सरस्वती : एक खोई हुई नदी की कहानी

नदी का बदलना संस्कृतियों को बदल देता है। विहंगम इसी बदलाव को समझने की एक छोटी-सी कोशिश है। गंगापथ पर फैली कहानियां एक नदी संस्कृति के बनने की कहानी है। वराह का आंदोलन, सरस्वती तट के विस्थापितों के पदचिह्न और अक्षय वट की गवाही, कुंभ और सनातन के विराट होते जाने की कहानी है। इन कहानियों में गंगा के साथ बहती उसकी नहरें भी हैं, जिनका अपना समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र है। अभय मिश्र की यह नई पुस्तक नदी के भूगोल को देखने और इस भूगोल के सांस्कृतिक इतिहास की गलियों से गुज़रने का एक प्रयास है। प्रस्तुत है इस पुस्तक का एक अंश।
पुस्तक : विहंगम
लेखक : अभय मिश्र
प्रकाशक : पेंगुइन स्वदेश
बेशक कुंभ प्रयागराज में संपन्न होता है लेकिन काशी इस पूरे आयोजन में मौजूद रहती है। वैसे प्रयाग कुंभ में काशी की भूमिका का कोई शास्त्रीय विधान नहीं है, फिर भी काशी के बिना कुंभ का प्रारंभ और समापन नहीं होता। मकर संक्रांति के प्रथम स्नान से पूर्व सबसे बड़ा और ताकतवर, जूना अखाड़ा का मुख्यालय ‘बुड्ढा पंच’ कुंभ क्षेत्र पहुंचता है। तकरीबन उसी समय अखाड़े के काशी मुख्यालय के काशी कोठार में बड़ी संख्या में नागा जुटते हैं। इस कोठार में नागाओं के प्रथम पूज्य देवता मौजूद हैं। उनका नाम है भाला देवता। भाला देवता की पूजा होती है और उनका प्रयाग प्रयाण होता है। धर्मध्वजा के साथ नागाओं की एक टुकड़ी भाला देवता को लेकर काशी से पैदल चलकर पांच दिन में प्रयाग पहुंचती है। जूना के वरिष्ठ साधुओं को बुड्ढा पंच और युवा साधुओं को रमता पंच कहा जाता है, लेकिन जो साधु भाला देवता को लेकर चलते हैं, उनके लिए देवता पंच का संबोधन है। देवता पंच के मुखिया भाला देवता को कंधे पर उठाए हुए गंगा का रेतीला मैदान पार कर, दारागंज के पास बेनीमाधव गली के मोड़ पर पहुंचते हैं, जहां जूना अखाड़े के साधु-संत फूल-मालाओं से देवता पंचों का स्वागत करते हैं। यहां आवाहन अखाड़े के देवता भी भाला देवता के साथ हो जाते हैं और कारवां आगे बढ़ता है। यह यात्रा नैनी मार्ग पर यमुना सेतु के निकट मौजी आश्रम में देवता को प्रतिष्ठित किये जाने पर संपन्न होती है। यह समूची यात्रा व्यापक सुरक्षा, तामझाम, गाजे-बाजे, और भक्तों की भीड़ के साथ होती है। कुंभ के समापन में इसी तरह भाला देवता वापस काशी पहुंचते हैं। यह भी माना जाता है कि कुंभ के बाद काशी में गंगा स्नान आवश्यक है, इसीलिए कुंभ के दौरान काशी में भी यात्रियों की भारी भीड़ हो जाती है। जूना के नागा संन्यासी भी कुंभ के बाद काशी पहुंचकर महाशिवरात्रि के दिन बाबा विश्वनाथ के दर्शन करते हैं।
उज्जैन का भी प्रयाग कुंभ से अनोखा नाता है। तकरीबन तीन सौ साल पहले प्रारंभ हुई परंपरा आज भी जारी है। हर बार कुंभ के दौरान मध्य प्रदेश सरकार के आला अफसर प्रयाग पहुंचते हैं और अखाड़ों र्को सिंहस्थ मेले के लिए आमंत्रित करते हैं। प्रयाग के बाद कुंभ में अगला नंबर उज्जैन का ही आता है। उज्जैन कुंभ को सिंहस्थ कहे जाने की परंपरा रही है। वैसे उज्जैन कुंभ कब से शुरू हुआ, इसे लेकर कथाएं हैं लेकिन इसे विधिवत और सरकारी तौर पर मनाए जाने के प्रमाण 1732 में मिलते हैं, जब मालवा पर मराठों का अधिकार हुआर्। सिंधिया राजवंश के संस्थापक महाराजा राणोर्जी शिंदे की आज्ञा से उनके दीवान बाबा, रामचंद्र बाबा सुक्थंकर ने सन् 1732 ईस्वी में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन उज्जैन र्में सिंहस्थ का आयोजन किया। मुगलों के विरुद्ध लड़ाई में मराठों को अखाड़ों का साथ चाहिए था। मुगलों और अखाड़ों के आपसी संबंध भी अच्छे थे। वैसे तो साधु-संर् सिंहस्थ पहुंचते ही, लेकिर्न सिंधिया ने उसे औपचारिक निमंत्रण का दर्जा देकर थोड़ा खास बना दिया और अखाड़ों को बहुत हद तक अपने पक्ष में कर लिया। इसके बाद यह परंपरा ही बन गई। हर्र सिंहस्थ से पहर्ले सिंधिया राज्य ग्वालियर स्टेट द्वारा प्रयागराज कुंभ में एकत्रित अखाड़ों को विधिवत सरकारी तौर पर आमंत्रित किया जाने लगा। आज़ादी के बाद बनी लोकतांत्रिक सरकारों ने भी इस परंपरा का निर्वहन किया जो आज भी बदस्तूर जारी है।
एक और अनोखी बात है जो प्राचीनतम नदी नर्मदा को प्रयागराज कुंभ से जोड़ती है। नर्मदा किनारे बसे महेश्वर में बुनाई से जुड़ा एक बड़ा समुदाय बसता है जो महेश्वर साड़ियों से लेकर माला बुनने तक का काम करता है। माला बनाकर बेचने के इस धंधे में असली-नकली स्फटिक, रुद्राक्ष की एंट्री हो गई और नर्मदा में पाए जाने वाले चमकीले पत्थरों ने इसमें नए रंग भी भर दिए। ये रंगीन पत्थर, शिर्वंलग, शंख, मालाएं, रुद्राक्ष आदि मिलकर एक बड़ा बाज़ार तैयार करते हैं। इतना बड़ा बाज़ार कि सिर्फ महेश्वर से ही करीब ढाई-तीन सौ परिवार अपनी दुकान लेकर प्रयागराज कुंभ पहुंचते हैं। संगम की रेत पर किनारे-किनारे लगी छोटी-छोटी दुकानें इन्हीं लोगों से गुलजार होती हैं। बेशक इनकी जेब में पूंजी नहीं है लेकिन इन्हें व्यापार आता है। कई बार ये लोग खदेड़े जाते है और सरकारी-गैर सरकारी जबरन वसूली का शिकार बनते हैं लेकिन फिर लौट आते हैं। वे जानते है उन्हें मेले की और मेले को उनकी ज़रूरत हैं। हर सिंहस्थ पहले सिंधिया राज्य ग्वालियर स्टेट द्वारा प्रयागराज कुंभ में एकत्रित अखाड़ों को विधिवत सरकारी तौर पर आमंत्रित किया जाने लगा। आज़ादी के बाद बनी लोकतांत्रिक सरकारों ने भी इस परंपरा का निर्वहन किया जो आज भी बदस्तूर जारी है।
कुंभ वाया सरस्वती
जिस तरह गंगा के उद्गम पर शंकराचार्य पीठ को पुनस्र्थापित किया गया, उसी तरह कुंभ के गंगा तट पर आने की भी कहानी है। बेशक कुंभ कितना पुराना है, हम नहीं जानते। कुंभ का समय पौष मास की पूर्णिमा से लेकर माघ मास की पूर्णिमा तक माना जाता है और न जाने कब से यह अक्षुण्ण बना हुआ है। बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य व चंद्र मेष राशि में प्रवेश करते हैं। ग्रह नक्षत्रों का यह सुंदर योग हर बारह वर्षों में आता है। इंद्र के पुत्र जयंत द्वारा बारह दिनों में बारह स्थानों पर अमृत कलश रखने की स्मृति में यह पर्व कुंभ कहलाया। कुछ सवाल र्या ंबदु हैं जो यह समझने में मदद करते है कि गंगा किनारे विशेष तौर पर प्रयाग में लगने वाला कुंभ कब शुरू हुआ होगा। वैसे भी द्वापर की घटनाएं पौराणिक हैं या ऐतिहासिक, यह तो आपके चश्मे पर निर्भर करता है।
1- प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में 71 बार सरस्वती नदी का वर्णन है। 35 बार अथर्ववेद में सरस्वती को उल्लेखित किया गया है। छह बार वाल्मीकि रामायण में सरस्वती का जिक्र आता है और 235 बार महाभारत में सरस्वती गान है। जबकि गंगा महज तीन बार ऋग्वेद में वर्णित हैं। ऋग्वेद में कहीं भी कुंभ का जिक्र नहीं है, लेकिन नदियों के संगम पर स्नान का वर्णन है।
2- इंद्र ने सरस्वती के किनारे यज्ञ किया और शतदुरानगरी नष्ट की।
3- कुंभ की प्राचीनता को देखते हुए यदि समुद्र मंथन की कहानी को तौला जाए तो इसमें सरस्वती का जिक्र क्यों नहीं है?
4- दशराजन युद्ध हड़प्पा शहर के निकट हुआ। इसमें त्रित्सु ने यमुना और सरस्वती के बीच का प्रदेश जीत लिया था।
5- कामक्य वनक्षेत्र सरस्वती नदी के किनारे था एवं वहां पर दधीचि मुनि का आश्रम था।
6- राजा ययाति ने अपने साम्राज्य का विस्तार सरस्वती नदी तक किया था।
7- गंगा और सरस्वती के बीच का इलाका कुरुक्षेत्र कहलाता है। महाभारत यहीं लड़ा गया था।
8- पारसी पवित्र ग्रंथ अवेस्ता में दृशद्वती नदी का उल्लेख है, जिसे सरस्वती का परिवर्तित नाम माना जाता है।
9- मध्यकालीन प्रमाण यानी मुगल काल के दस्तावेज़ों में हरिद्वार के कुंभ का जिक्र ज्यादा है जबकि इलाहाबाद को अकबर द्वारा विकसित किया माना जाता है। यानी वहां नदियों के संगम पर मेला तो लगता था लेकिन शायद हरिद्वार से बड़ा नहीं होता होगा।
10- ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्षवर्धन और उसकी बहन ने प्रयाग मेले को आकार दिया और वहां बौद्ध पूजा स्थापित करने की कोशिश की।
11- महाभारत में बलराम की तीर्थ यात्रा का जिक्र है, जो सरस्वती के तट पर की गई थी, जिसका मतलब है महाभारत के दौर में सरस्वती तीर्थों का ही ज्यादा महत्व थार्। ंसधु-सरस्वती का एक तीर्थ सुक्कुर क्षेत्र में पड़ता है जो आज के पाकिस्तान में है। कहा जाता है कि सुक्कुर में ही पहले कुंभ लगा करता था।
12- एलिस अलबानिया ने अपनी किताब ‘एंपायर्स ऑफ इंडस’ में सरस्वती के बारे में लिखा है कि वही बाद में गंगा कहलाई। इसी तरह भारतीय आर्कियोलॉजी के वरिष्ठ नाम बीबी लाल ने भी सरस्वती का मार्ग गंगा की ओर बदलने की बात का समर्थन किया है। यही बात प्रोफेसर मिशेल डैनिनो ने भी अपनी किताब ‘द लॉस्ट रिवर’ में मानी है कि सरस्वती ही नए रूप में गंगा है। उपरोक्र्त बिंदु बताते हैं कि कहीं न कहीं कुंभ का प्रयागराज से जुड़ाव सरस्वती के मूवमेंट से जुड़ा है।
महाभारत युद्ध की भूमिका तैयार हो चुकी थी। कृष्ण और बलराम के बीच मतभेद था। बलराम का मानना था कि कौरवों और पांडवों दोनों से ही हमारा समान रिश्ता और प्रेम संबंध है, इसलिए हमें युद्ध से दूर रहना चाहिए। कृष्ण ने इसका रास्ता निकाला और दुर्योधन से कहा कि मुझे साथ ले लो या मेरी नारायणी सेना को। दुर्योधन ने सेना को चुना और कृष्ण पांडवों की तरफ आ गए। बलराम को इसमें कृष्ण की चालाकी नज़र आई और वे कृष्ण से नाराज हो गए। उनके मन में दुर्योधन के प्रति अपनत्व ज्यादा था लेकिन वे कृष्ण के विरोध में खड़े नहीं हो सकते थे। इसलिए युद्ध शुरू होने से ठीक पहले बलराम सरस्वती नदी पथ पर तीर्थ के लिए चले गए। महाभारत के शल्य पर्व में उन तीर्थों के नाम वर्णित हैं जो सरस्वती तट पर स्थित थे। कई लोग कहते हैं कि बलराम हिमालय चले गए थे। उनकी यात्रा को उत्सर्पणीय यात्रा कहा जाता है यानी वह सर्प की तरह बह रही नदी के ऊपर की ओर गए।
महाभारत शुरू हो गया। लाखों लोग मारे गए। वह दुनिया का संभवत: पहला विश्वयुद्ध था, जिसमें देश-विदेश के कई राजा आपस में लड़ रहे थे। युद्ध के 17वें दिन बलराम को सूचना मिली कि भीम और दुर्योधन के बीच गदा युद्ध होने वाला है। वे दोनों बलराम के शिष्य थे, उनसे रहा नहीं गया और वे अपने दोनों शिष्यों का युद्ध देखने कुरुक्षेत्र लौट आए। इतनी जल्दी कुरुक्षेत्र लौट आने का अर्थ यह है कि वे हिमालय पर नहीं गए थे, सरस्वती के किनारों पर कुरुक्षेत्र के समीप ही थे। इस आधार पर विद्वान मानते हैं कि सरस्वती कोई हिमालयी नदी नहीं थी बल्कि वह तमसा या टोंस जैसी हिमालयी नदियों से पानी लेकर आगे बढ़ती थी। महाभारत के युद्ध के वर्णनों में गहराई पर जाइए तो महसूस होता है कि नदी उस समय सूखने की कगार पर थी। तो हुआ कुछ ऐसा होगा कि जिस नदी तट पर आर्यों ने यज्ञ किए, वेद-पुराण रचे, जिस नदी ने एक विशाल मानव समाज को पीढ़ियों तक पाला-पोसा। वह नदी किसी प्राकृतिक कारण से सूखने लगी। कुछ लोग इसका कारण बड़ा भूगर्भीय बदलाव मानते हैं।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के तंत्र विज्ञान के विभाग प्रमुख, डॉ. एनएन गोडबोले ने कई वर्षों के भूगर्भीय शोध के बाद 1963 में ऋग्वैदिक सरस्वती नामक पुस्तक लिखी। पुस्तक में अमेरिका के लैंडसैट नामक उपग्रह से जो चित्र लिए गए हैं, उन चित्रों में सरस्वती नदी का लुप्त प्रवाह स्पष्ट दिखाई देता है। इन चित्रों में शिवालिक पहाड़ी से निकली नदी पंजाबर्, सिंध, राजस्थान, गुजरात राज्यों से होती हुई अरब सागर में मिल जाती थी। इन्हीं चित्रों के आधार पर भारतीर्य चिंतक हरिभाऊ वाकणकर ने सन् 1985 में सरस्वती का पथ खोजने का आंशिक सफल प्रयास किया था।
इन सैटेलाइट चित्रों में कहीं भी इलाहाबाद का जिक्र नहीं है। वाकणकर की यात्रा में कई जगह सरस्वती के रास्ता बदलने का वर्णन मिलता हैं। वाकणकर का मानना था कि सतलज नदी की एक धारा, जिसका नाम घग्गर था, सरस्वती में मिलती थी यानी उसे जलमात्रा उपलब्ध कराती थी, मार्ग परिवर्तन होने से यह जलप्रवाह विलुप्त हो गया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सरस्वती नदी सतलज नदी के साथ मिलकर सिंधु के समांतर कच्छ के मरुस्थल से बहती थी। इस तरह वहां कई धाराओं के बहने और थम जाने के प्रमाण मिलते हैं। महाभारत में एक घटना का उल्लेख है। वशिष्ठ मुनि ने अपने जीवन से त्रस्त होकर शतद्रु नदी में डूबकर, अपनी जीवन-लीला समाप्त करने का प्रयास किया। उस समय नदी सैंकड़ों जलधाराओं में बंटकर बहने लगी। कई शोधकर्ताओं ने यह माना है कि सरस्वती नदी की चौड़ाई छह से आठ किलोमीटर तक थी। राजस्थान का मरुस्थल कभी कई जलधाराओं से समृद्ध था।