दस्तक-विशेषस्तम्भ

भोजपुरी का दुख 

मृत्युंजय पाण्डेय

बहुत प्रसिद्ध कहावत है ‘घर को आग लगी, घर के चिराग से ही।’ आज भोजपुरी के साथ भी यही हो रहा है, इस बोली के सहारे जिन लोगों ने विकास की मंज़िलें तय की कि वे ही आज इसका विरोध कर रहे हैं। इन्हें भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से खतरा दिख रहा है। उनका कहना है कि इससे हमारा घर बंट जाएगा, हिन्दी कमजोर हो जाएगी। पर सच्चाई यह है कि भोजपुरी को भाषा की मान्यता मिलने से हिन्दी कमजोर नहीं बल्कि सशक्त होगी, कमजोर तो वह इसके न रहने से होगी। भोजपुरी के खत्म होते ही हिन्दी का शब्द भंडार बहुत कम हो जाएगा और यह कमी आज दिख भी रही है। हिन्दी के नव युवा लेखकों की रचनाओं में यह कमी प्रमुखता से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है।
हिन्दी की बोली भोजपुरी को भाषा की मान्यता मिलनी चाहिए या नहीं इसको लेकर हिन्दी जगत में दो गुट तैयार हो गये हैं। सदानंद साही तथा निलय उपाध्याय जैसे लेखकों की माँग है कि भोजपुरी को भाषा का दर्जा दिया जाए, इसे आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। वहीं एक दूसरा गुट यह मांग कर रहा है कि भोजपुरी को भाषा की मान्यता न दी जाए। इस माँग के पीछे उनका तर्क यह है कि भोजपुरी को भाषा की मान्यता मिलने से हिन्दी कमजोर होगी। उसे बोलने वाले (20 करोड़) हिन्दी से अलग हो जाएंगे। पर ऐसा नहीं है और न होगा। भोजपुरी को भाषा की मान्यता मिलने से न तो हिन्दी दुर्बल होगी और न ही इसे बोलने वाले इससे अलग होंगे। इसका उदाहरण हम सब के समक्ष है, मैथिली को भाषा की मान्यता मिलने के बाद भी हिन्दी कमजोर नहीं हुई, बल्कि वह दिन-प्रतिदिन और अधिक शक्तिशाली होती जा रही है। आज हिन्दी में मैथिली, संथाली सहित अन्य भाषाओं के लेखक कविता-कहानी लिख रहे हैं। यह हिन्दी का विकास नहीं तो और क्या है? विकास किस तरह से होता है? संथाली को यदि भाषा की मान्यता नहीं मिली रहती तो यह ही खत्म हो जाती और हिन्दी प्रदेश इनकी समस्याओं से अनभिज्ञ ही रहता। इसी तरह भोजपुरी को भी भाषा की मान्यता मिलने से हिन्दी और अधिक मजबूत होगी। नए-नए तथ्य और नयी-नयी अनुभूतियों से लोग परिचित होंगे। यदि मैथिली को भाषा की मान्यता मिल सकती है तो भोजपुरी को क्यों नहीं?
कुछ हिन्दी-प्रेमी अराजनीतिक (?) लोगों का यह भी कहना है कि भोजपुरी को भाषा की मान्यता मिलते ही पुरस्कार की राजनीति शुरू होगी। चलिये कुछ देर के लिए हम इसे मान भी लेते हैं, पर प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ इस आशंका की वजह से इतनी समृद्ध बोली को मरने दिया जाये? आज हिन्दी का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, जिसे लोग प्रश्नांकित नहीं कर रहे। पुरस्कार सहित निर्णायकों पर उँगली उठाना और भोजपुरी का विरोध करना राजनीति का ही एक हिस्सा है।
बहुत प्रसिद्ध कहावत है ‘घर को आग लगी, घर के चिराग से ही।’ आज भोजपुरी के साथ भी यही हो रहा है, इस बोली के सहारे जिन लोगों ने विकास की मंज़िलें तय कि वे ही आज इसका विरोध कर रहे हैं। इन्हें भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से खतरा दिख रहा है। उनका कहना है कि इससे हमारा घर बंट जाएगा, हिन्दी कमजोर हो जाएगी। पर सच्चाई यह है कि भोजपुरी को भाषा की मान्यता मिलने से हिन्दी कमजोर नहीं बल्कि सशक्त होगी, कमजोर तो वह इसके न रहने से होगी। भोजपुरी के खत्म होते ही हिन्दी का शब्द भंडार बहुत कम हो जाएगा और यह कमी आज दिख भी रही है। हिन्दी के नव युवा लेखकों की रचनाओं में यह कमी प्रमुखता से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है, इस कमी की वजह से ही उनकी रचनाएं पाठकों को अपनी तरफ नहीं खींच पा रही हैं। इसी कमी की वजह से कविता-कहानी के पाठक कम होते जा रहे हैं और हमारे लेखक इस सच्चाई को समझ नहीं पा रहे हैं या समझते हुए भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं। कारण, उनका पूरा जीवन विदेशी भाषा और शहरी परिवेश में बीता है। लोक और अपनी बोली से कटने की वजह से ही वे आम जनता की धड़कन को महसूस नहीं कर पा रहे हैं। इसी कमी की वजह से आज ‘कफन’, ‘तीसरी कसम’, ‘रसप्रिया’, ‘कोशी का घटवार’, ‘हंसा जाई अकेला’ और ‘राजा निरबंसिया’ आदि जैसी कालजयी रचनाएँ नहीं लिखी जा रहीं।
किसी भी जाति को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है, उसकी भाषा या बोली को नष्ट कर देना। आज भोजपुरी के साथ भी यही षड्यंत्र रचा जा रहा है। कुछ लोग पुरबिहा जाति और संस्कृति को खत्म करने पर तुले हुए हैं। दुख की बात यह है कि ये कुछ लोग इसी भाषा के हैं। विडम्बना यह कि हिन्दी के पक्ष में बोलने वाले ये लोग अपनी नयी पीढ़ी को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दे रहे हैं, कुछ लोग तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूल भी चला रहे हैं। पर मंच से अंग्रेजी के विरोध में अंगारे उगलते हैं। इन लोगों का यह भी कहना है कि भोजपुरी-प्रेमी लोग, भोजपुरी में शिक्षा दिलवाकर लोगों को ‘गँवार’ बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे लोगों से प्रश्न यह है कि क्या भोजपुरी में लिखना-पढ़ना ‘गँवार होने की निशानी है? क्या कबीर ‘गँवार’ थे? यदि वे ‘गँवार’ थे या हैं तो इसी ‘गँवार’ के लिखे को बड़े-बड़े पंडित भी नहीं समझ पा रहे हैं। रोज कबीर पर नए-नए शोध कार्य हो रहे हैं। ऐसे लोगों से सिर्फ इतना ही कहना है कि अपनी भाषा में कबीर जैसे ‘गँवार’ लोग हमें मंजूर हैं।
भोजपुरी विरोधी लोग यह नहीं चाहते कि भोजपुरी-भाषी लोगों का जुड़ाव जमीन से रहे। ये भोजपुरियों को उनके जमीन से अलग कर उन्हें बोनसाई बनाकर रखना चाहते हैं। ये बोनसाई के गमले की तरह उनके आधार तल में ही सूराख करने की कोशिश में लगे हुए हैं। रस और जीवनीशक्ति से ये पुरबिहा लोगों को वंचित रखना चाहते हैं।
भोजपुरी की लड़ाई अपने अस्तित्व की लड़ाई है। इसे बचाना निज के पहचान को बचाए रखना है। इसे बोलने में न तो झिझक होनी चाहिए और न ही शर्म आनी चाहिए। सदी के सबसे बड़े कवि केदारनाथ सिंह पूरे आत्मविश्वास के साथ यह कहते हैं कि “हिन्दी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर।” मनुष्य को घर और देश दोनों की जरूरत है। देश में रहते हुए भी हमारी पहचान घर से है। यदि कोई पूछता है कि आप कहाँ के हैं तो हमें अपनी जमीन पर ही लौटना पड़ता है। महानगर में रहने वाले भोजपुरी विरोधियों को घर का दुख समझ में नहीं आ सकता। जिसे घर से यानी, अपनी ‘डीह’ से लगाव ही न हो वह घर के महत्व को भला क्या समझेगा, ऐसे लोगों से भोजपुरी सहित हिन्दी को भी खतरा है। जो व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अपनी मातृभाषा का विरोध कर सकता है वह कल हिन्दी का विरोध नहीं करेगा यह कैसे स्वीकार किया जाये। निश्चित ही वह कल बड़े स्वार्थ के लिए, विकास, डेवलपमेंट और आधुनिकता के नाम पर हिन्दी का भी विरोध करेगा। हमें ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए।
समकालीन हिन्दी कविता के तीसरी पीढ़ी के प्रमुख और महत्वपूर्ण कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव अपनी एक कविता में भोजपुरी के दुख को शब्द देते हुए लिखते हैं- “वैसे देखिये तो कितना अजब है/ कि हम दोनों भोजपुरिये हैं/ फिर भी नहीं बोल रहे भोजपुरी/ क्या ऐसा नहीं हो सकता …/ कि जब भी मिलें हम/ इस तरह मिलें/ जैसे मिलती हैं/ अलग-अलग दिशाओं में ब्याही दो सखियाँ/ वर्षों बाद किसी मेले में।” आज हम बेफिक्री से नहीं मिल रहे और इसी बेफिक्री के अभाव में हमारे आपसी रिश्तों के बीच आ गया है परायापन। जब भी हम मिलते हैं बीच में आ जाता है महानगर। इसी परायेपन की वजह से भोजपुरियों की खास पहचान ‘गपियाहट’ खत्म होती जा रही है और इसी ‘गपियाहट’ की कमी की वजह से लेखक अपने पाठकों से ‘दिल खोल गप’ नहीं कर पा रहा है, क्योंकि, “कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल-खोल गप तो गाँव की बोली में ही की जा सकती है किसी से।” (फणीश्वरनाथ रेणु) ‘रेणु’ ने ‘मैला आँचल’ और ‘तीसरी कसम’ सहित अपनी अन्य रचनाओं में, मन की बात, दिल-खोल कर ही की है, अपनी बोली के सहारे, अपनी माटी का रंग चढ़ा कर। आज इसी दिल-खोल गप के अभाव में साहित्य और पाठक के बीच दूरी बढ़ती जा रही है।
हिन्दी का शायद ही ऐसा कोई बड़ा कवि हो जिसने अपनी कविताओं में भोजपुरी के शब्दों का इस्तेमाल न किया हो। हमारे सबसे बड़े कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं के शब्दकोश की सबसे बड़ी लाइब्रेरी भोजपुरी पनपद का लोक ही है। ‘भोजपुरी’ ध्वनि और जुबान के महत्व को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं- “लोकतन्त्र के जन्म से बहुत पहले का /एक जिंदा ध्वनि-लोकतन्त्र है यह /जिसके एक छोटे से ‘हम’ में /तुम सुन सकते हो करोड़ों /‘मैं’ की धड़कनें”। आज इस ‘जिंदा ध्वनि-लोकतन्त्र’ के इतिहास को खत्म करने की साजिश रची जा रही है। कुछ हिन्दी-प्रेमी लोगों को लोक के इन शब्दों का इस्तेमाल करने में शर्म महसूस हो रही है, इन्हें ये शब्द ‘गँवारू’ लग रहे हैं। ‘तरकारी’ और ‘भात’ जैसे शब्द आज जीवन से गायब होते जा रहे हैं। “जीवन की दिशाओं में/ घुमरी लगाते/ धीरे-धीरे बिला जाते (गए) हैं/ बहुत से ऐसे शब्द/ जिनकी उँगली पकड़कर/ हमने सीखी थी कभी भाषा/ पहचानी थी कभी दुनिया।” (जितेन्द्र श्रीवास्तव)। यह सच्चाई है हमारे समय की। जिन शब्दों की उँगली पकड़कर हमने भाषा सीखी, उसे ही आज छोड़ रहे हैं, उसके साथ सौतेलेपन-सा व्यवहार कर रहे हैं।
भोजपुरी बोली को सरकारी मान्यता मिलने से इसमें शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ होगी, अलग-अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग विषयों पर शोध कार्य होंगे। बहुत-सी नयी सूचनाएँ सामने आएँगी, लुप्त होती जा रही लोककथाएँ और लोक-संस्कृतियों को शब्द-बद्ध किया जा सकेगा। भविष्य में इन ग्रन्थों का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी होगा तथा बहुत से विदेशी लोग भारतीय संस्कृति से परिचित होंगे। हम सब यह जानते हैं कि भारतीय संस्कृति शहर में नहीं इन लोकों में और इनकी बोलियों में ही सुरक्षित है, जो आज उचित संरक्षण के अभाव में खत्म हो रही हैं। अपनी संस्कृति-परंपरा को बचाए और बनाए रखने के लिए हिन्दी की बोलियों को बचाना बेहद जरूरी है। हमें यह समझना होगा कि ‘बची रहेंगी बोलियाँ/ बचे रहेंगे हम/ बची रहेगी हिन्दी’। संभावना यह भी कि आने वाले दिनों में यह बोली हमें फिर से कबीर और भिखारी ठाकुर जैसी प्रतिभा दे दे।
हिन्दी-प्रेम (?) के नाम पर यदि इसी तरह बोलियों का विरोध होता रहा तो, हम अपनी आने वाली पीढ़ी को विरासत में, संस्कृति और परंपरा के नाम पर सिर्फ ‘ट्विंकल-ट्विंकल लिटल स्टार’ ही दे पाएंगे। शायद बोलियों के विरोधी अपनी नयी पीढ़ी को परंपरा में यही दे भी रहे हैं। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पूंजीवाद और उपभोक्तावाद की इस संस्कृति में हम अपने अस्तित्व, अपने निजी पहचान को इन बोलियों के सहारे ही बचा कर रख सकते हैं।
बोलियों के विरोधियों को यह बात समझनी चाहिए कि बोलियों के स्वतंत्र अस्तित्व में आने से हिन्दी को कोई खतरा नहीं है। हिन्दी शुरू से ही बाजार की भाषा थी, है और रहेगी। भारत एक बहुत बड़ा बाजार है, आज यहाँ हर कोई अपना समान बेचना चाहता है, भारत के बाजार में आने के लिए वे हिन्दी सीख रहे हैं, अपने प्रोडक्ट पर अपनी भाषा के अलावा हिन्दी भी लिख रहे हैं। हाँ, यह जरूर सत्य है कि इन कंपनियों ने और टी.वी. सीरियल ने हिन्दी का रूप बदल कर रख दिया है। हिन्दी के इस बिगड़ते हुए रूप को, हिन्दी की बोलियों के सहारे ही बचाया जा सकता है। हिन्दी के पक्षधर लोगों को इसकी बोलियों का नहीं बल्कि इस बिगड़ती हुई हिन्दी का विरोध करना चाहिए। संकट कहीं और है और विरोध कहीं और हो रहा है। सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना या सुर्खियों में बने रहने के लिए विरोध करना ठीक नहीं।
भोजपुरी विरोधी लोगों का यह भी कहना है कि भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से कबीर भोजपुरी के कवि बनकर रह जाएँगे। वे हिन्दी से अलग हो जाएँगे। क्या कबीर सिर्फ इनके अकेले के हैं? वे कौन होते हैं इसका निर्णय लेने वाले? किसी पढ़ना है किसी नहीं पढ़ना है इसका निर्णय खुद पाठक करता है। बहुत से ऐसे हिन्दी के लेखक हैं जिन्हें हिन्दी वाले भी नहीं पढ़ते। क्या हमने विद्यापति को मीरा को पढ़ना छोड़ दिया है? विद्यापति का ही कहना है “देशिल वयना सब जन मिट्ठा/ तं तैसन जंपयो अवहट्टा।” इयका अर्थ अलग से बताने की जरूरत नहीं। ये लोग कबीर या अन्य कवियों के नाम पर समाज में एक सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहे हैं।
भोजपुरी विरोधियों को एक बार इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिए कि हिन्दी के सबसे बड़े और युग द्रष्टा, क्रांतिकारी कवि कबीर की बोली को भाषा की मान्यता मिलनी चाहिए या नहीं? यदि नहीं मिलनी चाहिए तो क्यों? क्या हिन्दी के लोग भोजपुरिया कबीर को पढ़ना छोड़ दिये हैं? या वे सिर्फ भोजपुरी के ही कवि हैं? जब हमें कबीर और उनका साहित्य स्वीकार है तो फिर उनकी बोली क्यों नहीं?
किसी भी बोली को भाषा की मान्यता उसके बोलने वाले लोगों की जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी साहित्यिक क्षमता के आधार पर मिलनी चाहिए और भोजपुरी बोली की साहित्यिक क्षमता किसी से छिपी नहीं है। आज भोजपुरी में फिल्में बन रही हैं, सीरियल बन रहे हैं, इतना ही नहीं बल्कि बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियाँ अपना विज्ञापन भोजपुरी बोली में बनवा रही हैं। यह भोजपुरी की क्षमता नहीं तो और क्या है? भोजपुरी अपने दम पर आगे बढ़ रही है। हर भाषा को, हर बोली को पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए विकास करने की। मनुष्य के विकास के साथ बोलियों का विकास भी जरूरी है।
भोजपुरी का दुख कबीर के दुख से कम या अलग नहीं है। आज वह अपने ही घर में अपने ही लोगों द्वारा उपेक्षित हो रही है। हिन्दी साहित्य को कबीर और भिखारी ठाकुर जैसे कवि-लेखक से समृद्ध करने वाली भोजपुरी आज उचित संरक्षण के अभाव में अंधेरे का शिकार हो रही है। यदि यही स्थिति रही और इसी तरह विरोध होता रहा तो कबीर और भिखारी ठाकुर जैसे कवि-लेखक भी अँधेरे में खोकर रह जाएँगे? भोजपुरी के खत्म होते ही ये भी साहित्य के परिदृश्य से गायब हो जाएँगे। जब बोली बचेगी ही नहीं तो, इन्हें पढ़ेगा कौन, समझेगा कौन?
आखिरी बात, भोजपुरी के खत्म हो जाने से हीरा डोम जैसा व्यक्ति कहाँ जाएगा? वह किस भाषा में अपनी पीड़ा, अपनी तकलीफ और अपनी अनुभूति को व्यक्त करेगा? उसे तो सिर्फ भोजपुरी ही आती है? भोजपुरी को भाषा का दर्जा मिले या नहीं इस पर कोई निर्णय लेने से पूर्व हमें इन सारे पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
भोजपुरी जैसी समृद्ध और जीवंत बोली को मरने नहीं दिया जा सकता। इसे प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए। हमारे अंदर इसे बचाने और इसका व्यवहार करने की जिद होनी चाहिए। कबीर और भिखारी ठाकुर जैसे हमारे सांस्कृतिक धरोहर इस बोली को बचाने से ही बचे रह सकते हैं। अब सवाल बोली या भाषा का नहीं बल्कि सांस्कृतिक संकट का है। निर्णय आपके हाथ में है आप क्या चाहते है? अपनी पीढ़ी को विरासत में क्या देना चाहते हैं?
(सहायक प्रोफेसर, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विवि), कोलकाता )

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