दस्तक-विशेषसाहित्य

मर्यादा पुरुषोत्तम राम और चकबन्दी का मुकदमा

कहानी : संजय माथुर
नन्दन जी के यहाँ रामायण बैठी है। सब मुहल्ले वालों को न्योता भेजा गया है। सभी को उसमें शामिल होना है। 24 घंटे का आयोजन है। राम नवमी का पर्व है। उसी उपलक्ष्य में आयोजन है। नन्दन जी राम के परम भक्त हैं। अपने आशियाने का नाम भी रखा है ‘राम निवास’। उनका रोम-रोम राम मय है। रोज कागज पर जब तक हजार बार राम-राम न लिख लें तब तक भोजन का निवाला मुँह में नहीं डालते। एक करोड़ बार लिखने का संकल्प लिया है। उन्नत ललाट पर जब तिलक लगाकर नन्दन जी निकलते हैं तो वह छटा निराली होती है। नन्दन जी की हर बात-चीत में मानस के दोहे-चौपाइयों का उद्धरण होता हैं।
जब भी उनसे मुलाकात होती है, वह जोर से अभिवादन करते हैं ‘ जय श्री राम’। उनको उम्मीद रहती है कि मिलने वाला भी ये ही अभिवादन और अधिक उत्साह से करेगा। मैंने कई बार जब उन्हें ‘प्रणाम’ किया तो उन्होंने अभिवादन करने की ‘जय श्री राम’ शैली का ही पालन करने को बाध्य किया और मुझ अज्ञानी को बताया कि आप राम की महिमा को नहीं जानते। फिर उन्होंने अपेक्षा अनुरूप मानस का दोहा सुनाया। उन्हें मानस के दोहे-चौपाइयां ऐसे याद थी जैसे साहूकार को एक-एक कर्जदार के पैसे याद रहते हैं। हर मौके-बेमौके उनको सुना कर माहौल अपने पक्ष में कर लेने की उनमें अदभुत क्षमता है। सुनाते समय वह सदा ही आँखें बन्द कर लेते और मुंह आसमान की ओर कर लय में गाते हैं –
‘राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार!
तुलसी भीतर बाहेरहुं जौं चाहसि उजिआर!! ’
मैंने अज्ञानी की तरह उनकी ओर देखा। वह मेरे अज्ञान पर मुस्कुराये और कहा- अरे भैया, तुलसीदास जी कहते हैं कि अगर तुम बाहर और भीतर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी दहलीज पर राम नाम रुपी मणि दीपक को रखो।
मैं जानता था कि उन्होंने मुझे ‘भैया’ बोला अवश्य था मगर उनकी इच्छा दरअसल ‘अरे मूर्ख-अज्ञानी ’ बोलने की थी। अब मेरे पास अपने ‘प्रणाम’ को वापिस ले ‘जय श्री राम’ बोलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। मैंने भी जोर से ‘जय श्री राम’ का उद्घोष किया। नन्दन जी इस पर प्रसन्न हुऐ। मुहल्ले वाले अब सर्तक रहते हैं और बाकी लोगों से चाहे जो अभिवादन करें मगर नन्दन जी से मिलने पर ‘जय श्री राम’ का ही अभिवादन करते हैं।
नन्दन जी राज्य सरकार के कर्मचारी हैं। उच्च शिक्षा ग्रहण करने एक बार गांव से जो नन्दन जी निकले तो फिर पलट कर वापिस नहीं गये। शहर के ही होकर रह गये। राज्य सरकार की सेवा करने का व्रत लिया और अभी तक उसको निभा रहे हैें। उनकी सेवा के बदले राज्य सरकार ने भी उनकी घर-गृहस्थी बनाने-चलाने का जिम्मा लिया। उनके बच्चों को पढाने-लिखाने का जिम्मा लिया। अब शहर में एक भव्य आशियाना ‘राम निवास’ बनाकर वह राम मय हो सरकार की सेवा कर रहे हैं।
मुहल्ले वालों का मानना है कि नन्दन जी ‘खाते’ हैं। इस दृढ़ विश्वास के पीछे लोगों की मान्यता है कि राज्य सरकार का कर्मचारी तो साहब ‘खाता’ ही है। सरकारी कर्मचारी है तो ‘खायेगा’ ही! इस तथ्य को अब समाज ने स्वीकार कर लिया है और राष्ट्रीय स्तर पर मान्य घोषित कर दिया है। इस मान्यता के मिल जाने से सरकारी कर्मचारी की इज्जत समाज में बहुत ऊंची हो गयी है और लोग उसका बहुत सम्मान करने लगे हैं। इसीलिये मुहल्ले में नन्दन जी को हर समय दुहरा सम्मान मिलता है, एक राम मय होने का और दूसरा सरकारी कर्मचारी होने का।
तो ऐसे महापुरुष के यहाँ राम कथा सुनने का अवसर कोई खोना नहीं चाहता। पूरा मुहल्ला मौजूद है ‘ राम निवास ’ में। बाहर बरामदे में ढेरों कुर्सियां पड़ी हैं जिस पर पड़ोसी, रिश्तेदार, गाँव के मिलने वाले, कार्यालय के साथी-संगी सब बैठे मानस का पाठ सुन रहें हैं। किसी कारण से अगर कोई ‘राम निवास’ ना पहुँच सके और इस कथा को सुनने से वंचित रह जाऐ, नन्दन जी ऐसा कभी नहीं होने देते। कई लाउडस्पीकरों के माध्यम से मीलों दूर बैठे श्रोतागण भी कथा का रसास्वादन कर रहें हैं। अन्दर एक मंडली बहुत ही भाव विभोर होकर विभिन्न वाद्ययंत्रों के सहयोग से झूम-झूम के एक के बाद एक चौपाईयाँ गा रही है। चारों ओर बड़ा ही पवित्र वातावरण है। मैं भी वहाँ पहुँच बाहर पड़ी एक कुर्सी पकड़ लेता हूँ। नन्दन जी धोती पहने हैं, ऊपर से रामनामी ओढ़ रखी है। उन्नत ललाट पर बड़ा सा तिलक शोभायमान है।
मुझे देखते ही उन्होंने कहा – बड़ी देर कर दी आने में? मैंने कुछ ‘ हाँ, हूँ’ टाइप का जवाब दिया। उनके पास आज बहुत काम है। मेरा जवाब सुने बगैर ही वह किसी दूसरे काम में उलझ गये। मैंने अपनी कुर्सी पड़ोसी सदानन्द जी के पास उठा कर रख ली।
मैंने सदानन्द जी से बात शुरु की- मंडली तो जबरदस्त है। सदानन्द जी बोले- लोग पहले इनकी बुकिंग करते हैं फिर तारीख तय होती है कि कब रामायण बैठेगी?
मंडली वाले और बाकी सब पढ़ने वाले झूम-झूम कर किसी पुरानी फिल्मी धुन की तर्ज पर चौपाइयां गा रहे हैं। मैंने एक निगाह अगल-बगल बैठे लोगों पर डाली।
फिर सदानन्द जी से पूछा- वर्मा नहीं दिख रहा?
-वर्मा की कोई छुट्टी थोड़े ही है आज! भैया, प्राइवेट मालिक तो चौबीस घंटा चूसता है! ये सब छुट्टी-छुट्टा तो भैया सरकारी दामादों के लिये है। सदानन्द जी ने मुझे ज्ञान दिया।
मुझे और सदानन्द जी को फिजूल समय ही काटना था तो मैंने फिर एक फिजूल सवाल ही सदानन्द जी से पूछ लिया- नन्दन जी के पिताजी और वह गाँव वाले दो छोटे भाई नज़र नहीं आ रहे?
सदानन्द जी ने फुसफुसा कर कहा- आपको नहीं पता?
अचानक सदानन्द जी का व्यवहार इतना रहस्यमय हो गया तो मैं अचकचा गया। उसी अचकचाहट में मेरे मुँह से निकला- क्या?
सदानन्द जी ने और फुसफुसा कर कहा- पिता तो रहे नहीं और भाइयों से मुकदमा हो गया न इनका!
मैने भी रहस्यमय वातावरण को बनाये रखते हुये उतना ही फुसफुसा कर पूछा – अरे , कब हो गया ये सब और कैसा मुकदमा हो गया?
– कुछ दिन हो गये उनकी मौत को! और मुकदमा हुआ जमीन का !! चकबन्दी का!! सदानन्द जी ने उतना ही फुसफुसा कर फिर कहा।
मैं आश्चर्यचकित था, इतना सब हो गया और मुझे पता ही नहीं।
मैने फिर फुसफुसाते हुऐ पूछा- मतलब???
सदानन्द जी फुसफुसा कर बताने लगे- अरे, इनके पिता की जो गाँव वाल जमीने हैं उसमें पिताजी चाहते थे कि ये अपना हिस्सा छोटे भाइयों को दे दें। पिताजी का मानना था कि राम जी की कृपा से इनके पास तो सब है ही है। छोटे भाई गाँव मे ही रह कर खेती- किसानी करते हैं और्र आर्थिक रुप से कमजोर हैं।
इनका हिस्सा मिल जाने से वे भी थोड़े मजबूत हो जायेंगे और पिताजी चैन से मर सकेगें। इस पर नन्दन जी अपने पिता से बड़े नाराज़ हुये। इसी के कुछ दिन बाद पिता जी की मृत्यु हो गयी। इन्होंने अपने हक़ को पाने के लिये भाइयों पर चकबन्दी का मुकदमा कर दिया।
तभी अन्दर मंडली ने चौपाई गायी –
‘सरल सुभाउ राम महतारी! बोली वचन धीर धरि भारी!!
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका! पिता आयसु सब धरमक तीका!!
यानि सरल स्वभाव वाली श्री राम चन्द्र जी की माता बड़ा धीरज धर कर वचन बोलीं- हे तात ! मैं बलिहारी जाती हूँ तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है। मुझसे अब वहाँ बैठा नहीं गया और मैं बिना प्रसाद लिये घर वापिस आ गया।
(लेखक स्वतंत्र रुप से देश में घूम घूम कर डॉक्यूमेन्ट्री फिल्में बनाते हैं।)

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