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महर्षि दयानंद सरस्वती की जयंती पर 200वीं जयंती समारोह, जानें क्यों हैं दयानंद सरस्वती महान

नई दिल्ली ( दस्तक विशेष) : भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 12 फरवरी को टंकारा, गुजरात में महर्षि दयानंद सरस्वती की जयंती के अवसर पर 200 वें जन्मोत्सव – ज्ञान ज्योति पर्व स्मरणोत्सव समारोह में भाग लिया और संबोधित किया। अगले वर्ष स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा गठित आर्य समाज भी अपनी स्थापना के 150 वर्ष पूरे कर लेगा।

उनकी जयंती के उपलक्ष्य में आइए जानते हैं उनसे जुड़ी अहम बातें :

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को गुजरात के टंकारा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मूल नक्षत्र के दौरान पैदा होने के कारण उन्हें पहले मूल शंकर तिवारी नाम दिया गया था। उनके माता-पिता यशोधाबाई और लालजी तिवारी रूढ़िवादी ब्राह्मण थे।उनके द्वारा आर्य समाज की पहली इकाई की स्थापना औपचारिक रूप से 1875 में मुंबई (तब बॉम्बे) में की गई थी और बाद में इसका मुख्यालय लाहौर में स्थापित किया गया था। आर्य समाज वैदिक धर्म का एक सुधार आंदोलन है ।

स्वामी दयानंद 1876 में “भारत भारतीयों के लिये” के रूप में स्वराज का आह्वान करने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने वेदों से प्रेरणा ली और उन्हें ‘भारत के युग की चट्टान’, ‘हिंदू धर्म का अचूक और सच्चा मूल बीज’ माना। उन्होंने “वेदों की ओर लौटो” का नारा दिया।स्वामी दयानंद सरस्वती के दृष्टिकोण को साकार करने के लिये वर्ष 1886 में डीएवी (दयानंद एंग्लो वैदिक) स्कूल अस्तित्व में आए। उन्होंने शिक्षा प्रणाली में पूरी तरह से बदलाव की शुरुआत की और उन्हें आधुनिक भारत के दूरदर्शी लोगों में से एक माना जाता है। पहला डीएवी स्कूल लाहौर में स्थापित किया गया और महात्मा हंसराज इसके प्रधानाध्यापक थे।

आर्य समाज में मूर्ति पूजा का विरोध, पशु बलि, श्राद्ध (पूर्वजों की ओर से अनुष्ठान), जन्म के आधार पर जाति का निर्धारण न कि योग्यता के आधार पर, अस्पृश्यता, बाल विवाह, तीर्थयात्रा, पुजारी पद्धति और मंदिर प्रसाद की पूजा का विरोध किया जाता है।उन्होंने राष्ट्रवाद के सभी प्रमुख सोपानों जैसे कि स्वदेश, स्वराज्य, स्वधर्म और स्वभाषा इन सभी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। वेदों के स्वर्णिम चिंतन को महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि में प्रस्तुत किया।

कोलकाता में 1873 में तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी नार्थ ब्रुक ने स्वामी दयानंद से कहा कि अंग्रेजी राज्य सदैव रहे, इसके लिए भी ईश्वर से प्रार्थना कीजिएगा। स्वामी दयानंद ने निर्भीकता के साथ उत्तर दिया था कि स्वाधीनता और स्वराज्य मेरी आत्मा और भारतवर्ष की आवाज है और यही मुझे प्रिय है। मैं विदेशी साम्राज्य के लिए प्रार्थना कदापि नहीं कर सकता। स्वामी दयानंद कहा करते थे कि आर्यावर्त (भारत) ही वह भूमि है, जो रत्नों को उत्पन्न करती है।

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