अद्धयात्म

सुख का मार्ग–क्या ?

अध्यात्म : राजा उत्तानपाद के दो रानियाँ थी—सुनीति और सुरुचि। सुरुचि के प्रति राजा विशेष आकर्षित थे। सुनीति के एक पुत्र था—धु्रव: और सुरुचि के भी एक पुत्र था, जिसका नाम ‘उत्तम’ था। सुरुचि ने सौतेले पुत्र ध्रुव का पिता द्वारा अपमान करवाया। चार वर्ष का छोटा बालक—वह माँ की अनुमति से वन में तप करने चला गया। परन्तु माँ सुनीति नीति-परायण थी। उसने सोचा कि पुत्र यदि विमाता के प्रति घृणा और विद्वेष की भावना लेकर जाएगा तो इसकी साधना सफल नहीं होगी। अत: उसने पुत्र को ऐसा ही समझाकर उसे विमाता से आशीर्वाद लेकर जाने का उपदेश किया। ध्रुव ने सरल भाव से माँ की आज्ञा का पालन किया। वन में घोर तपस्या कर धुव्र ने भगवत्स्वरूप की प्राप्ति की। वह अब अपने नगर को लौटा। अब भी उसने नीति का पालन किया और विमाता से प्रेम एवं आदर से मिला। ध्रुव अब सर्वविजयी था, पिता तथा विमाता का भी प्रेमपात्र बन गया और राज्य का उत्तराधिकारी भी। यह रूपक-कथा है। उत्तानपाद जीव है। जीव दो नारियों में फंसा हुआ है—इन्द्रियों के सुरुचिपूर्ण भोग-विलास में तथा बुद्धि के सुनीतिपूर्ण निर्देश में। सुनीति का फल ध्रुव अर्थात् सत्य है और इन्द्रियों की सुरुचि अर्थात् मन को अच्छा लगने वाला ‘उत्तम’ है। इन्द्रियाँ स्वभावत: विषय-वासनाओं में लिप्त रहना चाहती हैं और बुद्धिगत सुनीति का तिरस्कार करती हैं। परन्तु विजय अन्ततोगत्वा सुनीति के धु्रव अर्थात् अटल सत्य की ही होती है। यह धर्म की अधर्म पर विजय है। लेकिन ‘धर्म’ भी ध्येय नहीं, वरन् चेतना के परम विकास का धरातल है। अधर्म को छोड़कर धर्म को पकड़ना है और भगवान् को पकड़ने में लौकिक धर्म छूट जाता है। लेकिन भगवान् ऐसे भक्त का अधर्म में पतन नहीं होने देता और उसके धर्म की रक्षा वह स्वयं करता है। इस विषय में एक अति महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि व्यक्ति का अधर्म उसका अपना स्वयं शत्रु है। ऐन्द्रिक भोग-लिप्सा और क्रोध अधर्म के लक्षण है। भोग के विषय में भर्तृहरि का कथन है—
‘‘भोग: न भुक्ता वयमेय भुक्ता: तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:।
(भोग नहीं भोगे जाते, उनके द्वारा हम ही भोगे जाते हैं। तृष्णा जीर्ण नहीं होती वरन् वह हमें ही जीर्ण करती हैं)।


श्रीमद्भागवत् के चतुर्थ स्कंध के आठवें अध्याय के प्रथम पाँच श्लोकों में अधर्म के परिवार का वर्णन किया गया है। इनके अनुसार अधर्म की पत्नी—मृषा है। मृषा का अर्थ है—झूठ बोलने का स्वभाव। उससे दम्भ की उत्पत्ति हुई। फिर दम्भ से लोभ, लोभ से क्रोध और क्रोध से कर्कशा उत्पन्न हुए। सामान्य अवलोकन का तथ्य है कि क्रोध की आग से व्यक्ति अपने को ही निरन्तर भस्म करता रहता है और कर्वâश वाणी से अपने लिए शत्रुओं की सेना इकट्ठी करता रहता है।
अन्त में, अधर्म-नाश के प्रति भगवान की भूमिका पर विचार कर लें। शिवजी पार्वतीजी को बताते हैं—
‘‘जब जब होइ धरम वै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु।’’
—बाल काण्ड (१२१)
और यही आश्वासन कृष्ण ने अपने भगवत्स्वरूप पक्ष से दिया है। वे अर्जुन से कहते हैं—
‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय चदुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।’’
—श्री गीता (४/७,८)


(हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने को प्रगट करता हूँ। क्योंकि सन्तजनों का उद्धार करने के लिए और पापियों का नाश करने के लिए तथा धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रगट होता है। इस प्रकार अब यह तो स्पष्ट हो गया कि धर्म की विजय और अधर्म की पराजय-भगवान् का अपना उत्तरदायित्व है। कोई व्यक्ति यदि धर्म के पक्ष में तथा अथर्म के विरुद्ध खड़ा होता है तो उसे केवल यह करना है कि इसे भगवान् के भजन अर्थात् निष्काम कर्म-योग की भावना से करे। इस प्रकार जब व्यक्ति का कर्तृव्य-भाव समाप्त होकर कर्ता भगवान् बन जाएगा तो भगवान् की अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाएगा और सफलता तब असंदिग्ध हो जाएगी। लेकिन यह आवश्यक है कि धर्म की परिभाषा भगवान् द्वारा बताए धर्म-रथ के लक्षणों के अनुरूप ही हो। इस संदर्भ में भगवान् राम ने गुरु वशिष्ठ से जो कहा था, वह भी उल्लेखनीय है। योग-वशिष्ठ में राम के कथन का निम्नवत् वर्णन है—युद्ध-भूमि के शत्रु के पहाड़ जैसे विशाल हाथियों की सेना सामने गरज रही हो। उसका भेदन करने वाला शूरवीर नहीं, वरन् शूरवीर वह है जो शरीर क्षेत्र में लहराने वाली मन की तरंगों पर विजय पाता है।
(श्री अमरनाथ शुक्ल के प्रकाशित साहित्य से)

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