दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

••राम रवा लपटा महाराज••

आशुतोष राना

वे लोगों से अभिवादन में केवल राम राम कहते थे, खाने में उन्हें सिर्फ़ रवा का हलवा, और बेसन का लपटा ही पसंद था। भगवान व भोजन के प्रति कट्टरता के कारण क़स्बे के लोग उनको “राम रवा लपटा महाराज” के नाम से जानते थे। वे भगवान राम के कट्टर भक्त थे। उनकी कट्टरता का आलम ये था की ग़लती से भी उनके रास्ते में यदि शिवजी,कृष्ण जी,गणेश जी या किसी भी अन्य देवता का मंदिर पड़ जाता तो वे मुँह फेर लेते थे। उन्हें श्रीराम के अलावा किसी और भगवान की तरफ़ देखना तो छोड़िए, उनके बारे में सुनना भी नापसंद था। वे भगवान राम की शीलता, धीरता, कुलीनता, न्यायप्रियता, पराक्रम, धैर्य, मर्यादा को लेकर उन्माद की हद तक भावुक थे।

उन्हें त्रेतायुग में श्रीराम के साथ हुआ अन्याय बेहद सालता था, और रही सही कसर कलयुग के राम जन्मभूमि विवाद ने पूरी कर दी थी। उन्हें इस बात का बेहद आक्रोश था की त्रेतायुग में पिता दशरथ की कमज़ोरी के कारण श्रीराम को महल छोड़ के जंगल में रहना पड़ा,तो कलयुग में हम पुत्रों की कायरता के कारण उनको महल छोड़ के अयोध्या में ही टेंट के नीचे रहना पड़ रहा है। पिता का पुत्र को घर से निकालना तो फिर भी समझ में आता है किंतु भक्तों के द्वारा भगवान को बेघर करना उन्हें मर्मांतक पीढ़ा देता था। हमारे क़स्बे में अमूमन हर आदमी का अपना एक परमानेंट मंदिर सेट था, उसकी इच्छा पूरी हो या ना हो, वह अपने सेट मंदिर में सर झुकाता था। किंतु एक वर्ग ऐसा भी था जो अपनी मन्नतों के नारियल हाथ में उठाए हुए छोटी बड़ी मढ़ियों से लेकर सभी मंदिरों के चक्कर काटते थे, इस आशा के साथ की कोई ना कोई भगवान तो उनका काम बनवा ही देगा।कुछ ऐसे भी थे जो भगवानों को अपने मामलों से दूर रखने के लिए भी अगरबत्ती लगाते, उनका मानना था की भगवान के बीच में पड़ने से काम बनते नहीं, बिगड़ जाते हैं। सो भगवान बीच में ना ही पड़ें तो अच्छा है। सभी भगवानों के मंदिरों में जाने वालों के लिए महाराज के मन में भयंकर चिढ़ थी, वे ग़ुस्से में उन लोगों को बिना खसम की लुगाई कहते थे। इस वर्ग का कोई यदि धोखे से भी रामजानकी मंदिर में महाराज को दिख जाता तो महाराज उसकी मट्टी पलीद कर देते, देखो चले आ रय हैं सोलासिंगार करके रामजी को रिझाने। रामजी तुमाय झाँसे में नई आने वाले बेटा.. उनको सब पता है तुम कहाँ कहाँ से मुँह काला करके आ रय हो, उठाओ साले अपना नारियल.. ख़बरदार जो इस नारियल की एक चिटकी भी यहाँ चढ़ाई तो,नारियल फूटने से पहले हम तुम्हारा खोपड़ा फोड़ डालेंगे। मारीच कहीं के साऽरे, जब कहीं दाल नई गली तो धर दी हंडिया रामजी की मूँड़ पे पकाने के लिए। सत्तरा जगह मों मारने बाली बुकरियों को राम जी अपने थान पे नई बाँधते..भगो साले झाँ से नई तो ऐसा बाण घलेगा की सीधे लंका जा के गिरोगे।
महाराज के इस व्यवहार के कारण अन्य मंदिरों की अपेक्षा रामजानकी मंदिर में कम भीड़ होती थी। हम दस बारह लड़कों की एक मात्र टोली थी जो किसी भी मंदिर में नहीं देखी जाती थी। हमारे ऊपर अभी तक किसी भी भगवान का ठप्पा नहीं लगा था। सो राम रवा लपटा के लिए हम आकर्षण का केंद्र थे, वे येन केन प्रकारेण हमें रामजी की सेवा में झोंक देना चाहते थे। किंतु उनके द्वारा किए जा रहे अथक प्रयासों के बाद भी हम लोगों पर रामरंग नहीं चढ़ पा रहा था। एक दिन बोले, रामजी ने संसार के लिए कितना किया लेकिन संसार ने हमेशा उनके सीधेपन का नाजायज़ फ़ायदा उठाया। बेचारे मर्यादा का पालन करते हैं तो लोग उनको कमज़ोर समझते हैं, लेकिन जे लोगों की भूल है। इतिहास गवाह है चाहे सुग्रीव हो या विभीषण,अपने राज्य से भगा दिए गए थे, राजपाठ,पत्नी,बच्चा सब छुड़ा लिया था,मारे खदेड़े फिर रहे थे। जब रामजी का हाथ थामा, उनका सहारा लिया तब जाके कहीं राजगद्दी मिली। रामजी का नियम है जिसने जो माँगा उसको दिया,लेकिन अपने लिए कभी आवाज़ तक नहीं उठाई। मर्यादा के कारण वे भले ही सीधे लगें, लेकिन भैया हरों उनका अपना दुश्मन हो या अपनों का, समाज का दुश्मन हो या संसार का, उसको सबक़ सिखाके ही छोड़ते हैं। ताड़का,खरदूषण,बाली,कुंभकर्ण सबको नेस्तनाबूत कर दिया। अरे एक लाख पूत और सवा लाख नाती वाले महाप्रतापी रावण जैसे आदमी की ईंट से ईंट बजा दी। मेरे एक मित्र ने कहा महाराज जे सब तो ठीक है, लेकिन उनकी असली शत्रु तो कैकई और मंथरा थी,उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ पाए ? बल्कि देखा जाए तो रामजी की दुर्गत का असली कारण बेई दोनों थीं। महाराज बेचैन हो गए क्योंकि उनके पास इसका कोई शास्त्रोक्त जवाब नहीं था।फिर भी हताश हुए बिना भावुक स्वर में बोले जब हमने कहा है की रामजी नहीं छोड़ते,मतलब नहीं छोड़ते। तुम देख लेना उसका भी हिसाब हो के रहेगा..और वे चले गए। इस घटना को हुए क़रीब बीस वर्ष हो गए। इन बीस वर्षों में कई बार मैं अपने शहर गया लेकिन प्रयास करने के बाद भी महाराज से मुलाक़ात नहीं हुई। महाराज मेरी स्मृति से लगभग धूमिल हो चुके थे। आज सुबह क़रीब ११ बजे गार्ड ने फ़ोन किया की सर आपके गाँव से कोई राम पंडित जी आए हैं, वे आपसे मिलना चाहते हैं.. मैं आश्चर्य में पड़ गया मैंने कहा उनको आने दो .. मैं दरवाज़े पर उनकी अगवानी के लिए खड़ा हो गया, महाराज आए इस समय क़रीब ८० वर्ष के हो रहे होंगे, उनका शरीर बिलकुल जर्जर हो गया था,त्वचा का रंग पहले की अपेक्षा अधिक गहरा हो गया था,पूरे शरीर में झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ थीं, कंधे पर कपड़े का बना हुआ झोला टँगा था, किंतु चेहरा परम उल्लास और अनूठी आभा से दमक रहा था। मैंने उनका झोला कंधे से उतारकर अपने हाथ में लिया और घर के अंदर ले आया उन्हें ससम्मान बैठा के उनके पैर पड़े, उन्होंने बेहद आत्मीयता से राम राम कहके आशीर्वाद दिया। उन्हें अकेला आया देख उनसे पूछा, आप अकेले चले आए ? ख़बर भी नहीं की ? जर्जर होने के बाद भी उनके शरीर पर थकावट का नामोनिशान नहीं था उलटा वे प्रसन्नता से भरे हुए लग रहे थे बोले अकेले कहाँ भैया ? हमाए रामजी हैं ना हमाए साथ। तुम तो जानते हो जो चीज़ें छूटने वाली हों उसको हम कभी पकड़ते ही नहीं हैं। और जिन रामजी को हमने पकड़ा है उनकी आदत है,कि वो जिसको एक बार पकड़ लें, तो फिर छोड़ते नहीं हैं। जब उन्हीं के घर जाना है तो उन्हीं के साथ रहो। ये कहते हुए उन्होंने अपने झोले से दो डब्बे निकाले और मुझे देते हुए बोले एक में रवा है और एक में बेसन,सो बहूजी से रवा का हलवा और बेसन का लपटा बनवा दो,हमने सोचा, का पता शहर में मिले ना मिले ? सो साथ ही ले आए।
मैं मुग्ध हो उनको देख रहा था, मैंने पूछा कि कोई विशेष कारण है जो आप अचानक मुंबई आए? उन्होंने दंतरहित मुख से एक बड़ी मनोहारी मुस्कान मुझ पे फेकी और बोले, भैया श्रीराम जी का वनवास महारानी कैकई का नहीं असल में मंथरा का षड्यंत्र था।

महारानी कैकई तो अपनी जान से जादा प्यार करती थीं रामजी से, बो तो ससुरी मंथरा ने अपनी असुरी ताक़त से सम्मोहित कर दिया था उनको, मंथरा की असुरी शक्ति के आगे कैकई तो छोड़ो, जो किसी के भी इष्ट को वश में रखने की क्षमता रखते थे,ऐसे गुरु वशिष्ठ भी मात खा गए थे। गुरु वशिष्ठ ने सब चौघडिएँ अच्छे से देख के श्रीराम जी के राज्याभिषेक लिए श्रेष्ठतम मुहूर्त निकाला था। किंतु विडम्बना देखिए की ठीक उसी मुहूर्त में जब श्रीराम जी का राज्याभिषेक होना था उनको राज्य छोड़ के सपत्निक वन की ओर जाना पड़ा। मंथरा ने कैकई को मोहरा बना के रामजी के लिए १४ वर्ष के वनवास का पक्का इंतज़ाम कर दिया। यह शठ बुद्धि की संत बुद्धि पर एक बड़ी जीत थी। मंथरा की कुचाल ने सितारों की चाल को भी पलट के रख दिया था। राम जी ने सब शठों की शठियायी का हिसाब चुकता किया,लेकिन मंथरा का नहीं।बो कैसे छूट गई ? मैं ज़ोर से हँस दिया और उनसे बोला की आप भी अद्भुत हैं,बीसेक साल पहले ठिठोलि में कही बात आपको अभी तक याद है ? वे बोले नहीं हमको तो पूरा विश्वास था की रामजी से चूक नहीं हो सकती, वे हिसाब करेंगे मतलब करेंगे। लेकिन सबूत नहीं मिल रहा था सो चुप बैठे थे, अब मिल गया तो तुमे बताने चले आए।और उन्होंने झोले से हिंदी का अख़बार निकाल के मेरे सामने रख दिया और कहा के पढ़ो.. मैंने देखा की अख़बार विगत दिनों सुश्री शशिकला के साथ हुए रोमांचक घटनाक्रम से भरा पड़ा था, की जब उन्हें तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेनी थी तभी कोर्ट ने उन्हें चार साल के कारावास और दस साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया था। किंतु उसमें रामजी के हिसाब चुकता करने की ख़बर,जिसके लिए राम महाराज ने मुझे अख़बार दिया था कहीं नहीं थी।मैंने उनकी तरफ़ देख के कहा कि इसमें तो कुछ नहीं है। चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान, और भक्ति से पूर्ण आँखों में आँसुओं की दो छोटी छोटी बूँदे लिए हुए महाराज बोले ,रामजी को मंथरा ने कहाँ भेजा था ? दक्षिण। हैं ना। देखो दक्षिण में इस स्त्री के साथ ठीक वैसा ही हुआ जो रामजी के साथ हुआ था। जिस मुहूर्त में ये राजा बनके रानिवास जाने वाली थी,ठीक उसी मुहूर्त में इसे कारावास भेज दिया गया। त्रेतायुग के १४ साल के वनवास का हिसाब कलयुग के ४ साल के कारावास और १० साल तक राजा नहीं बन पाने की सज़ा,सो हो गया ना बराबर १० और ४ ,१४ । कलियुग में ये शठबुद्धि को संतबुद्धि के द्वारा दी गई करारी शिकस्त है। माता कैकई तो रामजी से अपार प्रेम करने वालीं महिला थीं,शठ तो ये महिला थी मंथरा, जो उनके साथ लगातार परछाईं के जैसे लगी रहती थी। तुम मान नहीं पा रहे ना ? ज़रा समानता देखो, त्रेता में माँ और कलयुग में अम्माँ। राजा दशरथ वहाँ भी नहीं बचे थे, सो यहाँ भी नहीं बचे। उम्र का जो अंतर राजा दशरथ और महारानी कैकई के बीच त्रेतायुग में था, उतना ही अंतर कलयुग में था। कैकई विजया कहाउत थीं, सो जे जया कहाउत थीं। माँ के साथ हमेशा लगी रहने वाली मंथरा थी, तो अम्माँ की परछाईं शशिकला हतीं। मंथरा में मन आता है, मन यानी चंद्रमा, तो शशि का अर्थ ही चंद्रमा होता है। इतनी विकट समानता संयोगवश नहीं योगवश होती है। मैं तुमको सिर्फ़ अपने रामजी की कथनी और करनी की समानता बताने आया था, वे बड़े प्रतापी हैं।मित्र हो या शत्रु,किसी का बक़ाया नहीं रखते।देखो हमने उनकी ख़ातिर उनको ही बेघर कर दिया। ठंड, गर्मी, बरसात में हम अपने को बचाने लिए अपने घरों में घुस जाते हैं, हर मौसम के हिसाब से हम अपने मकान की मरम्मत कराते हैं, लेकिन देखो रामजी को हमने एक छोलदारी में रख के छोड़ दिया। वे बेचारे चुपचाप हर मौसम मार झेल रहे हैं। जो सबका न्याय करते हैं,देखो तो भैया हमने उनपे ही मुक़दमा चला दिया,और वे बेचारे चुपचाप अपने साथ न्याय होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जो सबके बंधन खोलते हैं आज हमने उनको बंधक बना के रखा हुआ है। सिर्फ़ इसलिए राम जी कष्ट भोगें क्योंकि बेचारे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ? रामजी का जो मंदिर हमारी समस्याओं के समाधान का केंद्र है, दुर्भाग्य देखो..हमने समाधान के केंद्र को ही समस्या बना दिया। बोले तब भी हम किन्नर थे जो रामजी के लिए कुछ ना कर पाए, सिर्फ़ उनके लौटने का इंतज़ार करते रहे,और अब भी हम किन्नर हैं जो रामजी के लिए कुछ नहीं कर पाए, केवल उनके स्थापित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमारे भाग में सिर्फ़ प्रतीक्षा बदी है बस। वे विवहल होकर रो रहे थे,बोले तुम्हारे पास इस आशा से आए हैं कि रामजी के लिए जो निष्ठा हमारे मन में है उसे तुमको सौंप के निश्चिन्त होके रामधाम जाने की तैयारी करें। पता नहीं हमारी जीवन लीला कब समाप्त हो जाए ?, विश्वास करो भैया रामजी हिंदू मुसलमान में भेद ही नहीं करते क्योंकि राम का अर्थ ही होता है घट घट में रमने वाला। वे सोफ़े पे बैठे थे और मैं उनके पैरों पास ज़मीन पर, मैंने उनके पैरों को अपने हाथ से बहुत धीरे सांत्वना देते हुए स्पर्श किया। उनसे कहा आप सत्य कह रहे हैं, रामजी का सुख ही हमारा सुख है, उन्हें दुखी रखके एक राष्ट्र के रूप में हम कभी सुखी नहीं हो सकते। क्योंकि राम मात्र कोई व्यक्ति या पूज्य अवतार ही नहीं हैं, यह हमारी चेतना का आधार स्तम्भ हैं। और कोई भी सभ्यता, संस्कृति, सौहार्द, शांति, शिक्षा, विकास को पुष्पित सुरभित पल्लवित व फलित होने के लिए आधार की आवश्यकता होती है यह निराधार खड़े नहीं हो सकते।समस्या ये है की हम राम को तो मानते हैं,लेकिन राम की नहीं मानते। हम गीता को तो मानते हैं,लेकिन गीता की नहीं मानते। ये बिलकुल वैसा ही है, कि हम पिता को तो मानते हैं किंतु पिता की नहीं मानते। मैंने उनसे कहा की आइए हम रामजी से ही प्रार्थना करते हैं के वे हमें अपनी धीरता, वीरता, शीलता, और मर्यादा को अपने आचरण में उतारने की शक्ति दें, जिससे हमारा राष्ट्र उनकी जन्मभूमि भारतवर्ष उनके नाम के अनुरूप विश्व के घट घट में व्याप्त हो विश्व के आसमान को प्रेम और शांति के रंग से रंग दे। मैं बोला मैं भी आपके साथ गाँव चलूँगा जिससे आपकी उपस्थिति में ही श्री रामजानकी के दर्शन कर सकूँ। उनकी बूढ़ी आँखें प्रसन्नता में पसीजने लगीं, गदगदा के उन्होंने मुझे अपने कंठ से लगा लिया और बहुत धीमे से मेरे कान में बोले जिस काम के लिए वर्षों से प्रयास कर रहा था वह तो हो गया, रामजी तुम्हारा कल्याण करें..इस आशीर्वचन को सुन, मुझे अपने अंदर एक नई ऊर्जा का प्रवाह अनुभूत हुआ, और स्वतः ही मेरे मुँह से महावीर हनुमान की स्तुति निकलने लगी ..

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातमनमामी।।

जय सियाराम

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