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कन्हैया की ये कैसी राजनीति?

एजेंसी/ kanhaiyaनई दिल्ली। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार बिहार के दौरे पर हैं जहां बिहार सरकार ने उन्हें VVIP कैटेगरी की सुरक्षा मुहैया कराई। कन्हैया की सुरक्षा में दो डीएसपी, कई इंस्पेक्टर और 100 पुलिस वाले तैनात किए गए। पल-पल के लाइव कवरेज के बीच कन्हैया को अपने बीमार पिता से मिलने तक का वक्त नहीं मिल पाया। पिता को कन्हैया ने एंबुलेंस के जरिए पटना ही बुला लिया। कन्हैया कुमार ने पटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव से मुलाकात भी की। इससे पहले भी कन्हैया मुंबई सहित कई अन्य जगहों पर रैलियों को संबोधित कर चुके हैं।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या ये छात्रनेता अपने लिए कोई राजनीतिक प्लेटफॉर्म तलाश रहा है। जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष होने के नाते कन्हैया कुमार का राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं रखना आश्चर्यजनक नहीं है लेकिन मीडिया के एक तबके और गैरबीजेपी दलों के दुलारा बने कन्हैया के लिए आगे की राह आसान भी नहीं रहने वाली। जेएनयू में ही उन्हें लेकर सवाल उठने लगे हैं। जेएनयू से राजनीति विज्ञान में पीएचडी करने वाले आशीष का कहना है कि पिछले कुछ दिनों से कन्हैया का ध्यान विश्वविद्यालय के मामलों से हट गया है और यही कारण है कि कन्हैया का जनाधार अब परिसर में ही नीचे जाने लगा है। जेएनयू में चल रही भूख हड़ताल में भी छात्रों के बीच मतभेद देखा जा रहा है।कन्हैया को यह समझना होगा कि जिस तरह वो स्टार बने हैं उसी तरह रातोरात विलेन भी बन सकते हैं। कन्हैया एक साथ आंदोलन, क्रांति और राजनीति की बात नहीं कर सकते।

राजनीति के जानकारों का भी मानना है कि कन्हैया पॉलीटिक्स में संघर्ष के बजाए शॉर्टकट रास्ता अपनाते हुए दिख रहे हैं। यही वजह है कि एक ओर वो भ्रष्टाचार से आजादी की मांग करते हैं तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सजा काट चुके लालू प्रसाद यादव के पैरों में गिर जाते हैं। 1984 के सिख दंगों और 2002 के गुजरात दंगों में अंतर का उनका बयान हर किसी को हैरान कर गया। वो बात तो सिस्टम से लड़ने की करते हैं लेकिन कदमताल उनकी पहले से स्थापित राजनीतिक दलों के साथ ही हो रही है। शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात करने वाले कन्हैया इस क्षेत्र में पिछड़े बिहार में कोई आवाज नहीं उठाते और न ही विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनावों के लिए उनकी कोई मुहिम दिखाई देती है।

जिस बिहार में वामपंथ के सबसे बड़े नेता अजीत सरकार की हत्या कर दी गई, उस राज्य में कन्हैया वामपंथ की लड़ाई को आगे बढ़ाने की बजाय नेताओं से मेल-मुलाकात और फोटो सेशन में व्यस्त दिखे। गरीबी, भुखमरी, जातिवाद से आजादी की बात करने वाले कन्हैया ने पता नहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू यादव से इन मुद्दों पर क्या सवाल किए और किए भी कि नहीं।

क्या है लेफ्ट की परेशानी- देश की राजनीति में हाशिये पर पहुंचे वामपंथियों को कन्हैया में अपना तारणहार दिख रहा था जिसने रातोरात अच्छी-खासी ‘ब्रांड वैल्यू’ हासिल कर ली थी। लेकिन कन्हैया की पिछली कुछ गतिविधियों खुद लेफ्ट के लिए सिरदर्द बन गई हैं। वामपंथी होने के बावजूद कन्हैया पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिले और फिर 84 के दंगों पर कांग्रेस को क्लीन चिट देते नजर आए। केजरीवाल के साथ उनकी मुलाकात अंतिम समय में टल गई। बिहार में उन्होंने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव से न सिर्फ मुलाकात की बल्कि उनके पैर भी छुए। लेफ्ट नेता इससे नाखुश बताए जाते हैं। जेएनयू में भी इसे लेकर विरोध हुआ। सोशल मीडिया में तो कामरेड चंद्रशेखर की हत्या का मुद्दा उठा कर कन्हैया को खूब घेरा गया।

गौरतलब है कि जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कॉमरेड चंद्रशेखर की बिहार के सीवान में हत्या हुई थी। आरोप लगा आरजेडी के तत्कालीन बहुबलि सांसद शहाबुद्दीन पर। शहाबुद्दीन पर अब भी ये केस चल रहा है और उनके सिर पर लालू यादव का हाथ आज भी पहले की तरह बना हुआ है। उन्हीं लालू से मिलने जाना और उनके पैर छूना वाम नेताओं और उसके छात्र संघ आईसा के सदस्यों को नागवार गुजरा है। कॉमरेड चंद्रशेखर ही नहीं बिहार में एक और वामपंथी नेता अजीत सरकार की हत्या में भी पप्पू यादव पर आरोप लगा था।

कन्हैया नहीं हो सकते केजरीवालः कन्हैया के बारे में राजनीतिक गलियारों में कहा जा रहा है कि बीजेपी की गलती ने कन्हैया के रूप में एक और केजरीवाल खड़ा कर दिया है। हालांकि जानकार इस तुलना को ज्यादा सही नहीं मानते। दरअसल केजरीवाल ने राजनीति में आने से पहले दशकों तक न सिर्फ लंबा संघर्ष किया बल्कि जनमानस में अपनी एक अलग छवि भी बनाई। कन्हैया के पास समस्याओं की तो पूरी लिस्ट है लेकिन केजरीवाल के पास उनके निवारण का ब्लूप्रिंट भी था। केजरीवाल ने राजनीति में आने से पहले किसी राजनेता और राजनीतिक पार्टी को नहीं बख्शा, ऐसे में वे भारतीय राजनीति के पहले विद्रोही की छवि बनाने में कामयाब रहे।

राजनीति में आने के बाद भी समय-समय पर केजरीवाल ने शिष्टाचार मुलाकात के अलावा भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं से अपने आपको दूर रखने का प्रयास किया है। कन्हैया से पहले भी जेएनयू में संघर्षपूर्ण और जोशीली आवाज गूंजती रही हैं, कभी आनंद कुमार के रूप में तो कभी सीताराम येचुरी के रूप में। कन्हैया का मामला खास इस मायने में था कि आपातकाल के बाद पहली बार कोई छात्रनेता देशद्रोह के आरोप में तिहाड़ जेल से बाहर आया। बाहर आने के बाद उनके भाषण के लाइव प्रसारण ने उन्होंने घर-घर में पहचान दे दी लेकिन कन्हैया को यह समझना होगा कि जिस तरह वो स्टार बने हैं उसी तरह रातोरात विलेन भी बन सकते हैं। कन्हैया एक साथ आंदोलन, क्रांति और राजनीति की बात नहीं कर सकते। उन्हें तय करना होगा कि वो एक एक्टिविस्ट हैं या नेता।

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