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आखिर पूर्वोत्तर में कांग्रेस की दुर्गति के लिए जिम्मेदार कौन …

पूर्वोत्तर भारत में जहां बीजेपी अपना डंका बजा रही है तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस है, जो अपनी गलतियों को मान और जानकर भी हाथ पर हाथ धरे बैठी है. हालांकि इस बार उसमें एक रणनीतिक सुधार जरूर देखने को मिला, जिसमें वह मेघालय में सरकार बनाने की कोशिशें तेज करती दिख रही है.आखिर पूर्वोत्तर में कांग्रेस की दुर्गति के लिए जिम्मेदार कौन ...

नगालैंड और त्रिपुरा के उलट मेघालय में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा और राज्य में सबसे बड़ी पार्टी होने के आधार पर अहमद पटेल और कमलनाथ को वहां रवाना कर दिया ताकि सरकार बनाने की संभावनाओं को जीवंत बनाए रखा जाए. शायद कांग्रेस को गोवा और मणिपुर का सबक याद रहा, जब सबसे बड़ी पार्टी होकर भी वह सरकार नहीं बना सकी थी.

काम का ज्यादा बोझ

लेकिन सवाल यही है कि अगर कांग्रेस पहले जाग जाती तो उसका यह हाल शायद नहीं होता. जरा सोचिए एक तरफ दिल्ली से दूर रहकर 2 सालों से त्रिपुरा में विप्लव और सुनील बीजेपी के लिए मेहनत कर रहे थे. वहीं कांग्रेस के प्रभारी जिम्मेदारियों के बोझ तले इतना दबे थे कि वो कहां-कहां जाएं, किस राज्य को देखें इसी में उलझे हुए थे.

आखिर 67 बरस की उम्र में प्रभारी सीपी जोशी के पास पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों का प्रभार है, साथ ही वो सिक्किम, बंगाल और बिहार के भी प्रभारी हैं.

अब अंदाजा लगाना आसान है कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में जोर लगाकर पार्टी उपचुनाव जीत जाती है. कांग्रेस की वापसी की सुगबुगाहट की खबरें तैरना शुरू होती ही है कि त्रिपुरा और नगालैंड में वो गर्त में चली जाती है और मेघालय में भी बहुमत से दूर रह जाती है.

बिहार में बगावत भी नहीं रोक सके

आखिर बंगाल में जहां पार्टी बुरी हालत में है वहां एक अलग प्रभारी की जरूरत है. कुछ ऐसा ही बिहार का हाल भी है. सोचिए, त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में चुनाव हो रहे थे, उधर बिहार में पार्टी के चारों एमएलसी जेडीयू का दामन थाम रहे थे. ऐसे में प्रभारी जोशी की उधेड़बुन समझी जा सकती है.

जहां बीजेपी एक-एक राज्य को लक्ष्य करके चुनाव जीतती जा रही है और उसका आंकड़ा 21 राज्यों में बीजेपी की सरकार तक पहुंच रहा है, वहीं राज्य दर राज्य कांग्रेस हारती जा रही है और सिर्फ 4 राज्यों में उसकी सरकार बची रह गई है.

 

इसके बाद भी पार्टी ने चुनाव से पहले नहीं समझा कि जिम्मेदारियों का बंटवारा कर दिया जाए. अब नहीं किया तो नतीजे सामने हैं. कांग्रेस छोड़ बीजेपी में गए असम के नेता हेमंत बिस्वा सरमा भी वो तीर है जो बीजेपी के लिए लगातार सही निशाना लगा रहे हैं, वो भी कांग्रेस के सीने में खासा गड़ रहा होगा.

पुरानी परंपरा पड़ रही भारी

एक तरफ बीजेपी की राज्य दर राज्य अलग टीम के साथ जीतने की सफल रणनीति है, तो दूसरी तरफ पुराने ढर्रे पर चल रही कांग्रेस में मठाधीशी स्टाइल की सियासत, जो अब लगातार फ्लॉप साबित हो रही है.

सोनिया गांधी के कार्यकाल में एक महासचिव को तीन-चार राज्यों का प्रभार मिलने की परंपरा रही थी, जिसे राहुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन खुद अध्यक्ष बनने के बाद राहुल ने सीपी जोशी के मामले में कोई फैसला नहीं लिया.

हालांकि राहुल ने अध्यक्ष बनने से ठीक पहले एक महासचिव को एक राज्य का प्रभारी बनाने का फैसला लिया, जिसको झारखंड, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और राजस्थान में लागू भी कर दिया गया. लेकिन राहुल सीपी जोशी के मामले में चूक कर गए.

बिहार, बंगाल और असम में पार्टी का हाल सबके सामने था ही. ऐसे में पूर्वोत्तर के चुनावी राज्यों में राहुल अलग-अलग जिम्मेदारी बांट सकते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और नतीजे निराश करने वाले आ गए.

भले ही सीपी जोशी पर पार्टी के भीतर ठीकरा फोड़ने की कवायद चले. लेकिन सच तो यही है कि आज मोदी-शाह की नई सियासत के दौर में राहुल को भी उतनी ही तेजी से अपनी सियासत को धार देनी होगी, वरना 2019 के लिए अब कम वक्त बचा है और तब जीत का सेहरा अगर राहुल के सिर बंधेगा, तो हार का ठीकरा भी उन्हीं के ही सिर फूटेगा

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