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मैटर की जगह नैटर बनी खबरें

l_Untitled-compressor-1462465953जंगल जलें या हो रेप न्यूज चैनलों पर बस बहस, माध्यम बने मुखौटा। जमीनी सच्चाई पर काम करते नहीं दिखते एंकर्स…

न्यूज चैनल बिना मसालेदार खबरों को मसाले की तरह परोस रहे हैं, यह ट्रेंड बन गया है। अगस्ता मामला हो या जंगल जलने का या फिर रेप का, प्राइम टाइम पर शुरू हो जाती है बहस, डिस्कशन। क्या ये ही मीडिया को लोगों को दिखाना चाहिए या फिर क्या लोग भी ये ही देखना चाहते हैं? शायद नहीं…

असल मुद्दों से ज्यादा विवाद में दिलचस्पी

न्यूज एंकर्स बड़ी दिलचस्पी से किसी भी घटना को कई एंगल से दिखाते नजर आते हैं, बहस होती है। जिसका वास्तविकता में कोई सार नजर नहीं आता। आज ऐसे न्यूज चैनल का शायद ही मुंह पर नाम आए, जो जमीन से जुड़कर काम कर रहा हो। गांवों में खासतौर पर ऐसे गांवों में जहां मूलभूत सुविधाओं के लिए लोग तरस रहे हैं, एंकर्स क्यों नहीं जाते। टीवी स्क्रीन पर अगस्ता, केरल रेप, माल्या और राहुल-सोनिया ही क्यों छाए है

कंगना-रितिक पर जमकर खबरें दिखाई जा रही हैं। क्या ये सोशल इश्यूज हैं? कोई न्यूज चैनल ऑफबीट दिखाने के नाम पर कभी कोई खोज दिखाने लगता है, तो कभी इतिहास में चला जाता है। ज्यादातर समय कोरी लफ्जबाजी होती रहती है। तथ्यों और विषयों की गहराई से कहीं ज्यादा इस बात में दिलचस्पी होती है कि उसे लेकर कोई विवाद पैदा हुआ है कि नहीं। जिस खबर के पीछे विवाद नहीं होते, वो खबर का हिस्सा नहीं है।

नहीं निचोड़ा जा रहा खबरों को

ज्यादातर न्यूज चैनल सतही तौर पर काम कर रहे हैं। जरूरत ये बताने से ज्यादा कि खबर क्या है, ये है कि उसका समाधान क्या है, कैसे आम हित में काम होना चाहिए और कैसे न्यूज चैनलों को सही काम करवाने के लिए जिम्मेदार लोगों पर दबाव डलवाना चाहिए। मीडिया सही तरीके से अपनी पावर का इस्तेमाल नहीं कर रहा। चैनल खबरों के बजाय पैनल डिस्कशन को शायद इसलिए प्रायोरिटी देते हैं कि कम खर्च और मेहनत के टीआरपी बढाये। यही देखने में आता है कि चार अलग-अलग क्षेत्र के वक्ताओं को जुटाकर गर्म मुद्दे पर बहस करा ली जाती है।

स्मोकस्क्रीन से निकल गांव जाएं एंकर्स

जरूरत है मीडिया को सही तरीके से सही मुद्दों पर काम करने की। माध्यम का सही यूज करने की। ऐसे गांवों में जाने की जहां लोग पिछड़े हैं, सुविधाओं और पानी तक के लिए तरस रहे हैं। महरूम हैं, उन चीजों से जो कि जीने के लिए बेसिक नीड्स हैं।

 

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