अद्धयात्मदस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

वासुदेव_कृष्ण : आशुतोष राणा की कलम से.. {भाग_३}

स्तम्भ : कृष्ण अपने हृदय की आत्मीयता को कंस पर उड़ेलते हुए बोले- मुक्त होने के लिए रिक्त होना पड़ता है मामा। कृष्ण एक ऐसा रिक्त पात्र है जिसमें संसार अपने समस्त संशय, संताप, संकल्पों को उड़ेलकर मुक्त हो जाता है।
अपने मुख पर मधुर हास्य को धारण करते हुए कृष्ण बोले- और आनंद इस बात का है कि मैं संसार से सब कुछ लेने के बाद भी दाता कहलाता हूँ, ये संसार कृष्ण को मुक्तिदाता भी कहता है मामा। आप चाहें तो अपने हृदय के समस्त संताप को, क्लेश को, कालिख को कृष्ण पर डालकर मुक्त हो सकते हैं।


संसार के समस्त कलंकों को स्वीकार करने के बाद भी कृष्ण-कृष्ण ही रहेगा क्योंकि कृष्ण का अर्थ ही काला होता है। विश्वास कीजिए, कृष्ण कंस का वधिक ही नहीं वाहक भी है। पहले मैंने आपको शरीर से मुक्त किया था अब आपको संताप से भी मुक्त करूँगा।
कृष्ण के वचनों में कंस को एक आश्वस्ति ध्वनित हो रही थी। वह विगलित होते हुए बोला- कृष्ण अपने मन के जिस कक्ष के कपाट मैंने आज तक किसी के लिए नहीं खोले, आज तुम्हारे लिए उसे खोलता हूँ। तुमने कंस को मार कर उसके भूखंड पर राज किया था तो आज उसके भावखंड में प्रवेश करो पुत्र। तुम्हारा-मेरा रिश्ता त्राण का नहीं, प्राण का है। तभी तो मुझे तुम्हारे प्राण चाहिए थे और तुमको मेरे।
कंस को कृष्ण से मृत्यु की नहीं मुक्ति की अपेक्षा है, संसार कंस को घृणा का रूप मानता है, किंतु वो ये नहीं जानता की कंस को घृणा के प्रचार में नहीं उसके उपचार में रुचि थी। घृणा से निरंतर संघर्ष करते हुए कंस कब घृणित हो गया पता ही ना चला।
कृष्ण ने कंस की आँखों में देखते हुए कहा- कहना तो नहि चाहिए मामा किंतु फिर भी कहता हूँ, मनुष्य जिस भी भाव, भाषा, व्यक्ति, या विचार के सम्पर्क में रहता है वह उसी के जैसा हो जाता है।
कंस ने भी श्रीकृष्ण के नेत्रों में झाँकते हुए कहा- तब तो इस सिद्धांत के आधीन तुम भी होगे ?
तुम भी जीवन भर जरासंध, दुर्योधन, कालयवन, नरकासुर, शिशुपाल जैसे दुष्टों के संपर्क में रहे। महाभारत जैसे भीषण युद्ध के सूत्रधार रहे जिसने मनुष्यता की अपूर्णीय क्षति की। इन सभी से तुम्हारे सम्बन्धों के मूल में घृणा थी। फिर संसार कंस को ही दुष्ट और घृणित क्यों मानता है ? कृष्ण को क्यों नहीं ?


कंस की बात पर कृष्ण चंचलता से मुस्कुरा दिए। उन्हें मुस्कुराता देख कंस आहत स्वर में बोल पड़ा- क्यों मैंने क्या ग़लत कहा ? मैं भी मृत्यु से बचना चाहता था और तुम भी। हम दोनों ही समान परिस्थितियों से घिरे थे ? फिर हमें मिलने वाले परिणाम अलग क्यों हैं ?
कृष्ण ने कंस का हाथ पकड़ा और उसे अपने कक्ष में लगे झूले पर अपने साथ बैठाते हुए बोले- मामा, परिस्थिति और मन:स्थिति में अंतर होता है।
घृणा से घिर जाना मेरी परिस्थिति थी, और घृणा में खो जाना तुम्हारी मन:स्थिति। मनुष्य के जीवन में यश अपयश का कारण उसकी परिस्थिति नहीं अपितु मन:स्थिति होती है। मैंने अपनी मन:स्थिति को परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होने दिया।
मामाश्री, आप जीवन में मृत्यु को ढूँढ रहे थे और मैं मृत्यु में जीवन खोज रहा था।
आपका प्रेम, युद्ध की पृष्ठभूमि पर खड़ा था और मेरे युद्ध में प्रेम की आधारशीला थी।
आप प्रेम में भी युद्ध देखते रहे, और मैं युद्ध में भी प्रेम ढूँढ रहा था।
मैंने जरासंध, दुर्योधन, नरकासुर, शिशुपाल को तो स्वीकार लिया किंतु इनकी घृणा, को अपने से दूर ही रखा। किंतु आपने समाज की, कृष्ण की शत्रुता को तो अंगीकार किया किंतु कृष्ण को और समाज को अपने से दूर रखे रहे।
दुष्ट से अधिक घातक दुष्टता होती है मामा। कृष्ण और कंस में मात्र इतना अंतर है कि कृष्ण ने दुष्टों के अस्तित्व को मान दिया किंतु उनकी दुष्टता का समूल नाश कर दिया, और कंस ने समाज की घृणा को तो स्वीकार कर लिया लेकिन समाज के अस्तित्व को स्वीकार ना सका।
मैं बाधकों को भी साधक मान रहा था, और आप साधक को भी बाधक मान रहे थे। मैं अपने शत्रुओं को भी मित्र बनाने का प्रयास करता रहा और आपने अपने मित्रों को ही शत्रु बना लिया।
हमारे दृष्टिकोण की भिन्नता ही हमारे भिन्न परिणामों का कारण है।
आपसे चूक हो गई मामाश्री, घृणा को मिटाने के प्रयास में आप घृणा से प्रेम कर बैठे इसलिए घृणा के उपचार के नाम पर सम्पूर्ण समाज में घृणा का प्रसार कर दिया। याद रखिए हम जिससे प्रेम करते हैं उसी का प्रसार भी करते हैं, परिष्कार भी करते हैं, और उसे प्रतिष्ठित करने के उपक्रम में लगे रहते हैं। आपने अपनी घृणा को इतना परिष्कृत कर दिया था मामा, कि वह घृणा होते हुए भी आपको प्रेम ही दिखाई दे रही थी।
कंस कृष्ण की बात को सुनकर विचार में पड़ गया, फिर स्थिर नेत्रों से श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए बोला- कंस, घृणा से उसकी अंतिम सीमा तक घृणा करता था। कुछ लोगों को प्रेम से प्राणवायु मिलती है, तो कुछ का जीवनप्राण द्वेष होता है, कंस की जीवनशक्ति मित्रता नहीं, शत्रुता थी कृष्ण।
इस शत्रुता ने, जिसका कारण असुरक्षा, अपमान, आरोप, अविश्वास, प्रवंचना थी मेरे जन्म लेने से पहले ही मेरी माँ पवनरेखा के हृदय में जन्म ले लिया था।
कृष्ण की आँखों में अपनी व्यथा को सुनने के लिए रुचि देख कंस ने बोलना आरम्भ किया- कृष्ण..

~#आशुतोष_राणा

#क्रमशः॰॰

 

 

वासुदेव_कृष्ण : आशुतोष राणा की कलम से… {भाग_४}

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