उत्तर प्रदेशसोनभद्र

शक्तिपीठ वैष्णव धाम डाला जहां पूरी होती हैं हर मनोकामनाएं

सोनभद्र के चोपन-डाला स्थित माता वैष्णव मंदिर, शक्ति आराधना का जाग्रत स्थल है। यहां मां वैष्णव मंदिर, कटरा-जम्मू की भांति देवी की साकार और श्रृंगारित प्रतिमा न होकर मां वैष्णवी तीन पिण्डियों के सामूहिक स्वरुप में दर्शन देती है। मां काली (दाएं), मां सरस्वती (बाएं) और मां लक्ष्मी (मध्य) के रूप में विराजमान हैं, जिनके दर्शन मात्र से ही हर प्रकार की मुरादें पूरी होने के साथ ही सारे पाप और कष्ट दूर हो जाते हैं।

-सुरेश गांधी

ऊर्जा हब के रुप में ख्यातिप्राप्त सोनभद्र यूपी का एक ऐसा जिला है जो न सिर्फ सर्वाधिक बिजली पैदा कर पूरे सूबे को रोशन करता है, बल्कि अपनी खनिज व वन संपदा से लोगों की दिनचर्या या यू कहें जरुरतों को भी पूरा करता है। ऐसे ख्यातिलब्ध जनपद में चोपन-डाला के मध्य विराजमान है मां वैष्ण देवी मंदिर। खास यह है कि इस मंदिर को भी जम्मू के त्रिकूट पर्वत पर गुफा में विराजमान आदि शक्ति जगत जननी माता वैष्णो देवी की ही तर्ज पर बनाने की पूरी कोशिश की गयी है। यहां भी मां की साकार और श्रृंगारित प्रतिमा न होकर मां वैष्णवी तीन पिण्डियों के सामूहिक स्वरुप मां काली (दाएं), मां सरस्वती (बाएं) और मां लक्ष्मी (मध्य) के रूप में भक्तों को दर्शन देती है। कहते है जो श्रद्धालु मां का पूजा विधि-विधान व तौर-तरीकों से कर लिया उसकी हर प्रकार की मुरादें पूरी होने के साथ ही सारे पाप और कष्ट दूर हो जाते है। मां के इस धाम को भी शक्तिपीठ के रुप में मान्यता प्राप्त हैं। कहते है मुश्किलों को हरने वाली मां के शरण में आने वाला राजा हो या रंक मां के नेत्र सभी पर एक समान कृपा बरसाते है। मां की कृपा से असंभव कार्य भी पूरे हो जाते है। यहां भी मां के चारों रुपों की आरती पूरे विधि-विधान से होती हैं।

चैत यानी वासंतिक व शारदीय नवरात्र के नौ दिनों तक बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है। मंदिर तकरीबन ढाई बीघे की भूभाग पर बना है। मंदिर के ऊंचाई में ही गुफा है, जिसमें घुसते ही भक्तों को कटरा स्थित मां की उपस्थिति होने का एहसास होने लगता हैं। बिल्कुल उसी तर्ज पर यहां भी गुफा का निर्माण कराया गया है। यहां भी भैरव सबसे ऊंचाई पर विराजमान हैं। जहां तक मंदिर के निर्माण का सवाल है तो बताते हैं कि हरियाणा के जिन्द जनपद निवासी मदनलाल अग्रवाल व्यवसायिक उद्देश्य से डाला में रहने लग गए थे। वे मां वैष्णव के परम भक्त थे। 2002 में डाला के पास ही सड़क हादसे में वे गंभीर रुप से घायल हो गए। इलाज के दौरान ही रात्रि में उन्हें मां का स्वप्न आया कि घटनास्थल पर मंदिर का निर्माण हो। सुबह होते ही मदनलाल जी ने मंदिर निर्माण का फैसला लिया और स्थानीय लोगों की मदद से अग्रवाल समाज के तत्वावधान में समिति का गठन कर मंदिर निर्माण शुरु करा दिया। देखते ही देखते वहां भव्य मंदिर बन गया। समिति के अध्यक्ष सियाराम अग्रवाल ने बताया कि मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद एक टोली मां वैष्णव धाम गयी और वहां ब्राह्मणों द्वारा विधि विधान से पूजन-अर्चन के साथ मां की अखंड ज्योति लाकर 20 अक्टूबर 2004 को प्राण प्रतिष्ठा की। इसके बाद से मंदिर में अखंड दीप ज्योति जल रही है और मंदिर में पूजन-अर्चन चल रहा है। मंदिर में भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालु आते हैं और मन्नतों की झोली भरकर ले जाते हैं। मंदिर में अब भी निर्माण कार्य चल रहा है। दूरदराज से मंदिर में आने-जाने वाले श्रद्धालुओं के ठहराव के लिए मंदिर प्रागंण में प्रेक्षागृह व शादी विवाह के आयोजन के लिए अलग-अलग कमरों का निर्माण किया गया है। धर्मशाला भी बना है। मंदिर की सुरक्षा व आनेजाने वाले श्रद्धालुओं की सुरक्षा के मद्देनजर मंदिर के अंदर बाहर सभी जगह सीसी टीवी कैमरे लगाया गया है, जिससे चौबीसों घंटा निगरानी रखी जाती है।

मां वैष्णव धाम
पौराणिक मान्यता है कि मां वैष्णो देवी ने भारत के दक्षिण में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया। उनके लौकिक माता-पिता लंबे समय तक निःसंतान थे। दैवी बालिका के जन्म से एक रात पहले, रत्नाकर ने वचन लिया कि बालिका जो भी चाहे, वे उसकी इच्छा के रास्ते में कभी नहीं आएंगे. मां वैष्णो देवी को बचपन में त्रिकुटा नाम से बुलाया जाता था। बाद में भगवान विष्णु के वंश से जन्म लेने के कारण वे वैष्णवी कहलाईं। जब त्रिकुटा 9 साल की थीं, तब उन्होंने अपने पिता से समुद्र के किनारे पर तपस्या करने की अनुमति चाही। त्रिकुटा ने राम के रूप में भगवान विष्णु से प्रार्थना की। सीता की खोज करते समय श्री राम अपनी सेना के साथ समुद्र के किनारे पहुंचे। उनकी दृष्टि गहरे ध्यान में लीन इस दिव्य बालिका पर पड़ी। त्रिकुटा ने श्री राम से कहा कि उसने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया है। श्री राम ने उसे बताया कि उन्होंने इस अवतार में केवल सीता के प्रति निष्ठावान रहने का वचन लिया है। लेकिन भगवान ने उसे आश्वासन दिया कि कलियुग में वे कल्कि के रूप में प्रकट होंगे और उससे विवाह करेंगे। इस बीच, श्री राम ने त्रिकुटा से उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफा में ध्यान में लीन रहने के लिए कहा। रावण के विरुद्ध श्रीराम की विजय के लिए मां ने नवरात्र मनाने का निर्णय लिया। इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं। श्रीराम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी। त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी।

भैरव मंदिर
कहते हैं उस वक्त हनुमानजी मां की रक्षा के लिए मां वैष्णो देवी के साथ ही थे। हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर एक बाण चलाकर जलधारा को निकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है, जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से भक्तों की सारी व्याधियां दूर हो जाती हैं। नदी के किनारे, जिसे चरण पादुका कहा जाता है, देवी मां के पैरों के निशान हैं, जो आज तक उसी तरह विद्यमान हैं। इसके बाद वैष्णो देवी ने अधकावरी के पास गर्भ जून में शरण ली, जहां वे 9 महीनों तक ध्यान-मग्न रहीं और आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तियां प्राप्त कीं। भैरव द्वारा उन्हें ढूंढ़ लेने पर उनकी साधना भंग हुई। जब भैरव ने उन्हें मारने की कोशिश की, तो विवश होकर वैष्णो देवी ने महाकाली का रूप धारण कर पवित्र गुफा के द्वार पर प्रकट हुईं और भैरव का सिर धड़ से ऐसे अलग किया कि उसकी खोपड़ी पवित्र गुफा से 2.5 किमी की दूरी पर भैरव घाटी नामक स्थान पर जा गिरी। आज इस पवित्र गुफा को अर्धक्वांरी के नाम से जाना जाता है। अर्धक्वांरी के पास ही माता की चरण पादुका भी है। यह वह स्थान है, जहां माता ने भागते-भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था। भैरव ने मरते समय क्षमा याचना की। देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी। उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान करते हुए न सिर्फ उसे अपने से उंचा स्थान दिया, बल्कि वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएंगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा। अतः श्रदालु आज भी भैरवनाथ के दर्शन को अवशय जाते हैं। वह स्थान आज पूरी दुनिया में भवन के नाम से प्रसिद्ध है। भैरवनाथ का वध करने पर उसका शीश भवन से 3 किमी दूर जिस स्थान पर गिरा, आज उस स्थान को भैरोनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं। उसके बाद से श्रीधर और उनके वंशज मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं।

पौराणिक मान्यताएं
मान्यता यह भी है कि माता वैष्णो के एक परम भक्त श्रीधर, जो कटरा से 2 किमी दूर हसली गांव में रहता था, की भक्ति से प्रसन्न होकर मां ने एक मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दी। युवा लड़की ने विनम्र पंडित से भंडारा (भिक्षुकों और भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा। पंडित गांव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े। उन्होंने सभी गांववालों व साधु-संतों को भंडारे में पधारने का निमंत्रण देने के साथ ही एक स्वार्थी राक्षस भैरवनाथ व उसके शिष्यों को भी आमंत्रित किया। इस विशालतम आयोजन की रुपरेखा देख एकबारगी गांववालों को विश्वास ही नहीं हुआ कि निर्धन श्रीधर भण्डारा कर रहा है। भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने की योजना बना रहे हैं। उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया। भंडारे में भैरवनाथ ने खीर-पूड़ी की जगह मांस-मदिरा का सेवन करने की बात की तब श्रीधर ने इस पर असहमति जताई। भोजन को लेकर भैरवनाथ के हठ पर अड़ जाने के कारण श्रीधर चिंता में डूब गए, तभी दिव्य बालिका प्रकट हुईं और भैरवनाथ को समझाने की कोशिश की किंतु भैरवनाथ ने उसकी एक ना मानी। तब कन्यारुपी वैष्णवी देवी ने श्रीधर से कहा कि वे निराश ना हों, सब व्यवस्था हो चुकी है। उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो। उनके कहे अनुसार ही भंडारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विघ्न आयोजन संपन्न हुआ और श्रीधर की लाज रखने के लिए मां वैष्णो देवी कन्या का रूप धारण करके भण्डारे में आई। साथ ही दुनिया को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। भंडारा सकुशल संपंन होने पर भैरवनाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियां थीं और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया। उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया। रास्ते में जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकड़ना चाहा, तब वह कन्या वहां से त्रिकूट पर्वत की ओर भागी और उस कन्यारूपी वैष्णो देवी हनुमान को बुलाकर कहा कि भैरवनाथ के साथ खेलों मैं इस गुफा में नौ माह तक तपस्या करूंगी। इस गुफा के बाहर माता की रक्षा के लिए हनुमानजी ने भैरवनाथ के साथ नौ माह खेला। इस तरह 9 महीनों तक भैरवनाथ उस रहस्यमय बालिका को ढूंढ़ता रहा, जिसे वह देवी मां का अवतार मानता था।

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