दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

वो चिट्ठियाँ बहुत याद आती है…

डा़ॅ. धीरज फुलमती सिंह

मुम्बई: इंटरनेट और मोबाईल फोन के इस आधुनिक युग में वह लाल डब्बा अब कही दिखाई नहीं देता जिसे आम तौर पर लोग पोस्ट बाक्स कहते थे। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मोबाईल फोन ने उसका अपहरण कर लिया है या फिर वह खुद इंटरनेट की चकाचौंध में खुद को कही छुपा लिया है। कितने ही वर्षो तक यह पोस्ट बॉक्स हमारा हम सफर और राजदान रहा।

एक वक्त था जब यह लाल रंग का पोस्ट बॉक्स कई मर्तबा सडक के किनारे या किसी मोड पर खडा एकटक हमारा इंतजार करता रहता। तब हमारे हाथों मे चिट्ठियां होती, हमे अपने पास आता देख, खुश हो जाता। अब वो भोले लोग भी नहीं दिखाई देते जो छत पर कौवे की कांव-कांव को चिट्ठी आने का संदेशा समझ, दूआर पर डाकिये की बाट जोहते रहते थे।

अब तो संदेश आदान-प्रदान का एक ही माध्यम रह गया है ..इंटरनेट? सोशल मीडिया के माध्यम से पलक झपकते कब कोई खबर यहा से वहा पहुँच जाती है, इसका इल्म ही नही हो पाता। न अब खबरों में पहले जैसी मिठास ही है और न वो स्नेहल विश्वास जिसमे आँखे चिट्ठी के इंतजार में एक टक दरवाजे पर लगी रहती थी।

मानता हूँ कि चित्रकारी, नक्काशेकारी, अदाकारी की तरह लेखन भी एक कला है लेकिन चिट्ठी लिखने के लिए किसी पारंगता या विशेषज्ञता की जरूर नहीं होती है, बस अपने मन की भावनाओं को कलम की सहायता से कागज पर उडेलते जाओ, चिट्ठी अपने आप अपनी मंजिल की तरफ चलने लगती है। चिट्ठी लिखने मे भाव से ज्यादा भावनाओं का महत्व होता है और ये भावनाएं विडियों कॉल या फोन के जमाने में अब शायद कहानियाँ होती जा रही है।

अब तो ऐसा है कि एसएमएस, सोशल नेटवर्किंग, वॉट्सअप और फेसबुक के जमाने मे बनी बनाई (रेडी मेड) भावनाएं कुछ मोल चुका कर खरीद सकते हैं और उसी को इस माध्यम से संप्रेषित करके लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। जब भावनाएं ग्रिटींग कार्ड में उकेरी हुई बाजार में बिकने के लिए मौजूद है तो ऐसे मे अंतर्देशीय पत्र, पोस्ट कार्ड पर लिख कर अपनी भावनाएं भला कौन वयक्त करे?

पत्र के माध्यम से अपनी बात कहने व लिखने के लिए पोस्ट ऑफिस से मिलने वाले नीले रंग के अंतर्देशीय पत्र, पीले रंग का पोस्ट कार्ड अब तारीख़ मे दर्ज होने की कगार पर आ चुके है। थोडे से शब्दो मे अपनी बात कहने, अपनी कुशलता, अपनी खुशी, अपना दुख बयां करने का सबसे तेज माध्यम “तार” तो कब का इतिहास हो चुका है। पुराने लोगों के जेहन में तो अब उसकी याद ही बाकी है, नवयुवकों को तो इस का इल्म भी नहीं होगा? उनके लिए तो “तार” शायद अब यह कोरी गप्प जैसा ही कुछ लगे?

जज्बातों को अल्फाज देती, कागज के कुछ पन्नो पर सिमटी चिट्ठी, मन की भावनाओं को रास्ता दिखाती चिट्ठियां, चिट्ठी लिखने की कला आज मानो खत्म सी होती जा रही है। डाकिये के माध्यम से भावनाओं को मंजिल तक पहुंचाती चिट्ठीयां आज विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है, सीधे और सपाट शब्दो मे कहूँ तो समझ लिजिए, विलुप्त ही हो चुकी है।

थोडा खुल कर कहूँ तो आज की स्कूली या कॉलेज जाने वाली अधिकांश पीढी को यह पता नहीं है कि चिट्ठीयां लिखी कैसे जाती है, चिट्ठी लिखना, कही-कही अब तो उनके अध्याय का भाग भी नहीं रहा, ऐसे मे उनको इसका ज्ञान होगा भी तो कैसे? अब तो मातृ दिवस, पालक दिवस, भाई-बहन, बेटा-बेटी से प्रेम और विश्वास के इजहार के लिए भी कुछ रुपयों मे यहा कार्ड उपलब्ध है। यह सब तो दूर की बात है, प्रेमी प्रेमिका के आपसी संबंधों मे भावनाओ को प्रदर्शित करने के लिए भी बाजार में बने बनाए ग्रटिग कार्ड मिलते हैं।

भावनाएं और संवेदनाएं बाजार मे लिखी-लिखाई बिक रही है ऐसे मे वह गाढा और गहरा इश्क कहा से पैदा हो, शायद इस लिए भी आज कोई रिश्ता ज्यादा देर तक टिकता ही नहीं। वैसे भी बाजार में बिकने वाली हर वस्तुओं की एक्स पायरी डेट तो होती ही है, फिर रेडी मेड भावनाएं कब तक टिकेगी? एक ना एक दिन तो खत्म होनी ही है। बाजार में भावनाएं खरीदने पर उसके के साथ एक्स पायरी डेट भी जुड़ी तो होगी ही ना? बाजार का नियम भी यही है। यहां हर चीज एक्स पायरी डेट के साथ बिकती है और कमाल की बात तो देखिए जनाब, जानते-बुझते लोग बाग लिखी हुई खत्म होने वाली इन भावनाओं का मोल चुका कर खरीद भी लेते हैं।

सामाजिक रचना मे रिश्तो का बहुत महत्व होता है, बहुत मोल होता है, प्रेम के महीन धागों से बुने ये रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं। माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त, पति-पत्नी, बेटा-बेटी, चाचा-चाची, मामा -मामी, रिश्तों का रूप चाहे जो भी हो, चिट्ठिया इन रिश्तों को सुई की तरह पिरो कर सहेज के रखती थी। आज चिट्ठीया गुम है तो रिश्ते भी खोते जा रहे हैं।

मशहूर फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन ने प्रण पत्रिका, शैलेश टियानी ने अपनी कहानी चिट्ठियां और दायरे (1959), अमृता प्रीतम ने अपनी महान कृति रसीदी टिकट, चिरंजीत ने अपने नाटक चिट्ठी की कहानी-कबूतर से हवाई जहाज तक(1956), राघेय राघव ने ओ प्रवासी(1966) राजेंद्र यादव ने तुम्हारा पत्र आया है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डॉ. भगवत शरण उपाध्याय, लक्ष्मी कांत वर्मा, देवेन्द्र उपाध्याय ने पत्रों को केंद्र मे रखकर ही कई कालजयी रचनाओं को मूर्त रूप दिया है।

रवीद्र नाथ टैगोर का नाटक पोस्ट ऑफिस, कालीदास का मेघदूत तथा कई अन्य रचनाएं पत्रों की महिमा का बखान खुब करती है। कल्पना कीजिए कि अगर चिट्ठियों का अस्तित्व न होता तो क्या हमे कभी इतना बेहतरीन साहित्य पढने को मिलता?.. कभी नही। चिट्ठीयों के बारे मे गिरिजा कुमार माथूर की राय थी कि ..” खत निजी अखबार है घर का, अकेले का सहारा है, मोहब्बत दोस्ती की निशानी है।” लेकिन आज सब बीतीं बिसरी बातें ही रह गई है, जिसका आज के समय से कोई वास्ता नहीं है।

यह ख़तों का ही आकर्षण था कि कई फिल्मी गीतकारों ने भी इनके आर्कषण में बंध कर” ख़त लिख दे सजनवा के नाम बाबू” ,”गुम है किसी के प्यार मे दिल सुबह-शाम”,”डाकिया डाक लाया,” जैसे कालजयी गीतों को शब्द देने को मजबूर हुए। ये चिट्ठीयां ही है जो अपने अलग-अलग नामों, रूपों मे भिन्न-भिन्न भावनाओं को वयक्त करने का जरिया रही है।

कभी मनी ऑर्डर के बहाने बेटे के कुशल छेम की आस लगाये माता पिता, अंतर्देशीय पत्र के बहाने पति की ख़ुशबू को खोजने की कोशिश करती पत्नी या माशूक़ के इश्क को महसूस करती माशुका, पोस्ट कार्ड के बहाने बेटी के स्पर्श को महसूस करता पिता, बुजुर्गों के आर्शिवाद के भाव के बहाने उनकी छुअन को अंगीकार करने के प्रयास में युवक, कभी तार के माध्यम से अपनी नौकरी लगने की बाट जोहता फिर नौकरी लगने की खुशी को बांटता बेरोजगार जैसे अभी कल की ही बात हो। कहा गये वो दिन, जब किसी लिफाफे को हाथ से खोलने पर वह जीवन संगीत, जिससे सांझ-भिंसहरे और लंबी दुपहरिया प्रकाशित रहती थी?

आधुनिक और संचार क्रांती के युग मे मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया के आने के बाद से अब कोई चिट्ठी-पत्री शायद ही लिखता है? शायद यही कारण है कि तार को कुछ सालों पहले बंद कर देना पडा, अंतर्देशीय पत्र और पोस्ट कार्ड की मांग कम होने के कारण इसे सिमित कर दिया गया। शहरों की तो दूर की बात है, गावों-कस्बों में लगे डाक पेटी (पोस्ट बाक्स) अब बस शो पीस सरीखे हो गये है। अब इनमे कोई चिट्ठी नहीं डालता।

ये पोस्ट बाक्स चिट्ठियों की आस मे दिन पर दिन मुरझाए जा रहे हैं। कई पेटियों के ताले, कई दिनो तक चिट्ठीयों के अभाव मे खुलते तक नही है, कईयों पर तो जंग लग चुकी हैं। अब भी यह लाल रंग का पोस्ट बॉक्स कभी-कभी सडक के किसी कोने मे गुमसुम खडा कातर निगाहों से हमारा इंतजार करता रहता है,अब हमारे हाथ मे चिट्ठियां नही, मोबाइल होता है।

कोरे कागज के कैनवास पर कलम के कमाल से उकेर कर संवेदनाओं और भावनाओं की संदेश वाहक वो चिट्ठियां आज बहुत याद आती है।

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