चीन की नई प्रयोगशाला अफगानिस्तान
नई दिल्ली: अफ़ग़ानिस्तान यूंही महाशक्तियों के सामरिक, आर्थिक, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओ की प्रयोगशाला नहीं है। इसे यूहीं हार्ट ऑफ एशिया नहीं कहा जाता। इस बात को हाल में चीन ने सिद्ध कर दिया है। कुछ ही दिनों पहले चीन ने एक वर्चुअल मीटिंग में 4 देशों के मध्य सहयोग का आवाहन किया है जिससे चीन के नए मंसूबे का पता चलता है।
चीन के विदेश मंत्री ने कहा है कि चीन, पाकिस्तान, नेपाल और अफगानिस्तान को मिलकर कार्य करना होगा ताकि कोविड से निपटा जा सके लेकिन चीन की इस मेडिकल डिप्लोमेसी के पीछे उसका बड़ा मकसद तब स्पष्ट हुआ जब चीनी विदेश मंत्री ने पाकिस्तान, नेपाल और अफगानिस्तान से कहा कि वह चीन पाकिस्तान इकोनामिक कॉरिडोर को अफगानिस्तान तक विस्तार देने में मदद करें।
इस “फोर पार्टी कोऑपरेशन” की आड़ में चीन ने तीनों देशों को वन बेल्ट वन रोड इनीशिएटिव के तहत चलने वाली परियोजनाओं को जारी रखने में सहयोग करने पर बल दिया है। सबसे खास बात तो यह है कि चीन ने मीटिंग में अफगानिस्तान और नेपाल को ज्यादा से ज्यादा पाकिस्तान जैसा बनने को कहा है यानी ये दोनों देश पाकिस्तान जैसी निष्ठा चीन के लिए जाहिर करें। चीन के विदेश मंत्री ने इस मीटिंग में यह भी कहा कि चारों देशों को भौगोलिक लाभों को लेने के लिए एक साथ आना होगा पारस्परिक आदान-प्रदान और कनेक्शंस को मजबूत करना होगा और इन चारों देशों और मध्य एशियाई देशों के बीच संबंधों को मजबूती देनी होगी और इससे क्षेत्रीय शांति और स्थिरता बनी रहेगी।
यह कितना विरोधाभासी है कि भारत, भूटान और नेपाल के क्षेत्रों को हड़पने की मंशा से सराबोर चीन क्षेत्रीय शांति और स्थिरता का हवाला देकर इन चारों देशों में सहयोग स्थापना की बात कर रहा है। चीन का कहना है कि चारों देश सीपेक और ट्रांस हिमालयन थ्री डाइमेंशनल इंटरकनेक्टिविटी नेटवर्क के निर्माण में सहयोग करें और सीपेक को अफगानिस्तान से जोड़कर क्षेत्रीय अंतरसंपर्क लाभों को प्राप्त करने का अवसर निर्मित करें। भारत को संलग्न किए बिना दक्षिण एशियाई देशों को चीन ने नए तरीके से घेरने की कोशिश की है और यह उसके आर्थिक साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने आयरन ब्रदर संबंधों का हवाला देते हुए कहा है कि अच्छा पड़ोसी मिलना अच्छे सौभाग्य की बात होती है। यद्यपि इसको महामारी प्रबंधन सहयोग की मीटिंग के रूप में चित्रित किया गया लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात उभरकर यह आई कि चीन ने अफगानिस्तान में अपनी रुचि बढ़ा दी है। इसके तीन बड़े कारण हैं। पहला, भारत की अफगानिस्तान के साथ विकासात्मक और सामरिक साझेदारी की मजबूती को प्रभावहीन करना। दूसरा, अफगानिस्तान द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ कार्य न करने देने का माहौल बनाना क्योंकि चीन और पाकिस्तान प्राकृतिक और सामरिक साझेदार दोनों हैं।
चीन जो पाकिस्तान को अपने सामरिक आर्थिक हितों की प्रयोगशाला समझता है, ऊर्जा सुरक्षा का उपकरण और भारत विरोधी अभियानों को सबसे मजबूत मोहरा समझता है, वह कभी नहीं चाहेगा कि अफ़ग़ानिस्तान के संबंध पाकिस्तान से किसी भी प्रकार प्रभावित हों। यहां गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र में अफ़ग़ानिस्तान के स्थाई प्रतिनिधि ने कुछ ही दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को लिखित रूप से कहा है कि पाकिस्तानी सैन्य बल अफ़ग़ान भू क्षेत्रों का अतिक्रमण कर रही है और इस मामले में आवश्यक उपाय किए जाएं जिससे मामला और अधिक गंभीर ना हो। फ़रवरी और अगस्त 2019 में भी अफ़ग़ानिस्तान यह मामला संयुक्त राष्ट्र में उठा चुका है।
तीसरा, चीन के पड़ोसी मध्य एशियाई देशों की सीमाओं तक धार्मिक अतिवाद, अलगाववाद, नार्को आतंकवाद ना पहुंचे, अफ़ग़ानिस्तान में स्थित उइगर मुस्लिमों का आईएसआईआईएस से गठजोड़ चीनी हितों को प्रभावित ना कर सके, इसके लिए चीन को अफ़ग़ानिस्तान में अपने प्रति निष्ठा को बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है। इसलिए पिछले दो वर्षों में चीन अफ़ग़ान मामलों में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा है। वह अफ़ग़ानिस्तान को अपने व्यापक हितों के परिप्रेक्ष्य में देखने लगा है और इसी लिए उसे एससीओ के संवाद साझेदार के रूप में अहमियत भी देने लगा है। चीन ने इसीलिए तालिबान शांति वार्ता में भी रुचि दिखाई और इस दिशा में पिछले वर्ष अपनी नेतृत्वकारी भूमिका के प्रति सजग हुआ।
तालिबान से वार्ता की व्यग्रता में महाशक्तियों की जुलाई, 2019 में बीजिंग में अफगान शांति प्रक्रिया पर हुई बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर अपने सामरिक महत्व को दर्शाते हुए बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में इस बात पर जोर दिया कि वार्ता अफगान- नेतृत्व और अफगान स्वामित्व वाली सुरक्षा प्रणाली के विकास को लेकर होनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके शांति का कार्यढांचा प्रदान करने वाली होनी चाहिए।
बीजिंग में अफगान शांति प्रक्रिया को लेकर हुई बैठक में अपेक्षा की गई थी कि अफगानिस्तान में पीस एजेंडा व्यवस्थित, जिम्मेदारीपूर्ण और सुरक्षा स्थानांतरण की गारंटी देने वाला होना चाहिए। इसके साथ ही इसमें भविष्य के लिए समावेशी राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा व्यापक प्रबंध होना चाहिए जो सभी अफगानों को स्वीकार्य हो। इस बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने प्रासंगिक पक्षों से शांति के इस अवसर का लाभ उठाने और तत्काल तालिबान, अफगानिस्तान सरकार और अन्य अफगानों के बीच अंतर-अफगान बातचीत शुरू करने को कहा गया था।
चीन ने पहली बार माना था कि उसने बीजिंग बैठक में अफगानिस्तान तालिबान के मुख्य शांति वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को अपने देश में आमंत्रित किया। बरादर और चीनी अधिकारियों के बीच अफगानिस्तान में शांति बहाली और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मुद्दे पर व्यापक बातचीत हुई।
गौरतलब है कि बरादर ने चार अन्य नेताओं के साथ मिलकर 1994 में तालिबान का गठन किया था। पाकिस्तान सरकार ने वर्ष 2018 में ही बरादर को जेल से रिहा किया था। मुल्ला बरादर को तालिबान के सर्वोच्च नेता मुल्ला उमर के बाद सबसे प्रभावशाली नेता माना जाता था। चीन अफगानिस्तान-पाकिस्तान में सुलह कराना चाहता है। दोनों ही शंघाई सहयोग संगठन के भाग हैं और दोनों चीन के सामरिक हितों के लिए जरूरी हैं। इसके अलावा चीन के शिंजियांग प्रांत से प्रशासन की ज्यादतियों से भागकर उईगर मुसलमान अफगानिस्तान में शरण ले रहे हैं। वहां चीन के खिलाफ आवाज उठ रही है। इसको दबाना भी चीन की रणनीति है, इसलिए वह अफगानिस्तान शांति वार्ता में अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका की तलाश में सक्रिय हुआ है।
यह एक सर्वविदित सत्य है कि चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक सबसे बड़ा मोहरा पाकिस्तान है। हालिया संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट कहता है कि अवैधानिक आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पीपीपी और अन्य आतंकी संगठनों के 6000 से अधिक आतंकी जो पाकिस्तान सेना और जनता को निशाना बनाते हैं अफगानिस्तान में छुपे हुए हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस संगठन का अफगानिस्तान स्थित आईएसआईएस खुरासान के साथ गठजोड़ है और टीपीपी के कई सदस्य इसमें शामिल हो चुके हैं। इनके खिलाफ़ अफ़ग़ान सुरक्षा बलों, अमेरिका और नाटो सैन्य बलों ने कार्यवाही की है।
वहीं दूसरी तरफ अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देने में भारत की सक्रिय भूमिका किसी से छिपी नहीं है और अमेरिका भारत को नाटो देशों के समान दर्जा देने वाले प्रस्ताव को मंजूरी दे चुका है। इस दृष्टिकोण से चीन पाकिस्तान कभी नहीं चाहेंगे कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत और अमेरिका की संलग्नता सबसे प्रभावी हो। इसलिए चीन की अफ़ग़ानिस्तान में रुचि बढ़ गई है।
यह एक सर्वविदित सत्य है कि चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक सबसे बड़ा मोहरा पाकिस्तान है। वहीं भारत ने अफगानिस्तान में विकासात्मक परियोजनाएं चलाकर उसका डेवलपमेंट पार्टनर बनना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। आतंकवाद के भुक्तभोगी भारत के इस पक्ष को वैश्विक स्तर पर सही भी ठहराया गया है। भारत ने अफगानिस्तान में 4 बिलियन डॉलर से अधिक का विकास निवेश किया है।
अफगान संसद का पुनर्निर्माण, सलमा बांध का निर्माण, जरंज डेलारम सड़क निर्माण, गारलैंड राजमार्ग के निर्माण में सहयोग, बामियान से बंदर ए अब्बास तक सड़क निर्माण, काबुल क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण किया है और प्रतिरक्षा मजबूती के लिए चार मिग 25 अटैक हेलीकॉप्टर दिए हैं। अफगान प्रतिरक्षा बलों को भारत सुरक्षा मामलों में प्रशिक्षण भी दे रहा है। चबाहार और तापी जैसी परियोजनाओं से दोनों जुड़े हुए हैं। भारत ने अफगानिस्तान में सैन्य अभियानों में किसी तरह की संलग्नता ना रखने की नीति बनाई ताकि वह हक्कानी नेटवर्क, आइसिस खोरासान, तहरीक ए तालिबान जैसे संगठनों का प्रत्यक्ष रूप से निशाना ना बन जाए जैसा कि आज अमेरिका और नाटो के साथ है।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)