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‘पहियों वाली झोपड़ी’, नाम है- कला की नई डगर

लखनऊ : राजधानीवासियों को लुभा रही है चार पहियों वाली झोपड़ी। लखनऊ की सड़कों पर चार पहियों वाली एक झोपड़ी दौड़ती है। इस झोपड़ी की देखरेख अनिल देववंशी के हवाले है। शहर की चकाचौंध भरी जिंदगी में यह चलती-फिरती झोपड़ी लोगों को हैरान करती है। लोग इसके करीब जाते हैं और तस्वीरें खींचते हैं। इस झोपड़ीनुमा गाड़ी के मालिक मनोज कुमार एक एनजीओ चलाते हैं। मनोज की इस झोपड़ी में स्टीयरिंग और ड्राइविंग सीट भी है। वह कहते हैं कि इस गाड़ी को बनाने का मकसद गांव और व्यापार है। गाड़ी के किनारों पर लालटेन लगाई गई हैं। आइने के छोटे-बड़े टुकड़ों से गाड़ी को सजाया गया है। इस झोपड़ी वाली गाड़ी में मात्र दो सीटें हैं, पहली तो ड्राइवर के लिए, दूसरी बगल के सहयोगी के लिए। पीछे व्यापार का सामान रखा जाता है। गाड़ी मालिक मनोज कुमार कहते हैं, ‘शहर की चकाचौंध में गांव गुम होते जा रहे हैं। नौकरी के नाम पर गांव से लोग पलायन करते हैं। रोटी-रोजी के लिए शहर में आशियाना बसाते हैं और गांव को भूल जाते हैं। शहर आकर भी कुछ ज्यादा तरक्की नहीं होती। हां, बाजार बड़ा मिल जाता है। गली-मोहल्लों में फेरीवाले ठेले पर कई बार पलायन कर शहर पहुंचे लोग ही सामान बेचते हैं। इन दोनों ही बातों को ध्यान में रखकर हमने एक बिजनस को गांव से जोड़ने की ठान ली थी।

इस गाड़ी में मनोज के साथी अनिल देववंशी अमेरिकन डायमंड वाले नेकलेस से लेकर मोती से बनी माला तक सबकुछ रखते हैं। अनिल कहते हैं, ‘महीने में तकरीबन 15 से 20 हजार की आमदनी हो जाती है। हां, धंधा अभी नया है तो सारा खर्च शुरुआत में नहीं निकल पाता है।’ गाड़ी मालिक मनोज कहते हैं, ‘इस गाड़ी से एक परिवार का खर्च चल जाता है। अनिल देववंशी को हम 9 हजार रुपये देते हैं। उनके परिवार में उनकी मां, दो बच्चे और पत्नी हैं।’ मनोज बताते हैं, ‘यह झोपड़ी नवंबर (2018) में मारुति वैन से तैयार की गई थी। इसे बनाने में एक महीने का समय लगा था। इसमें मारुति के अलावा एक लाख रुपये और खर्च हुआ। इसे डिजाइन प्रफेसर धर्मेंद्र कुमार ने किया था। लोग इस झोपड़ी वाली गाड़ी की तरफ आसानी से आकर्षित होते हैं, खरीददारी करने पहुंचते हैं, जिससे एक परिवार का खर्च निकल आता है।’ मनोज ने इस गाड़ी का नाम कला की नई डगर, फेरी कला रखा है। वह कहते हैं, ‘गांव एक कला है, इसकी आजकल एक बड़ी कीमत पर प्रदर्शनी लगाई जाती है।

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