दस्तक-विशेषसाहित्य

डोरबेल

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मेहरीन जाफरी

शहर, मोहल्ला और गली कोई भी हो, औरतों की जिंदगी एक-दूसरे से कुछ खास अलग नहीं होती। कहीं यह ससुराल में दहेज न लाने के लिए पीटी जाती हैं तो कहीं अपनी मर्जी से छोटे-छोटे फैसले लेने के लिए तो कभी अच्छा रंग-रूप न होने के कारण भगवान की गलती का खामियाजा भी इन्हें ही पति की उलाहना और प्रताड़ना झेलकर चुकाना पड़ता है। तभी तो कई साल पहले जो बेचारी रजिया के साथ दिल्ली में घटा था, उससे मिलती-जुलती ही हालत यहां रश्मि की मालूम होती है। कलाताई पड़ोस से आ रही चीखों और धमाचौकड़ी की आवाज पर तकिए से दाहिना कान दबाए हुए सोने की कोशिश करते हुए यही सोच रही थीं। रात का एक बजा था। पड़ोस की रश्मि को उसका पति पीट रहा था। यह नहीं पता किस बात पर। धीरे-धीरे चीखें कम हुईं तो कलाताई को कुछ चैन पड़ा, लेकिन नींद नहीं आ रही थी।
कलाताई दिल्ली की रहने वाली थीं। उनका अचार-पापड़ का वहां फलता-फूलता बिजनेस था। शादी के दूसरे साल बाद ही पति चल बसे थे। शादीशुदा जिंदगी के कुछ कड़वे अनुभवों के कारण कलाताई ने दोबारा शादी करने की सोची भी नहीं और आत्मनिर्भर बनना ज्यादा बेहतर समझा। बच्चे थे नहीं सो अपने सपने को साकार करने में उन्हें कोई खास अड़चन भी नजर नहीं आयी। अपने गहने बेचकर दिल्ली में ही अचार-पापड़ का बिजनेस शुरू किया जो कुछ शुरुआती अड़चनों के बाद चल निकला। अपने बिजनेस को लखनऊ में विस्तार देने के लिए वह आजकल अपनी बहन रज्जो के घर ठहरी हुई थीं। रज्जो ने ही बताया था कि पड़ोसिन रश्मि को उसका पति अक्सर मारा-पीटा करता है। जितने दिन रहेंगी उन्हें पड़ोस के हंगामे सुनने की आदत डालनी होगी। कलाताई ने रज्जो से कहा कि उस बेचारी रश्मि को बचाने के लिए तुम मोहल्ले वाले हस्तक्षेप क्यों नहीं करते। उसकी डोरबेल यानि दरवाजे की घंटी ही बजा दिया करो, जब वह पिट रही हो। बेचारी शायद मार खाने से बच जाए। इस बात पर रज्जो ने कलाताई को अजीब नजरों से देखा और फिर बोली- जीजी आप भी न! अपना काम करने आयी हो वही करो। क्या फायदा उनके घर का मामला है? उल्टे कुछ हमें ही उल्टी-सीधी सुना दी तो मुझसे तो बर्दाश्त न होगा। यह कहकर रज्जो ने बात टाल दी। लेकिन कलाताई को चैन नहीं पड़ा। मन ही मन उन्होंने कुछ ठान लिया था।
kahani_1रज्जो के घर में ठहरे आज उन्हें चौथा दिन ही था। रश्मि की चींखें रुक-रुकर करीब आधे घंटे से उनके कानों में पड़ रहीं थीं, लेकिन अपनी बहन रज्जो की हिदायत पर वह बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू किए हुए थीं। ये चीखें उन्हें दिल्ली में उनकी कॉलोनी की एक नव विवाहिता लड़की रजिया की दर्दनाक कहानी की यादों में खींच ले गयी और कलाताई यादों के समंदर में गोते लगाने लगीं। रजिया कॉलोनी में हकीम साहब की दूसरी बहू के नाम से जानी जाती थी। उसके पति शादाब का समाज में कोई रुतबा नहीं था। दोहाजू और रजिया से उम्र में दोगुना था वह। शादाब की पहली पत्नी दूसरे पुरुष के प्रेम में पड़ जाने के बाद उसके साथ भाग गई थी। शादाब ने चार माह बाद ही दूसरे विवाह के लिए हामी भर दी थी। भला भगोड़ी पत्नी का शोक भी कोई पुरुष मनाता है। परलोक सिधारी हुई का भी इतने समय तक शोक मना लें तो गनीमत समझो।
रजिया के पिता लल्लन ने उसके लिए दोहाजू लड़के को इसलिए हां कर दी थी, क्योंकि रजिया की रंगत तो काली थी ही, साथ ही उनकी इतनी हैसियत भी न थी कि दान-दहेज में चार बरतन भी दे सकें। रजिया के पिता गरीबी के कारण ही रजिया सहित अपनी दो अन्य बेटियों को भी स्कूल नहीं भेज सके थे। मदरसे में ही रजिया ने थोड़ी बहुत दीनी तालीम पायी थी। वह अपनी तीन बहनों में सबसे बड़ी थी। रजिया की रंगत और परिवार की गरीबी के कारण उसके रिश्ते आते ही थे, किसी न किसी खोट-नुक्स वाले। वह करीब 25 साल की थी। इसलिए बेटी की बढ़ती उम्र की भी चिंता लल्लन को थी। लल्लन ने इसलिए जैसे-तैसे उसके हाथ पीले करके बला टाली।
ससुराल में रजिया की चीखें शादी के 21वें दिन ही कॉलोनी वालों के कान फाड़ने लगीं थीं। सबको पता था कि शादाब जिस तरह अपनी पहली पत्नी को पीटा करता था, वैसे ही वह रजिया को भी आधी-आधी रात को मारा-पीटा करता है। लेकिन कॉलोनी के लोगों ने गॉसिप करने के अलावा कभी हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह कहकर मामला टाल दिया जाता कि यह उनका घरेलू मामला है। रजिया की शादी को पांच माह गुजर चुके थे। उसके साथ मार-कुटाई का सिलसिला जारी था।
वह ईद का दिन था। ईद के दिन मुस्लिम समुदाय में एक दूसरे के घर जाकर गले मिलकर त्योहार की बधाई देने का चलन है। लेकिन उस दिन रजिया का घर बिल्किुल सूना पड़ा था। पूरा दिन गुजर गया कॉलोनी में रजिया के घर का मेन गेट खुलने की एक बार भी आवाज नहीं सुनाई दी। मुझसे रहा नहीं गया तो शाम करीब पांच बजे ईद मिलन के बहाने रजिया का हाल लेने पहुंच गई।
मेन गेट का चैनल तो हाथ डालकर खोल लिया फिर साड़ी ठीक करते हुए मैने अंदर के दरवाजे की डोरबेल बजाई, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। सोचा हो सकता है, अंदर के कमरे में टीवी देख रही हो या सो रही हो बेचारी। अकेली ही तो रहती है। उसके ससुर हकीम साहब तो खुद ही बेटे शादाब के रोज-रोज के हंगामें से तंग आकर छोटे बेटे-बहू के घर दिल्ली रहने चले गए। शादाब घर में हो न हो क्या पता। बहरहाल, इसी सोच में मैने दरवाजे की घंटी आठ या दस बार बजाई। इसके बाद बजाती चली गई, दरवाजा नहीं खुला। मैं दरवाजे पर ताला चेक करने लगी। कोई ताला नहीं लगा था। अब तक मेरे दिल की घड़कनें बढ़ चुकी थीं। किसी अनजाने खौफ से मैने रजिया, रजिया चीखना शुरू कर दिया। 10 मिनट में ही कॉलोनी के लोग इकट्ठा हो चुके थे। दरवाजा तोड़ा गया। घर के अंदर रजिया के बेडररूम का नजारा दिल दहला देने वाला था। रजिया की लाश दुपटटे के सहारे पंखे से झूल रही थी। बिस्तर पर लकड़ी का स्टूल गिरा पड़ा था।
kahani_2कमरे की सेंटर टेबिल पर एक कागज गिलास से दबाकर रखा मिला। उसमें उर्दू में लिखा हुआ था। मैं अपनी जिंदगी खत्म करने की जिम्मेदार हूं। जीने से ज्यादा मौत आसान लगी, इसलिए यह कदम उठाया। मुझे शादी से अब तक एक बीवी होने का सुख नहीं मिला। शादाब नामर्द है। मैं तो इस पर भी उसके साथ जिंदगी बिता देती, लेकिन वह सिर्फ जिस्मानी ही नहीं बल्कि दिमागी तौर से भी बीमार है। अपनी नामर्दानगी की खीज वह मुझे हर रात पीट-पीटकर निकालता था। मेरे जिस्म को नोंच-खरोचकर वह राक्षसों की तरह ठहाके लगाता। मैं दर्द से तड़पती-चीखती तो उसके चेहरे पर सुकून की लहरें हिलोरे मारतीं। मेरे जिस्म पर पड़े उसके दातों और ठोकरों के निशान उसकी हैवानियत का सबूत हैं। अल्लाह गवाह है मैं यह जुल्म सहने के बाद भी जीना चाहती थी। शादाब की कैद से आजाद होना चाहती थी, लेकिन कोई बताए, था मेरे लिए कोई ठिकाना जहां मुझे पनाह मिल सकती थी? ऐसे मायके में वापस जा सकती थी जहां कुंवारी बेटी ही बोझ थी? क्या मोहले की उन औरतों से अपना दुख साझा करती, जिनकी निगाहें सिर्फ यह देखती थीं कि मैनें किस रंग की और कितने भारी काम वाली, कीमती साड़ी पहन रखी है? मैं तो मुस्तफा की पहली बीवी की तरह प्रेमी के साथ भाग भी नहीं सकती थी। खूबसूरत जो नहीं हूं फिर कौन भगाना चाहता मुझे? किसी सवाल का जवाब नहीं मिला, इसलिए जा रही हूं, हमेशा के लिए।
मेरे पड़ोसी सलीम भाई ने खत जैसे ही पढ़कर रखा। वहां पुलिस पहुंच चुकी थी। एक-एक करके सभी कॉलोनी वालों से पूछताछ शुरू हो चुकी थी। मेरे दिमाग में आंधियां चल रही थी। पश्ताचाप की आधियां। इस घर की डोरबेल बजाने में मुझे बहुत देर हो गई। यह सोचकर मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था। काश की यह डोरबेल मैंने पहले ही रजिया की चीखें सुनने पर बजाई होती। मुझसे देर हुई तो कोई और ही बजा देता। तब शायद यह नौबत नहीं आती। रजिया का दर्द साझा करके। शादाब की ज्यादती पर उसे रोक-टोककर कॉलोनी के किसी भी व्यक्ति ने अपने ंिजंदा होने का सबूत दिया होता तो रजिया जिंदा होती। लेकिन अब कम से कम मैं तो किसी और रजिया को यूं मरने न दूंगी। मैं करूंगी हस्तक्षेप, डोरबेल बजाकर। कलाताई को अपना यह प्रण याद आया। अपने उस प्रण को याद करते हुए वह करवटें बदल ही रही थीं कि पड़ोसी रश्मि की दिल दहला देने वाली चीख उनके कानों में फिर पड़ी। कलाताई झटके से उठीं। अपनी साड़ी ठीक करते हुए घरेके मेनगेट की ओर बढ़ गईं। कुछ ही देर में कलाताई रश्मि के घर की डोरबेल बजा रही थीं। डोरबेल बजते ही अंदर का हंगामा शांत हो गया, लेकिन वह हंगामा अब शायद घर के बाहर होना तय था।
रश्मि के पति सुंदर ने बड़े तैश में दरवाजा खोला। पूछा क्या चाहिए? कलाताई बोलीं, शांति चाहिए। झगड़ा और मारपीट यहां नहीं चलेगी। सुंदर हतप्रभ था। बोला देखिए ये मेरे घर का मामला है और आप तो मेरे मोहल्ले की भी नहीं हैं। हमारे मामले में न ही बोलें तो अच्छा है। कलाताई ने कहा अब यह तुम्हारे घर का मामला नहीं है। पूरे मोहल्ले की नींद उड़ा रखी है। उसे जानवरों की तरह पीट रहे हो। यह जुर्म है। मैं अभी पुलिस को बुलाती हूं। पत्नी पर हिंसा के अपराध में जेल की हवा खाओगे तब आएगी तुम्हारी अकल ठिकाने। इतने में रश्मि दौड़कर कलाताई के गले लग गई। उसके चेहरे और बाहों पर कुछ पुराने नीले और कुछ नई चोटों के निशान थे। कलाताई ने रश्मि से पूछा, क्यों मार रहा था यह तुम्हें? रश्मि धीरे से बोली ’दाल में नमक’ ज्यादा हो गया था। कलाताई ने सुंदर की तरफ देखा तो अब तक उसकी तनी हुई गरदन थोड़ी झुक चुकी थी। अब तक कलाताई की बहन रज्जो, बहनोई सुशील और मोहल्ले के अन्य लोग भी रश्मि के घर के दरवाजे पर इकट्ठे हो चुके थे। कलाताई ने बडे़ विश्वास के साथ कहा, चल रश्मि मैं तेरे जख्मों पर दवा लगा देती हूं। मैं अभी दिल्ली वापस नहीं जा रही। तेरा पति अगर फिर ऐसी हरकत करेगा तो मैं फिर तेरे घर की डोरबेल बजाऊंगी। मैं न भी रही तो तेरे मोहल्ले वाले तेरा साथ देंगे। यह कहते हुए कलाताई ने मोहल्ले के गणमान्य व्यक्तियों की तरफ देखा तो जैसे आंखों ही आंखों में सबने कलाताई को रश्मि के लिए वादा दे दिया।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकत्र्री हैं।) ’

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