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दिल्ली का कुरुक्षेत्र: आप को बाल हठ और भाजपा को राज हठ छोड़ना होगा

दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल की सत्ता को लेकर चल रहे घमासान के बीच सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली की जनता के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उम्मीद है कि अब कम से कम भाजपा और आम आदमी पार्टी दिल्ली की जनता के हितों की आग पर सियासत की रोटियां सेंकने से बाज आएंगी। उपराज्यपाल दिल्ली की निर्वाचित सरकार के फैसलों को सम्मान देते हुए मुख्यमंत्री को काम करने देंगे और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अब धरना प्रदर्शन की सियासत छोड़कर सरकार के बचे हुए कार्यकाल में दिल्ली की जनता के कल्याण और विकास पर ध्यान देंगे।दिल्ली का कुरुक्षेत्र: आप को बाल हठ और भाजपा को राज हठ छोड़ना होगा
हालाकि संसद द्वारा पारित जिस कानून के तहत दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ और संविधान की धारा 299एए जिसके तहत उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री के बीच शक्तियों और अधिकारों के विभाजन को परिभाषित किया गया है, सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ उसकी नए सिरे से व्याख्या की है, कोई ऐसी नई बात नहीं कही है जो अभी तक किसी को पता नहीं थी। अदालत ने सिर्फ उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री को उनके अधिकार क्षेत्र फिर से बताए हैं। वैसे भी कानून बनाना अदालत का काम नहीं है। कानून बनाना विधायिका का अधिकार और जिम्मेदारी है, जबकि न्यायपालिका का काम उस कानून को सही तरीके से लागू करवाना और उसकी व्याख्या करना है।

ऐसा नहीं है कि दिल्ली में पहली बार ऐसी सरकार बनी है जो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी की विरोधी है। इसके पहले 1993 में जब केंद्र में नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी, तब दिल्ली में मदनलाल खुराना के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी और 1998 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब दिल्ली में कांग्रेस की जीत के बाद शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं।

इन दोनों कालखंडों में दिल्ली सरकार और केंद्र के प्रतिनिधि उप राज्यपाल के बीच संवंधों अधिकारों और शक्तियों को लेकर संवैधानिक स्थिति जैसी आज है वैसी ही तब भी थी। दिल्ली तब भी पूर्ण राज्य नहीं था और अब भी नहीं है। दिल्ली विधानसभा और उपराज्यपाल की स्थिति तब भी वैसी ही थी जैसी अब है। लेकिन राजनीतिक बयानबाजी के अलावा कभी भी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल और दिल्ली के मुख्यमंत्री के बीच कभी भी वैसा टकराव नहीं रहा जैसा आज है।
मदनलाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के मुख्यमंत्रित्व काल में दिल्ली के विकास से जुड़ी कोई भी फाइल उपराज्यपाल के दफ्तर में न अटकी न लटकी। इसी तरह शीला दीक्षित के पहले कार्यकाल में जब 2004 तक केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार थी, दिल्ली के विकास से जुड़े किसी भी मुद्दे पर शीला सरकार को कोई परेशानी नहीं हुई। उसी दौर में दिल्ली में मेट्रो शुरु हुई जिसमें केंद्र और दिल्ली सराकर की बराबर भागीदारी रही।

पहली मेट्रो रेल का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की मौजूदगी में किया। उस दौर के एसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं जब केंद्र सरकार, उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार ने मिलजुल कर विकास कार्यों को आगे बढ़ाया।

लेकिन फरवरी 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनावों में आम आदमी पार्टी को 70 में 67 सीटों के मिले प्रचंड बहुमत ने आम आदमी पार्टी के नेताओं को मन में लोकप्रियता का अंहकार पैदा किया तो दूसरी तरफ भाजपा नेताओं के मन में बुरी हार के प्रतिशोध की भावना को जन्म दिया। यहीं से शुरु हुई दोनों पक्षों की खींचतान।

याद होना चाहिए कि जब मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल अपने उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने की औपचारिकता निभाकर प्रधानमंत्री निवास से बाहर आए तो उन्होंने बयान दिया कि उन्होंने प्रधानमंत्री से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग की है। साथ ही यह भी कहा कि आम आदमी पार्टी इसके लिए संघर्ष करती रहेगी।

यानी उसी दिन केजरीवाल और सिसोदिया ने अपनी आगे की राजनीति का एजेंडा तय कर दिया था। इसके बाद दिल्ली सरकार के अधिकारों की सीमाओं को लेकर आम आदमी पार्टी ने लगातार शिकायतों का सिलसिला शुरु कर दिया। उधर भाजपा नेतृत्व को भी आप की लोकप्रियता और जीत हजम नहीं हो रही थी। उसने भी दिल्ली सरकार के रास्ते में रोड़े अटकाने और उसे विफल करने का मन बना लिया।

यहीं से उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच वह टकराव शुरु हुआ जो उपराज्यपाल बदले जाने के बाद भी खत्म नहीं हुआ। पहले दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग के साथ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और दिल्ली सरकार का टकराव शुरु हुआ। उप राज्यपाल कार्यालय में दिल्ली सरकार के फैसलों की फाइलों की मंजूरी अटकी और लटकी होने का आरोप आम आदमी पार्टी लगातार लगाती रही।अधिकारियों के तबादलों, एसीबी पर अधिकार, मोहल्ला क्लीनिकों को मंजूरी जैसे तमाम मुद्दे टकराव का बिंदु बने।

जंग के बाद अनिल बैजल आए, लेकिन टकराव जारी रहा। यहां तक कि मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ हुई अभद्रता और उसके बाद सरकारी अधिकारियों का मंत्रियों के साथ असहयोग इतना बढ़ा कि मुख्यमंत्री को अपने मंत्रियों के साथ उपराज्यपाल निवास में दस दिन तक धरना देना पड़ा। इस सारी अशोभनीय स्थिति को लेकर पूरे देश में सियासी गोलबंदी भी हुई।

गैर भाजपा शासित राज्यों के चार मुख्यमंत्री सीधे-सीधे केजरीवाल के समर्थन में खुलकर आ गए। यहां तक कि एनडीए में शामिल नीतीश कुमार ने भी निर्वाचित सरकार को काम न करने देने पर नाखुशी जाहिर की। इस ध्रुवीकरण में कांग्रेस ने खुद को आम आदमी पार्टी से दूर रखा। आम आदमी पार्टी ने लगातार दिल्ली सरकार के खिलाफ भाजपा नेतृत्व और सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा किया। जबकि भाजपा ने आप पर बहाने बाजी का आरोप लगाते हुए उसे काम न कर पाने वाली सरकार कहते हुए हमले किए।

अब जबकि एक बार सुप्रीम कोर्ट ने सारी स्थिति साफ कर दी है तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी सरकार की जिम्मेदारी है कि बचे हुए करीब पौने दो साल के कार्यकाल में दिल्ली के विकास को आगे बढ़ाते हुए उन सारे आरोपों को धराशायी करें जो उन पर लगते रहे हैं। वहीं भाजपा केंद्र सरकार और उपराज्यपाल की भी जिम्मेदारी है कि इस फैसले के बाद कानूनी नुक्ताचीनी के आधार पर दिल्ली सरकार के कामकाज में रोड़े अटकाने की बजाय उसे काम करने दें और आप नेताओं को यह कहने का मौका न दें कि केंद्र सरकार दिल्ली सरकार को काम नहीं करने दे रही है।

यानी आप को अपना बाल हठ और भाजपा को अपना राज हठ छोड़कर दिल्ली और देश की जनता के विकास की राह आसान बनाना होगा। क्योंकि अप्रैल 2019 में जब लोकसभा चुनाव होंगे तो दिल्ली की सातों सीटों पर केंद्र और दिल्ली सरकार दोनों के कामकाज को जनादेश की कसौटी पर कसा जाएगा।

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