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देवभूमि पर कब्जे की ललक

ज्ञानेन्द्र शर्मा

अपनी चिरघोषित रीति-नीति और जनजन से बार बार किए गए वादों को रौंदकर और एक अन्य पर्वतीय राज्य अरुणांचल की तरह राजभवन को अपने दल का विस्तारित पटल बनाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखण्ड में भी खुद को सत्ता की गोद में बिठा लिया। उत्तराखण्ड में जिस तरह से संसदीय मान्यताओं, चुनावी घोषणापत्रों और न्यायिक समीक्षाओं की उपेक्षा की गई, उसके बाद यह पता ही नहीं लग रहा है कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बैठी है या इन्दिरा गांधी की कांग्रेस सरकार, जिसे सरकारें पलटने और राष्ट्रपति शासन लगाने में महारत हासिल था। उत्तराखण्ड में भाजपा की केन्द्रीय सरकार ने राज्यपाल का इस्तेमाल करते हुए शक्ति परीक्षण के ठीक एक दिन पहले खुद फैसला कर दिया कि हरीश रावत सरकार के पास बहुमत नहीं है अत: उसे सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है। तदनुसार उनकी सरकार भंग कर दी गई। केन्द्रीय सरकार में शामिल विद्वान वकील अरुण जेटली ने कुछ तर्क देकर निर्णय को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की है। पर वे भूल गए कि 1994 में मशहूर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कहा था। उसने कहा था कि किसी सरकार ने सदन का बहुमत खो दिया है या नहीं, इसका फैसला सदन में ही शक्ति परीक्षण के द्वारा होना चाहिए। उसने कहा था कि यह राज्यपाल का दायित्व है कि वह विधानसभा में मुख्यमंत्री को यह साबित करने को कहे कि उसे सदन का विश्वास प्राप्त है। राज्यपाल खुद बहुमत का फैसला करें, इसका प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए। सोली सोराबजी और के0के0 वेणुगोपाल जैसे प्रख्यात वकीलों ने कहा है कि केन्द्र सरकार को सरकार भंग करने से पहले 28 मार्च होने वाले शक्ति परीक्षण का इंतजार करना चाहिए था। अरुण जेटली एक ऐसे फैसले के, जो कि बचाव करने के लायक है ही नहीं, बचाव के लिए जो तर्क दे रहे हैं, वे उल्टे उन्हीं के गले पड़ रहे हैं।
leadजरा जेटली जी के तर्कों पर विचार करें
जेटली जी का तर्क नम्बर एक
वे कहते हैं कि 18 मार्च को जिस तरह से सदन में बजट का विनियोग विधेयक पारित किया गया, वह अवैधानिक था क्योंकि सरकार को बहुमत हासिल नहीं था। उनके अनुसार विधेयक गिर गया था लेकिन पारित बता दिया गया। जेटली जी भूल गए कि सदन की कार्यवाही न तो उनसे पूछकर चलती है और न ही राज्यपाल के इशारों पर। सदन अपने नियमों का खुद मालिक होता है और उसे अपने फैसले लेने का पूरा अधिकार खुद प्राप्त होता है। सदन की कार्यवाही संचालन करना सदन के अध्यक्ष की जिम्मेदारी होती है जिन्हें सदन से इसके लिए पूरे अधिकार प्राप्त होते हैं। फिर सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि राज्यपाल ने 18 मार्च की कार्यवाही को वैध मान लिया था, वरना वे उसी दिन उसके निराकरण के लिए कदम उठाते। उन्होंने ऐसा कुछ न करते हुए सरकार को पूरे दस दिन का समय देते हुए अपना बहुमत साबित करने को कहा। राज्यपाल ने आदेश दिया कि मुख्यमंत्री 28 मार्च तक सदन में अपना बहुत सिद्ध करें। उसके अनुसार मुख्यमंत्री ने कदम भी उठाए थे और 28 मार्च को वे शक्ति परीक्षण के लिए तैयार भी थे।
तर्क नम्बर दो
जेटली जी कहते हैं कि 18 मार्च को फेल हो गए विवियोग विधेयक को पारित इसलिए बता दिया गया ताकि बाद में प्रलोभनों के जरिए विधानसभा में सदस्य संख्या का गणित बदल दिया जाय। जेटली जी यह भूल गए कि विधानसभा में बहुमत का गणित बदलने का आरोप तो भाजपा पर लगता है जिसने कांग्रेस के नौ विधायकों से दल बदल कराया और उन्हें अपने साथ मिला लिया। प्रलोभन तो दरअसल दूसरी तरफ से थे। यदि प्रलोभन नहीं होते तो ये कांग्रेसी विधायक क्यों दल बदल कर भाजपा के पास आए थे और उन विधायकों को भाजपा ने क्यों पहले गुड़गांव और फिर राजस्थान के होटल में अपनी संरक्षा में रखा?
तर्क नम्बर 3
तीसरा तर्क यह दिया गया कि कोई स्ंिटग आपरेशन हुआ था जिससे यह बात सामने आयी कि विधायकों की खरीद-फरोख्त की जा रही थी। पता नहीं यह स्टिंग कितना सही था लेकिन यदि यह सही भी था तो यह तो टूट कर गए विधायकों को वापस लाने के लिए था। जब विधायक टूट कर गए थे, तब खरीद फरोख्त हुई थी या नहीं, उसका भी तो हिसाब-किताब होना चाहिए। हकीकत कोई नहीं जानता क्योंकि उसका कोई स्टिंग तो हुआ नहीं। हरीष रावत जरूर कहते हैं कि कई करोड़ रुपए इन 9 विधायकों को तोड़ने पर खर्च हुए थे। जेटली जी ने इस स्ंिटग आपरेशन का तो जिक्र किया लेकिन यह नहीं बताया कि कांग्रेस के नौ विधायक क्यों और कैसे टूटकर भाजपा के खेमे में आए थे। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय कहते हैं कि एक स्टिंग तो नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को लेकर भी हुआ जिसमें गुजरात की एक लड़की का पीछा करने की बात कही गई थी, जब क्योंकि मोदी जी और शाह जी ने इस्तीफा नहीं दे दिया था?
lead_1जो घटनाक्रम उघड़कर सामने आया है, उससे पता लगता है कि राज्यपाल के0के0 पॉल से इशारा करके वह रिपोर्ट मंगाई गई थी जिसके आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। राज्यपाल ने अपनी ओर से 18 मार्च को ही एक फैसला किया था जिसके अंतर्गत मुख्यमंत्री से 10 दिन में यानी 28 मार्च तक अपना बहुमत साबित करने को कहा गया था। जाहिर है कि राज्यपाल तो बोम्मई फैसले का अनुसरण करते हुए आर-पार का निर्णय सदन के मंच पर ही कराना चाहते थे। उन्होंने 18 मार्च को केन्द्र को ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं भेजी थी जिसमें कहा गया हो कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिए। राज्यपाल को यह अहसास जरूर रहा होगा कि दस दिन की समयावधि में खरीद-फरोख्त हो सकती है तो भी उन्होंने निर्णय दिया। ऐसा क्या हुआ कि शक्ति परीक्षण के लिए निर्धारित अपनी ही तिथि से एक दिन पूर्व राज्यपाल शक्ति परीक्षण को व्यर्थ मानने लगे और 356 लागू करने की सिफारिश करने को मजबूर हो गए। उनकी इस मजबूरी का राज भी खुलना ही चाहिए। क्या दिल्ली से उन्हें अपना फैसला पलटने को कहा गया था? क्या भाजपा को भरोसा नहीं था कि कांग्रेस के 9 बागी विधायक शक्ति परीक्षण के दिन तक उसके खेमे में बने रहेंगे, इसलिए वह राजभवन पर अपनी रिपोर्ट पलटने के लिए दवाब बनाए हुए थी? ऐसा तो नहीं है कि दस दिन का समय राज्यपाल द्वारा दिए जाने से भाजपा नेतृत्व परेशान हो गया था क्योंकि इतने समय तक बागियों को अपने साथ जोड़े रखना एक समस्या थी? पारदर्शिता की खातिर वे सारी रिपोर्टें सार्वजनिक की जानी चाहिए जो 18 मार्च से लेकर 26 मार्च तक राज्यपाल ने केन्द्र को भेजीं।
तमाम विधि विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि अब विधानसभा को निलम्बित रखने के बजाय उसे भंग कर नए चुनाव कराए जाने चाहिए। लेकिन केन्द्र का भाजपा नेतृत्व यदि अरुणांचल की तरह उत्तराखण्ड में भी दलबदलुओं को मिलाकर सरकार बनाना चाह रहा हैै तो वह चुनाव के लिए तैयार ही नहीं होगा। विधानसभा को निलम्बित रखकर ही भाजपा अपनी सरकार बना पाएगी। विधानसभा भंग होने का डर विधायकों को उसके पहलू में बनाए रखेगा। फिर वर्तमान विधानसभा का अभी करीब 10 महीने का कार्यकाल बाकी है जिसके दौरान भाजपा वहां अपनी सरकार चलाना चाहेगी और 2017 में अपने शासनकाल में आमचुनाव कराना चाहेगी। जिस तरह उसने 2012 के चुनाव में सत्ता खोई थी और उसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार खंडूरी तक हारे थे, उसकी कसक भाजपा के दिल में अब भी होना स्वाभाविक है। 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने 32 और भाजपा ने 31 सीटें जीती थीं।
कसक कांग्रेस को भी कम नहीं हो रही होगी। जिन विजय बहुगुणा को कांग्रेस नेतृत्व ने 2012 में मुख्यमंत्री की कुर्सी दी थी और हरीश रावत के वरिष्ठता के दावों को दरकिनार कर दिया था, वे ही बगावत का झंडा उठाकर भाजपा के दरबार में हाजिर हुए हैं। जो व्यक्ति मुख्यमंत्री रहा हो, वही बगावत का झंडा उठा ले तो इससे यह तो साबित होता ही है कि कांग्रेस नेतृत्व अपने घर को संभालकर रख पाने में पूरी तरह असफल रहा है। =

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