दस्तक-विशेषस्तम्भ

मातृभाषा में होनी चाहिए शिक्षा

बृजनन्दन राजू

  • आखिर कब मिलेगी भाषाई दासतां से मुक्ति

स्तम्भ : देश को अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद शिक्षा के क्षेत्र में निश्चित ही भारत ने बहुत प्रगति की है। विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों की संख्या कई गुना बढ़ी है। लेकिन इसके बावजूद क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था संतोषजनक है? क्या आज देश के शिक्षण संस्थानों में जो शिक्षा दी जाती है वह भारत का समुत्कर्ष करने में सहायक है? क्या वह देश के लिए सुयोग्य नागरिक तैयार करने में सक्षम है? क्या वह विश्व के अन्य देशों के लिए अनुकरणीय है? उत्तर मिलेगा नहीं। क्योंकि आज की जो शिक्षा व्यवस्था है उसमें तमाम खामियां हैं। आजादी के 70 वर्ष बाद भी हम लार्ड मैकाले और मार्क्स पुत्रों की बनाई शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे हैं। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद जिनके हाथ में सत्ता की बागडोर आयी उनके दिलो दिमाग में भारत की शिक्षा को लेकर कोेई स्पष्ट कल्पना नहीं थी। आजादी के बाद सबसे पहला और प्रमुख कार्य शिक्षा पर होना चाहिए था जो नहीं हुआ। देश की सभी समस्याओं की जड़ में हमारी शिक्षा व्यवस्था है। मौजूदा समय में जो शिक्षा भारत के विद्यालयों में दी जा रही है, उसका उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं है और जब शिक्षा का उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं होगा तो वह शिक्षा राष्ट्र जीवन में बदलाव कैसे ला सकती है।

शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए। मातृभाषा में ही विद्यार्थी उन्नति कर सकता है। लेकिन आज भी चिकित्सा,प्रशासनिक कामकाज और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी है। आज भी उच्च शिक्षा,न्याय, सरकारी कामकाज और प्रतियोगी परीक्षाओं में हिन्दी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। अंग्रेजी के बिना कुछ हो ही नहीं सकता यह मानसिकता बन गयी है। आखिर इस भाषाई दासता से मुक्ति हमें कब मिलेगी? पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना कि मेरी गणित व विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में हुई।
दुनिया के कई देश हैं, जिन्होंने अंग्रेजी को तो अपनाया, लेकिन अपनी मातृ भाषा को सबसे ऊपर रखा। अन्य देशों की तरह हमें भी अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करना होगा। शिक्षा देश के प्रति गौरव का बोध कराने वाली होनी चाहिए हमारी पाठ्य पुस्तकों में ऐसी-ऐसी बातें हैं, जिनका हकीकत से दूर-दूर तक नाता नहीं है। इसलिए देश की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा क्षेत्र में बदलाव होना चाहिए। इसी उद्देश्य को लेकर केन्द्र सरकार नयी शिक्षानीति बना रही है। इस दृष्टि से शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का कार्य काबिले तारीफ है। आज जो सकारात्मक परिणाम शिक्षाक्षेेत्र में दिख रहा है उसके पीछे शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के कार्यकर्ताओं की तपस्या है। नई शिक्षा नीति में भारतीय इतिहास संस्कृति व वैदिक गणित के साथ—साथ भारत के मुख्यग्रन्थ रामायण महाभारत और उपनिषदों के सार को भी पाठ्यक्रम में जोड़ा जायेगा। क्योंकि यह हमारे ज्ञान की श्रेष्ठनिधियां हैं। जानबूझकर पाठ्यक्रम से इसे गायब किया गया। महापुरूषों को अपमानित करने वाले प्रसंगों को हटाया जायेगा और भारतीयता का बोध कराने वाले प्रसंगों को शामिल किया जायेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्पष्ट मत है कि किसी भी स्वतंत्र देश का कामकाज किसी भी विदेशी भाषा में नहीं चलाया जा सकता। भाषा के संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1958 की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में प्रस्ताव पास कर कहा कि जब तक भारत अपने साम्राज्य एवं राज्यव्यवहार के लिए अंग्रेजी का उपयोग करता रहेगा। वह मानसिक दासता से मुक्त नहीं हो सकता। उसके कारण शासन और जनता के बीच खाई बनी रहेगी। वहीं 1965 में भी संघ ने प्रस्ताव पास कर कहा कि देश का प्रशासन अपनी भाषा में चलाया जाय। विदेशी भाषा राष्ट्र की प्रतिभा को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। न ही उसके विकास में सहायक हो सकती है। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी देश प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर अंग्रेजी से हमारी भारतीय भाषाओं में सहज परिवर्तन के लिए तैयार नहीं है। आरएसएस ने सुझाव दिया था कि हिन्दी केन्द्र में और क्षेत्रीय भाषाएं अपने —अपने प्रान्त में प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयुक्त हो और सभी राष्ट्रीय भाषाएं केन्द्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं का माध्यम बनायी जायें। आज केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार है लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ।
भारत में करोड़ों लोग विभिन्न भाषाओं को प्रयोग अपनी —अपनी मातृभाषा के रूप में करते हैं। उनका समृद्ध साहित्य भी है फिर भी अंग्रेजी के आगे वह गौण है। भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाएं समान सांस्कृतिक विचारधारा और राष्ट्रीय आकांक्षाओं को व्यक्त करती हैं। भारत की सभी भाषाएं चाहे तमिल हों बंगला,पंजाबी या मराठी इन सभी भाषाओं के साहित्य में वेद उपनिषद में वर्णित विषय मिलेंगे। भगवान श्रीराम का जो चरित्र हमें बाल्मीकि की रामायण में मिलेगा वही तुलसी दास द्वारा रचित राम चरित मानस, राधेश्याम रामायण,तत्चार्थ रामायण,बांग्ला भाषा में रचित कृत्तिवास रामायण और तमिल में कंब रामायण में भी मिलेगा। साथ ही बौद्ध, जैन, सिक्ख और नेपाली में भी रामायण की भिन्न-भिन्न रचनाएँ मिलती हैं। परन्तु हर रामायण का केंद्र बिंदु वाल्मीकि रामायण ही है। क्योंकि विश्व की सभी भाषाओं का मूल स्रोत संस्कृत है। भारत में ज्ञान के क्षेत्र में कभी सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया। क्योंकि सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय: और वसुधैव कुटुम्बकम को हम मानने वाले हैं। कृष्‍णवन्‍तो विश्‍वमार्यम’ विश्‍व को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाने के संकल्प को लेकर हमारे शिक्षक सारे विश्व में शिक्षा प्रदान करते रहे हैं। दुनिया के तमाम देशों के विद्यार्थी नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालयों में आकर ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं। विदेशी शासन के बाद इस स्थिति में परिवर्तन हुआ और हम अपने राजनैतिक सीमाओं में सिमट गए।
शिक्षा में पुराना एवं आधुनिक तथा आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिकता में भी समन्वय जरूरी है। शिक्षा के परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा भाषा का विषय है। भाषा की समस्या की वजह से बहुत से प्रतिभाशाली बच्चे आगे नहीं बढ़ पाते हैं। क्योंकि आगे पढ़ाई करनी है तो अंग्रेजी आनी चाहिए। इस संस्कृति को बदलना पड़ेगा। उच्च शिक्षा भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो ऐसी नीति बनाने के साथ ही पाठ्यक्रम भी तैयार करना करना होगा। अभियांत्रिकी, चिकित्सा जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों सहित सभी पाठ्यक्रमों में भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध कराना जरूरी है तभी भारतीय मेधाशक्ति का सही से उपयोग हो सकेगा। इससे जहां भारतीय भाषाओं का महत्व बढ़ेगा वहीं युवाओं को अवसर भी अधिक मिलेंगे।
प्राचीन काल में जब अन्य किसी देश में शिक्षा के केन्द्र नहीं थे उस समय भारत में नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय थे। जहां पर पूरे विश्व के शिक्षार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे। गांव – गांव में गुरूकुल थे। यह गुरूकुल समाज के सहयोग से चलते थे। इस्लाम जब भारत आया तो उसने भारत के बड़े शिक्षा केन्द्रों को नष्ट करने का काम किया। इस्लाम ने भारत की शिक्षा व्यवस्था भंग तो की लेकिन निचले स्तर तक जो व्यवस्था थी वह कायम रही। इसलिए इसका प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ा लेकिन जब अंग्रेज भारत आये तो उसने सोची समझी साजिश के तहत भारत की शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करने का काम किया। अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा,चिकित्सा और रोेजगार के साधनों को नष्ट करने का काम कियां अंग्रेजों के भारत आने से पहले भारत में साक्षरता दर बहुत उच्च थी। गांव में पाठशाला थी। भारत में कोई निर्विद्य नहीं था। अंग्रेजों को यह देखकर आश्चर्य हुआ। लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद भी हम उनकी बनाई शिक्षा पद्धति पर चल रहे हैं।
पहले भारत का कोई भी नागरिक रहा हो उसे अक्षर ज्ञान भले न रहा हो लेकिन किसी न किसी विद्या में वह पारंगत जरूर था। फिर चाहे व नृत्य,कला,संगीत या युद्ध की अन्य किसी विद्याओं में वह पारंगत जरूर थे। आज शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान से रह गया है। आज देश में तमाम उदाहरण देखने को मिल जायेंगे कि वह न तो एक अक्षर लिखना जानते हैं न ही पढ़ना जानते हैं लेकिन बड़े-बड़े संस्थान चला रहे हैं। गीत संगीत नृत्य से संबंध रखने वाले कई शीर्षस्तर के कलाकार हैं। वह अपनी विधा में निपुण हैं लेकिन अक्षर ज्ञान नहीं है तो उन्हें क्या कहेंगे। आज की प्रचलित शैली में उन्हें अशिक्षित ही कहेंगे। कबीर दास और सूरदास का उदाहरण अपने देश में हैं। वह स्कूल गये नहीं लेकिन शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना जागरण का कार्य उन्होंने किया।
(मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) पर विशेष)
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं।)

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