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लाचार गरीबों पर सियासत

अशोक पाण्डेय

लखनऊ: पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश में सियासी नौटंकी चल रही है। प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए कांग्रेस महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा ने 16 मई को एक पत्र जारी करते हुए कहा कि प्रवासी श्रमिकों के मदद करने के लिए हम एक हज़ार बसों को चलाने की आपसे अनुमति चाहते हैं। जिससे बेसहारा प्रवासी श्रमिकों को उनके घर पहुंचाया जा सकें। यह प्रस्ताव यूपी के योगी सरकार के सामने पेश किया। हालांकि यूपी सरकार ने 1000 बसें उपलब्ध कराने की प्रियंका गांधी की पेशकश को दो दिन बाद स्वीकार कर लिया था लेकिन इस दौरान दोनों पक्षों की ओर से लगातार हो रहे पत्राचार और ट्वीट ने इस पूरे घटनाक्रम का राजनीतिकरण कर दिया है।

फ़िलहाल स्थिति यह है आगरा की सीमा पर खड़ी बसों को अनुमति नहीं मिलने पर बसें वापस हो रही है। और नोएडा डीएनडी पर कांग्रेस द्वारा लाई गई बसों को प्रदेश पुलिस ने कब्जे में ले लिया है.वही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को गिरफ्तार किया गया और प्रियंका गांधी के निजी सचिव सहित अलग-अलग जगह पर कई अन्य लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया है।

बीजेपी और कांग्रेस के बीच सियासी ड्रामा जारी है। सियासी पार्टी में सियासत नजर आना स्वाभाविक है और लोकतांत्रिक व्यवस्था का ढांचे में सियासत का शिल्प भी लोकहित मे तैयार किया गया है। यानी आपको सियासत करने के लिए जनता का विश्वास जीतना पड़ेगा। जिसके लिए सिर्फ बातों और वादों से ही नहीं जमीन पर उतर कर काम करना पड़ेगा। यदि सत्ता मे हैं तो काम करना है, और विपक्ष मे हैं तब भी जनहित के लिए समर्पित और सक्रिय रहना है। जो जरुरी काम सरकार नहीं कर रही वो काम विपक्ष दबाव बना कर करवा ले। सरकार विपक्ष की मांग या दबाव को नजरअंदाज कर दे तो सदन में या सड़क पर उतर कर जनहित के काम करवाएं जाएं।

और यदि फिर भी सरकार काम नहीं कर रही और ये काम विपक्ष कर सकता है तो विपक्ष वो काम करके जनता का दिल जीत सकता है। इस तरह विपक्ष सत्ता पक्ष को आईना भी दिखा सकता है। लेकिन दुर्भाग्यवश सियासत पहले जैसी नहीं रही। इस पूरे मामले के बीच अब भी मज़दूर पैदल घर जा रहे हैं और बसों का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन, दोनों पार्टियों की सियासत में मज़दूरों में जगी मदद की उम्मीद कहीं गुम हो गई है।

कोरोना महामारी की वजह से देश के अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे मजदूर और कामगार अपने प्रदेश वापस लौट रहे है। एक अनुमान के मुताबिक इनकी संख्या करीब तीस करोड़ है। अपने गांवों-कस्बों-शहरों की ओर पैदल, ट्रकों, कंटेनरों से लौटते दुर्भाग्यशाली कामगार सड़कों पर कुचलकर, गाड़ियों की टक्कर से या फिर रेल लाइन पर कटकर जान गंवा रहे हैं, पर लगता नहीं कि किसी की पेशानी पर बल पड़ रहा है। जब महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 श्रमिक रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर मर गए और देश भर में हाहाकार मचा तो लगा कि यह इस कड़ी की अंतिम त्रासद घटना साबित होगी किंतु ऐसा नहीं हुआ।

कुछ ही दिनों बाद उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में करीब 25 मजदूरों की मौत का समाचार मिलने के बाद से सड़क दुर्घटनाओं में मजदूरों के मरने-घायल होने की खबरों का सिलसिला कायम है। यदि आप लॉकडाउन के समय से गणना करेंगे तो सड़कों पर जान गंवाने वालों कामगारों की संख्या 200 से ऊपर पहुंच गई है।

ये घटनाएं अगर हमें विचलित नहीं करतीं तो मान लेना चाहिए कि हम मनुष्य हैं ही नहीं। एक साथ बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूरों का अपने घरों को लौटने के असाधारण फैसले के जवाब में राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के पास कोई ठोस कार्रवाई या राहत प्लान नहीं दिखा, जिससे समय रहते हालात सामान्य हो पाते। प्रवासी मजदूरों के बीच जान बचाने और अपने घरों को लौट जाने की देशव्यापी दहशत के बीच सरकारों की मशीनरी भी असहाय सी दिखी। इस अप्रत्याशित स्थिति का देश के किसी भी जिम्मेदार पदाधिकारी को रत्ती भर अंदाजा नहीं था। लॉकडाउन की स्थिति में झुंड बनाकर चल रहे इन मेहनतकशों की तस्वीरों ने देश के सामने कुछ गहरे सामाजिक-आर्थिक सवाल खड़े कर दिए हैं?

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