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सांसदों, विधायकों के खिलाफ मामले वापस लेने से पहले सरकार को हाईकोर्ट की मंजूरी लेनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को वापस लेने से पहले सरकारों को संबंधित उच्च न्यायालय की मंजूरी लेनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने जोर देकर कहा कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के मामलों को वापस लेने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन उच्च न्यायालय को ऐसे मामलों की जांच करनी चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, दुर्भावनापूर्ण अभियोजन होने पर हम मामलों को वापस लेने के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन उच्च न्यायालय में न्यायिक अधिकारी द्वारा इसकी जांच की जानी चाहिए। यदि उच्च न्यायालय सहमत होता है तो मामले वापस लिए जा सकते हैं।

वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया को 2016 में अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर एक याचिका में एमिकस क्यूरी यानी न्याय मित्र नियुक्त किया गया था, जिसमें मौजूदा और पूर्व सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे में तेजी लाने के निर्देश की मांग की गई थी। हंसरिया ने शीर्ष अदालत में एक रिपोर्ट दायर की है। इस मामले में अधिवक्ता स्नेहा कलिता ने सहयोगी के तौर पर उनकी मदद की है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य सरकार ने न्याय मित्र को सूचित किया है कि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित 510 मामले मेरठ क्षेत्र के पांच जिलों में 6,869 आरोपियों के खिलाफ दर्ज किए गए थे। इनमें से 175 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया गया, 165 मामलों में अंतिम रिपोर्ट पेश की गई और 170 मामलों को हटा दिया गया।

रिपोर्ट में कहा गया है, इसके बाद राज्य सरकार द्वारा सीआरपीसी की धारा 321 के तहत 77 मामले वापस ले लिए गए। सरकारी आदेश सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मामले को वापस लेने का कोई कारण नहीं बताते हैं। इसमें केवल यह कहा गया है कि विशेष मामले को वापस लेने के लिए प्रशासन ने पूरी तरह से विचार करने के बाद निर्णय लिया है।

न्याय मित्र ने प्रस्तुत किया कि केरल राज्य बनाम के. अजीत 2021 के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून के आलोक में, सीआरपीसी की धारा 401 के तहत पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का प्रयोग करके उच्च न्यायालय द्वारा 77 मामलों की जांच की जा सकती है।

बुधवार को, हंसारिया ने तर्क दिया कि प्रत्येक मामले में तर्कपूर्ण आदेश हो सकता है। बेंच में जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और सूर्यकांत ने कहा कि वह सभी मामलों की जांच नहीं कर सकते हैं और उन्हें उच्च न्यायालय जाने में उठाना जाना चाहिए। हंसारिया ने प्रस्तुत किया कि उच्च न्यायालय को सीआरपीसी की धारा 309 के संदर्भ में लंबित मामलों के दिन-प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई में तेजी लाने के लिए प्रशासनिक निर्देश जारी करने का निर्देश दिया जा सकता है।

सुनवाई के दौरान, प्रधान न्यायाधीश ने न्यायपालिका और सीबीआई या ईडी जैसी जांच एजेंसियों के सामने आने वाली समस्याओं के बीच समानता के बारे में भी बात की। उन्होंने कहा कि हमारी तरह ही जांच एजेंसियां मैनपावर, इंफ्रास्ट्रक्च र की कमी से जूझ रही हैं। पीठ ने कहा, हम इन एजेंसियों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि हम उनका मनोबल नहीं गिराना चाहते हैं, उन पर बहुत अधिक बोझ है। न्यायाधीशों के साथ भी ऐसा ही है।

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