष 2000 में हमला हुआ था। तब लश्कर के आतंकियों ने पहलगाम के यात्री शिविर पर कहर बरपाया था जिसमें तमाम लोग हताहत हुए थे। 2016 से यहां भारत विरोधी तत्वों ने हिंसा को और ज्यादा बढ़ाया है और इसके जरिये वे भारत की समावेशी तस्वीर को बदरंग करने की जुगत में लगे हैं। 

2016 से कश्मीर घाटी में छद्म युद्ध के बदले ढांचे के बाद यह बात देखने को मिली है कि हिंसा के जरिये ध्यान आकर्षित करने के लिए आतंकी किसी भी हद तक जाने और कोई भी तरीका अपनाने पर आमादा हैं। निहत्थे पुलिसकर्मियों के अलावा छुट्टियां मनाते स्थानीय फौजियों को भी आतंकी निशाना बनाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। मनोवैज्ञानिक लाभ और कश्मीर सहित पूरे देश में विभाजनकारी एजेंडे को मूर्त रूप देने के लिए आतंकियों को अमरनाथ यात्रियों को निशाना बनाने में भी कोई संकोच नहीं। बीती 10 जुलाई को भी किया गया हमला पूरी तरह सोच समझकर ही अंजाम दिया गया। इस दिन दर्शन कर बालटाल शिविर से लौट रही यात्री बस पर धावा बोला गया। बस सुरक्षा घेरे यानी एस्कार्ट वाले यात्री जत्थे का ही हिस्सा थी, लेकिन टायर पंक्चर होने की वजह से कुछ पीछे रह गई थी। तब तक सड़क सुरक्षा हटा ली गई थी। सुरक्षा में स्वाभाविक रूप से चूक हुई। इससे पहले कि एस्कार्ट की ओर से जवाबी कार्रवाई होती, आतंकियों ने अपना मंसूबा पूरा कर लिया। यह हमला यात्रा के समक्ष चुनौतियों को रेखांकित करता है। 

अब यह जरूरी है कि सुरक्षा बलों में इसे लेकर जागरूकता बढ़ाई जाए कि आतंकी कैसे तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं? यहां तैनात तमाम सुरक्षा बल घाटी से बाहर के होते हैं। वे यहां के हालात और अतीत के हमलों से भलीभांति परिचित नहीं होते। यह भी देखना होगा कि सुरक्षा को लेकर लापरवाही बर्दाश्त न हो। यह नहीं होना चाहिए कि सड़क सुरक्षा घेरा हटने के बाद भी यात्री वाहन दौड़ते रहें। तमाम लोग नियमों का मखौल बनाते हैं, लेकिन उन्हें आसान निशाना बनने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। सुरक्षा बलों को ऐसे यात्रियों के लिए भी कोई मुस्तैद योजना बनानी होगी जो यात्रा के लिए अपनी जान भी जोखिम में डालने की परवाह नहीं करते। चूंकि आतंकियों और अन्य भारत विरोधी तत्वों के पास सोशल मीडिया के रूप में एक और हथियार आ गया है ऐसे में हमें और ज्यादा चौकस रहने की जरूरत है ताकि नफरत का पैमाना और ज्यादा न बढ़ने पाए। हालांकि सुकून देने वाली बात यह रही कि इस हमले के बाद जहरीली प्रतिक्रियाएं कम ही आईं। इस तरह राजनीतिक सहमति भले ही अस्थाई हो, लेकिन इस तबके ने भी आतंकियों और उनके आकाओं की मंशा को सिरे नहीं चढ़ने दिया। यहां तक कि अलगाववाद की आंधी की गहरी चपेट में आई कश्मीर घाटी में भी इस बर्बर हमले की चौतरफा निंदा ही हुई। इसने शेष भारत में बने बेहद तल्ख माहौल को कुछ नरम किया। मौजूदा दौर में जनमत का थर्मामीटर बने सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं काफी परिपक्व एवं संयमित थीं और उनमें किसी धर्म विशेष को निशाना बनाने के बजाय हमले की निंदा पर ही पूरा ध्यान था। नेताओं की ओर से सही शब्दों के चयन ने भी शांति बनाने में अहम भूमिका निभाई। 

अमरनाथ यात्रा अभी मध्य अगस्त तक चलेगी। यात्रियों की सुरक्षा ऐसा मसला है जिसमें कभी भी शत-प्रतिशत सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता, फिर भी उसे पुख्ता बनाने के लिए सभी पक्षों को समवेत प्रयास करने होंगे। अब लड़ाई की रणनीति का स्तर बहुत नीचे गिर गया है और सुरक्षाकर्मी इससे वाकिफ नहीं कि असल खतरा मदद के बजाय तंत्र में अवरोध से जुड़ा है। चीन और पाकिस्तान सीमा पर लगातार भारत की परीक्षा लेने की कोशिश में जुटे हैं। भारत की जनता और राजनीतिक परिपक्वता से उन्हें अपने मंसूबों की नाकामी का सख्त संदेश मिलना चाहिए। इस हमले के बाद भारत को और चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा। 

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