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मोदी के 10% आरक्षण दांव को फेल कर सकती है प्रियंका गांधी

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक रण को जीतने के लिए कांग्रेस ने अपने आखिरी ब्राह्मस्त्र को भी सियासत में उतार दिया है. प्रियंका गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी महासचिव बनाते हुए उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की जिम्मेदारी सौंपी है. कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता कहते दिख रहे हैं कि प्रियंका के पार्टी में आने से कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज हैं, लेकिन सवाल है कि उनकी राजनीतिक दस्तक 2019 के लोकसभा चुनाव में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस को संजीवनी दे पाएंगी या फिर बीजेपी की राह मुश्किल होगी?

मोदी के 10% आरक्षण दांव को फेल कर सकती है प्रियंका गांधी बता दें कि देश की सियासत में एक बात ये कही जाती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है तो उसके पीछे देश का राजनीतिक इतिहास भी है. यूपी ने अब तक सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं. प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं. यानी केंद्र में सरकार बनाने के लिए जितनी सीटें चाहिए उसकी करीब एक तिहाई.

प्रियंका के उतरने से यूपी की जंग दिलचस्प

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने सूबे की 73 सीटें जीती थीं, तभी उसका मिशन 272 प्लस कामयाब हो पाया था. 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए इसी रास्ते को बंद करने के कोशिश के तहते सपा-बसपा ने हाथ मिलाया है. वहीं, अब प्रियंका ने भी सक्रिय राजनीति में उतरकर और यूपी की जिम्मेदारी मिलने के बाद सियासी मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है.

राजनीतिक विश्लेषक काशी प्रसाद यादव कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी के आने के बाद प्रदेश का राजनीतिक समीकरण में बदलाव दिखेगा खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई है. कांग्रेस का सवर्ण वोटबैंक मौजूदा समय में बीजेपी में शिफ्ट हो चुका है, प्रियंका जिसे वापस लाने की कवायद करेंगी. इससे सीधा नुकसान बीजेपी को होगा.’

सपा-बसपा गठबंधन का गणित भी बिगड़ेगा

काशी यादव कहते हैं प्रियंका को लाकर कांग्रेस बीजेपी के साथ-साथ सपा-बसपा गठबंधन को भी नुकसान कर सकती है. प्रियंका की लोकप्रियता के चलते कांग्रेस की रैलियों में भीड़ जुटेगी, जिसमें पार्टी अभी तक सफल नहीं हो पा रही थी. इसके अलावा सूबे में नारे, भाषण और जज्बात में आकर सिर्फ मुस्लिम समुदाय ही वोट करता हैं, ऐसे में प्रियंका इस समुदाय को भी प्रभावित कर सकती है. एक दौर में ये कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक रहा है प्रियंका वापस लाने में सफल रहती हैं तो फिर सपा-बसपा को भी नुकसान उठाना पड़ा सकता है.

बीजेपी के सवर्ण वोटों में सेंध

वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु मिश्रा कहते हैं, ‘कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को लाकर अगड़ी जातियों को एक विकल्प दे दिया है. हाल ही में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में अगड़ी जातियों की नाराजगी के चलते बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है, जिसे 10 फीसदी सवर्ण आरक्षण देकर मानकर चल रही थी कि वो पार्टी के साथ जुड़े रहेंगे और ओबीसी वोटबैंक को साधने में जुटी थी. ऐसे में कांग्रेस ने प्रियंका का दांव चलकर बीजेपी को तगड़ा झटका दिया है.’

मिश्रा कहते हैं कि प्रियंका को पूर्वांचल की जिम्मेदारी सौंपी गई हैं, जहां की राजनीति धुरी ब्राह्मण और राजपूत हैं. हालांकि राजनीतिक तौर पर दोनों समुदाय एक दूसरे के धुर विरोधी माने जाते हैं. यूपी में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद ब्राह्मण को वो तवज्जो नहीं मिल सकी, जिसकी वो उम्मीद लगाए हुए थे. ऐसे में ब्राह्मणों को एक विकल्प दे सकती है.

कई फैक्टर देखेगा वोटर

वहीं, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मो. सज्जाद कहते हैं कि भारतीय राजनीति में जाति एक बड़ा फैक्टर है. कांग्रेस और बीजेपी का पारंपरिक तौर पर वोटबैंक सवर्ण समुदाय रहा है. लेकिन पिछले कुछ दशकों से यह तबका कांग्रेस के साथ नहीं है. सवर्ण बीजेपी के साथ रहकर अपनी पहचान बनाए हुए है. प्रियंका के आने से जरूरी नहीं है कि ये कांग्रेस में वापस आए. हालांकि, ये तभी वापस आएगा जब उन्हें लगेगा कि 2019 में बनने वाली सरकार में कांग्रेस एक बड़ी भूमिका अदा करेगी.

दरअसल, पूर्वांचल बीजेपी का मजबूत गढ़ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सूबे के सीएम योगी आदित्यनाथ के साथ-साथ बीजेपी के अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय पूर्वी उत्तर प्रदेश से प्रतिनिधित्व करते हैं. हालांकि, कभी ये इलाका कांग्रेस का मजबूत दुर्ग हुआ करता था. कमलापति त्रिपाठी, कल्पनाथ राय से लेकर वीर बहादुर सिंह जैसे कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे हैं. प्रियंका के सामने कांग्रेस की जड़ों को दोबारा से इस इलाके में मजबूत करने की बड़ी चुनौती है?

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